Click here for the English Translation
प्रभु की मेज़ - समझौते द्वारा विनाश
पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 11:18-19 से प्रभु भोज में भाग लेने से संबंधित गलतियों के पहले समूह को देखा था। कलीसिया में समस्याओं की जड़ गुट-बाज़ी और विभाजन थे, जो इसलिए उत्पन्न हो गए थे क्योंकि लोग प्रभु यीशु की ओर देखने की बजाए, अपने मन-पसंद शिक्षकों और अगुवों की ओर देखने लग गए थे। उनमें से जो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ रखते थे और ओहदा चाहते थे, उन्होंने विश्वासियों के मध्य इस विनाशकारी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। कुल मिलाकर परिणाम यह हुआ कि उनमें आत्मिक अपरिपक्वता, बालकों के समान व्यवहार, शारीरिक प्रवृत्तियाँ और बर्ताव, डाह और झगड़े उत्पन्न हो गए जिन से कलीसिया में विभाजन आ गए।
इसके बाद पौलुस 1 कुरिन्थियों 11:20-22 में प्रभु भोज से संबंधित गलतियों के दूसरे समूह को दिखाता है जो उनमें घुस आया था। इसे समझने के लिए हमें प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों के साथ प्रभु भोज को स्थापित करते समय के कुछ संबंधित तथ्यों को दोहराना और याद करना पड़ेगा। हमने देखा था कि प्रभु यीशु ने प्रभु भोज की स्थापना शिष्यों के साथ फसह का भोज खाते समय, उसी भोज की सामग्री को लेकर की थी। हम इससे पहले, निर्गमन 12 का अध्ययन करते समय, यह भी देख चुके हैं कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों, इस्राएलियों को फसह के दौरान खमीर का प्रयोग करना बिल्कुल वर्जित था (निर्गमन 12:15, 19; 13:7; 34:25)। हम मत्ती 26:26-27 में लिखा पाते हैं कि “उसने उस से कहा, तू कह चुका: जब वे खा रहे थे, तो यीशु ने रोटी ली, और आशीष मांग कर तोड़ी, और चेलों को देकर कहा, लो, खाओ; यह मेरी देह है। फिर उसने कटोरा ले कर, धन्यवाद किया, और उन्हें देकर कहा, तुम सब इस में से पीओ।” यहाँ हम देखते हैं कि प्रभु ने रोटी और प्याले के लिए एक-वचन शब्दों का प्रयोग किया है, बहु-वचन का नहीं, अर्थात एक ही रोटी थी और एक ही प्याला था। प्याले में भी “दाख रस” (लूका 22:18) था, अर्थात अंगूरों का रस, न कि मदिरा जो दाख रस पर खमीर के कार्य करने से बनती है; फसह के किसी भी भाग में खमीर पूर्णतः वर्जित था। बिल्कुल यही बात मरकुस 14 और लूका 22 के वृतान्तों में भी दी गई है, और इनके द्वारा भी मत्ती के हवाले के एक-वचन के प्रयोग की पुष्टि हो जाती है।
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए जब हम 1 कुरिन्थियों 11:20-22 को पढ़ते हैं, तो हम पहचान सकते हैं कि शैतान ने किस प्रकार से प्रभु की मेज़ को भ्रष्ट कर दिया था, उसके मनाने की प्रभु द्वारा स्थापित विधि को बिगाड़ और बदल कर कुछ और ही कर दिया था। इस प्रकार से किए गए इन बिगाड़ और बदलावों के कारण कलीसिया में फिर अन्य गलतियाँ भी घुस आई थीं। हम इन पदों से उन गलतियाँ को देख सकते हैं जो कि कलीसिया में आ गई थीं:
रोटी और प्याले में संकेतात्मक रीति से भाग लेने के स्थान पर - शिष्यों को एक रोटी और एक प्याले में से भाग लेना था, इसलिए प्रत्येक ने रोटी का छोटा टुकड़ा, और प्याले में से एक घूंट भर ही लिया होगा; उन विश्वासियों ने प्रभु भोज को पूरा भोजन बना लिया था। हम पौलुस द्वारा पद 20 के अंत और पद 21 के मध्य में प्रयोग किए गए शब्दों से इसके विषय उसके द्वारा दिए गए ताने, उसके व्यंग्य को देख सकते हैं “...यह प्रभु भोज खाने के लिये नहीं” “...अपना भोज खा लेता है...” उन्होंने प्रभु भोज को अपने व्यक्तिगत भोज में बदल दिया था। और अब वे प्रभु की आज्ञाकारिता में, उसे आदर देने के लिए नहीं, किन्तु अपनी इच्छा के अनुसार करने के लिए एकत्रित हो रहे थे, किसी की भी परवाह किए बिना।
वे एक साथ नहीं, अलग-अलग खा रहे थे। प्रभु ने सभी शिष्यों को एक साथ एक ही रोटी और एक ही प्याले से भाग लेने के लिए कहा था। किन्तु यहाँ तो विश्वासी पूरा भोजन करने लग गए थे, व्यक्तिगत रीति से “एक दूसरे से पहिले”। उनके मध्य एक ही प्रभु पर किए गए एक ही विश्वास की एकता का चिह्न भंग हो गया था। उसके स्थान पर अपने आप को एक-दूसरे से बढ़कर दिखाने की भावना आ गई थी, जिससे उनके मध्य केवल विभाजन और गुट ही बन सकते थे।
उन्होंने प्याले के दाख रस को मदिरा, दाख रस पर खमीर की क्रिया से मिलने वाली वस्तु, से बदल लिया था। और उस मदिरा में से भी, जिसे कदापि वहाँ होना ही नहीं चाहिए था, एक घूंट लेने के स्थान पर, उसे इतना पी रहे थे कि मतवाले हो जाते थे - कलीसिया में। और वे यह उस समय कर रहे थे जब वे कहने को, उनके लिए दिए गए प्रभु के बलिदान को याद करने के लिए एकत्रित होते थे, अर्थात उसकी तोड़ी गई देह और बहाए गए लहू को, जिससे कि उन्हें उद्धार मिल सका, आदर देने के लिए।
न केवल वे प्रभु द्वारा दी गई प्रभु भोज की विधि का उल्लंघन कर रहे थे, वरन उनमें अपने साथी सह-विश्वासियों के प्रति कोई परवाह भी नहीं थी। वे प्रभु भोज के नाम में भोजन खाने को “जिन के पास नहीं है उन्हें लज्जित” (पद 22) करने के लिए प्रयोग कर रहे थे। बजाए साथी विश्वासियों के प्रति विश्वासी भाईचारे और प्रेम को दिखाने के, उन्हें जिनके पास कोई भोजन नहीं था अपने साथ भोजन में भाग लेने के लिए आमंत्रित करने की बजाए, वे उनका ठट्टा कर रहे थे, उन्हें भूखे छोड़ दे रहे थे (पद 21), जबकि स्वयं प्रभु भोज के नाम में अपना भोजन उनके सामने खा रहे थे। उनके मध्य की इस गुट-बाज़ी ने उन्हें गहराई से विभाजित कर दिया था, और विभाजन की एक रेखा थी उनके परस्पर आर्थिक और सामाजिक स्तर - जिनके अनुसार वे पृथक हो गए थे, बजाए पापों से बचाए गए और उद्धार पाए हुए परमेश्वर की संतानों के समान एक-जुट रहने के।
पवित्र आत्मा की अगुवाई में, पौलुस कहता है कि उनका यह व्यवहार परमेश्वर की कलीसिया को तुच्छ जानना है (पद 22)। पौलुस स्तब्ध है, ऐसा लगता है कि वे लोग पौलुस से अपने व्यवहार का अनुमोदन और सराहना की अपेक्षा कर रहे थे। किन्तु पौलुस के पास अपने भौंचक्के रह जाने, व्यथित होने को बताने के लिए कोई शब्द ही नहीं हैं, वह बस इतना ही कहता है “मैं तुम से क्या कहूं?” और फिर एक फटकार “क्या इस बात में तुम्हारी प्रशंसा करूं? मैं प्रशंसा नहीं करता” के साथ बात का अंत करता है (पद 22)।
यहाँ पद 18 से 22 में हम जो घटनाक्रम देखते हैं उस पर थोड़ा विचार कीजिए। मंडली में कुछ लोगों में ओहदा और पहचान प्राप्त करने की लालसा के कारण कलीसिया में प्रभु द्वारा नियुक्त शिक्षकों और अगुवों के नाम पर गुट-बाज़ी आरंभ हो गई, और वह भी उन शिक्षकों और अगुवों की जानकारी के बिना, उनकी पीठ के पीछे। क्योंकि इस प्रवृत्ति को तुरन्त ही रोका और हटाया नहीं गया, इसलिए उसने जड़ पकड़ ली, बहुत बढ़ गई। इससे कलीसिया में और विश्वासियों के व्यक्तिगत जीवनों में आत्मिक अपरिपक्वता आ गई, वे शारीरिक लोगों के समान व्यवहार करने लगे, जिसे उनकी प्रभु और विश्वास में बढ़ोतरी और उन्नति रुक गई, जो बिगड़ कर अन्ततः डाह, झगड़े, गुट-बाज़ी, और विभाजन तक पहुँच गई। इन बातों के कारण, उनके मध्य में, प्रभु की मेज़ का पूरा स्वरूप और उद्देश्य ही बिगड़ और बदल गया, प्रभु ने जो स्वरूप दिया था उससे बिल्कुल भिन्न कुछ और ही हो गया। और वे लोग फिर प्रभु को आदर देने और उसकी महिमा करने के उद्देश्य से एकत्रित होने के स्थान पर एकत्रित होकर परमेश्वर की कलीसिया को तुच्छ जानने वाले कार्य करने वाले बन गए। उनकी गिरावट का यह सिलसिला यहीं पर नहीं रुका; न केवल उन्हें अपनी इस गंभीर त्रुटि का, उन्होंने जो परमेश्वर की कलीसिया को तुच्छ जाना और प्रभु भोज का घोर अपमान किया, एहसास भी नहीं हुआ; बल्कि उनमें अपने किए के प्रति कोई संताप, कोई लज्जा नहीं थी, वरन उन्हें तो पौलुस से आशा थी कि वह उनके किए के लिए उनकी सराहना करेगा, उनके व्यवहार का अनुमोदन करेगा। यह हमें दिखाता है कि शैतान एक छोटे और महत्वहीन प्रतीत होने वाले प्रभु के वचन के उल्लंघन के द्वारा, किस प्रकार से बहका कर परमेश्वर के विरुद्ध होकर काम करने वाला बना देता है, और हम यही सोचते रहते हैं कि हम सही हैं, कुछ गलत नहीं कर रहे हैं, प्रभु की आज्ञाकारिता में एक भक्ति का जीवन जी रहे हैं - उनके अपने अनुसार तो वे प्रभु भोज में भाग लेने के लिए ही एकत्रित होते थे, किन्तु वास्तव में परमेश्वर की कलीसिया को तुच्छ जानते थे।
इस विनाशकारी स्थिति को सुधारने के लिए, जिसके बारे में हम अगले लेख से देखना आरंभ करेंगे, पौलुस उनके सामने फिर से प्रभु द्वारा प्रभु भोज की स्थापना को दोहराता है, उसके उद्देश्यों को उन्हें समझाता, और अनुचित रीति से उसमें भाग लेने के दुष्परिणामों को बताता है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 10-12
मत्ती 4
कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें
********************************************************************
The Lord’s Table - Compromise leads to Disaster
In the previous article we had seen the first set of errors related to partaking in the Holy Communion from 1 Corinthians 11:18-19. The root problem of the Church was factionalism and divisions that had come in because of people looking up to their favorite teachers and elders of the Church instead of the Lord Jesus. Those amongst them desirous of personal approval and recognition from men, stoked and nurtured this disastrous tendency amongst the Believers. The net result of it all was spiritual immaturity, childish behavior, being carnal, having strife and contentions, leading to divisions in the Church.
Paul then, in 1 Corinthians 11:20-22, points out the second set of errors that had crept in among them related to the Lord’s Table. To understand this, we need to recollect some pertinent facts related to the Lord’s initiating the Holy Communion with His disciples. We have seen that the Lord had established the Holy Communion during the Passover meal, using the elements of that meal. We had also seen earlier, while studying from Exodus 12, that the Israelites, the chosen people of God, had been forbidden the use of leaven for the duration of the Passover (Exodus 12:15, 19; 13:7; 34:25). We see from the account given in Matthew 26:26-27, “And as they were eating, Jesus took bread, blessed and broke it, and gave it to the disciples and said, "Take, eat; this is My body." Then He took the cup, and gave thanks, and gave it to them, saying, "Drink from it, all of you”. So, we see that in establishing the Holy Communion, the Lord Jesus took bread, broke it, and asked the disciples to “eat this” (all in singular, not plural; implying one bread); then He took the cup of “fruit of the vine” (Luke 22:18), i.e., the unfermented grape juice, (and not a cup of wine - the result of fermentation or leaven acting upon the grape juice; and all use of leaven was forbidden for the Passover), and asked the disciples to "Drink from it, all of you” (again all in singular, not plural; implying one cup of grape juice). Very much the same has been stated in the parallel accounts given in Mark 14 and Luke 22, and they too affirm the singular bread and cup, as we see in the reference from Matthew.
With the above facts in mind when we read 1 Corinthians 11:20-22, we can identify how Satan had distorted the Lord’s Table and changed its manner of observance to something quite different from what the Lord had done. This distortion had then brought in other errors into the Church. We can see from these verses that the following errors had crept into the Church:
Instead of partaking of the Bread and Cup symbolically - the disciples had to share the one bread and one cup, therefore, everyone would have taken a small part of the bread and a sip from the cup; the Believers had started to treat it as a full meal. We can see the sarcasm that Paul uses here at the end of verse 20 and beginning of verse 21 - “...it is not to eat the Lord's Supper. For in eating, each one takes his own supper...” They had changed “The Lord’s Supper” into their “own supper”; and they were now gathering not with the intention of honoring the Lord by being obedient to Him, but for each one to do what pleased them, without caring at all for the others.
They were eating it separately, not together. The Lord had asked all the disciples to together share the same bread and cup, at the same time. But here, the Believers had started to eat a meal, individually, “ahead of others.” The indicator of unity, of their being together as one unit in faith in the Lord had been broken; it had been replaced by a show of ‘one-upmanship’, which could only serve to divide and segregate them further.
They had replaced the contents of the cup with wine, the fermented product from grape-juice. And instead of taking a sip from that wine, which should not have been therein the first place, they were drinking it to the extent of getting drunk - in the Church. Doing this at the time they had purportedly gathered to honor the Lord by remembering His sacrifice for them, i.e., remember His body broken for them and His blood shed for them, so that they could be delivered from their sins.
Not only were they flouting the Lord’s instituted manner of the Holy Communion, but also had no concern for their fellow Believers, their brethren in the Lord. They were using their participation in the Holy Communion to “shame those who have nothing” (verse 22). Instead of exhibiting brotherly love and concern for fellow Believers, and inviting those who did not have any food to share and join with them, they were mocking them, letting them go hungry (verse 21) while they ate their food in the name of the Holy Communion of the Lord. The factionalism in them had deeply divided them, and one of the lines of divisions was that between the rich and the poor - they were segregating themselves according to their socio-economic status, instead of showing unity as the saved children of God.
Under the guidance of the Holy Spirit, Paul says, this was tantamount to despising the Church of God (verse 22). Paul is aghast, it seems that they were expecting an approval and commendation from Paul for what they were doing. But he is at a loss for words to express his shock and dismay about their behavior and all he can say is “What shall I say to you?”; and concludes with a tongue lashing for them “Shall I praise you in this? I do not praise you” (verse 22).
Consider the cascade of events that we see from verse 18 to 22 here. The desire of some people for ‘approval and recognition” in the congregation led to fostering factionalism in the name of teachers appointed by the Lord in their midst, and that too behind the backs of those teachers, unknown to them. Since this tendency was not immediately corrected, but was allowed to grow and take root, it caused spiritual immaturity, carnal behavior, and obstructed their growth and edification as Believers as well as the Church, eventually culminating in strife, contentions, and divisions in the Church. Because of the divisions and immature behavior, they changed the whole form and function of the Lord’s Table into something quite different from what the Lord had instituted. Eventually, in the name of gathering together to honor and glorify the Lord, they ended up despising the Church of God. This downward slide did not stop here; not only did they fail to realize the grave error, the gross denigration of the Church and the Holy Communion that they had committed; but they had no realization of it, no shame for it, rather they expected Paul to approve of it and praise them for their depravity. This gives us an idea of how Satan, through one seemingly small or insignificant transgression of the Lord’s commandment, can subtly beguile and lead us away into going and working against God, while all the while we can be thinking that there is nothing wrong with us and we are living a godly life, in obedience to the Lord – in their own eyes, they were gathering to partake in the Holy Communion, but in reality they were acting to despise the Church of God.
To rectify this disastrous situation, as we will start looking from the next article, Paul recounts to them the Lord’s setting up of the Holy Communion and its purpose, and tells them about the consequences of unworthily participating in the Lord’s Table.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 10-12
Matthew 4
Please Share The Link & Pass This Message To Others As Well