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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - परमेश्वर का परिवार / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - God’s Family


Click Here for the English Translation


बाइबल में कलीसिया संबंधी रूपक - परमेश्वर के परिवार के सदस्य

हमने पिछले लेखों में मत्ती 16:18 से देखा है कि प्रभु स्वयं ही अपनी कलीसिया को, अपने मानकों और निर्धारित गुणों एवं प्रक्रिया के द्वारा बना रहा है; वही उसका स्वामी है, उसकी देखभाल कर रहा है; और वर्तमान में, उसकी कलीसिया निर्माणाधीन है। हम यह भी देख चुके हैं कि कलीसिया कोई भवन अथवा स्थान नहीं है, वरन ऐसे लोगों का समूह है जो प्रभु यीशु को जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करके, अपने पापों से पश्चाताप करके, अपना जीवन उसे समर्पित कर चुके हैं, कि प्रभु की तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन बिताएँ; केवल इसी एकमात्र आधार पर प्रभु के साथ जुड़कर प्रभु की कलीसिया का अंग बने हैं। अन्य जो कोई भी किसी भी अन्य मान्यता, आधार या धारणा के अनुसार जुड़ने का प्रयास करता है, उसकी वास्तविकता को प्रकट करके प्रभु उसे अपनी कलीसिया से या तो बाहर निकाल देता है, या अभी उसकी पहचान करके जगत के अंत के समय की छंटनी में उसे बाहर निकाल दिया जाएगा। प्रभु यीशु बहुत बारीकी से हर एक बात का ध्यान रखते हुए स्वयं ही यह कार्य कर रहा है। प्रभु शैतान द्वारा पाप में गिराए और फँसाए गए, और परिणामस्वरूप परमेश्वर से संगति एवं सहभागिता से दूर हो गए लोगों को अपनी धार्मिकता के द्वारा धर्मी बनाकर, उन्हें ईश्वरीय धार्मिकता में लौटा लाकर, परमेश्वर की संगति एवं सहभागिता में बहाल कर रहा है (रोमियों 5 अध्याय पढ़िए), उन्हें अनन्तकाल के उनके स्वर्गीय निवास एवं कार्यों के लिए तैयार कर रहा है (यूहन्ना 14:3)।


प्रभु यीशु द्वारा कलीसिया में किए जा रहे इस धर्मी और पवित्र बनाए जाने तथा परमेश्वर की संगति एवं सहभागिता में बहाली के कार्य को, कलीसिया के लोगों के जीवनों में उसके उद्देश्यों एवं उनके परिणामों को, और उन के विभिन्न पहलुओं को हम उन विभिन्न रूपकों (metaphors) के द्वारा सीख और समझ सकते हैं, जो परमेश्वर के वचन बाइबल के नए नियम खंड में प्रभु के लोगों, उसकी कलीसिया के लिए प्रयोग किए गए हैं। ये रूपक हैं: प्रभु का परिवार या घराना; परमेश्वर का निवास-स्थान; मन्दिर या भवन; परमेश्वर की खेती; प्रभु की देह; प्रभु की दुल्हन; परमेश्वर की दाख की बारी, इत्यादि। प्रत्येक रूपक, प्रभु यीशु और पिता परमेश्वर के साथ एक सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी मसीही विश्वासी के संबंध, जीवन, और दायित्व के विभिन्न पहलुओं को दिखाता है। साथ ही प्रत्येक रूपक यह भी बिलकुल स्पष्ट और निश्चित कर देता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार के किसी भी मानवीय प्रयोजन, कार्य, धारणा आदि के द्वारा परमेश्वर की कलीसिया का सदस्य बन ही नहीं सकता है; वह चाहे कितने भी और कैसे भी प्रयास क्यों न कर ले। अगर व्यक्ति प्रभु यीशु की कलीसिया का सदस्य होगा, तो वह केवल प्रभु की इच्छा, उसके माप-दंडों के आधार पर, उसकी स्वीकृति से होगा, अन्यथा कोई चाहे कुछ भी कहता रहे, वह वास्तविकता में प्रभु की कलीसिया का सदस्य हो ही नहीं सकता है, और न कभी होने पाएगा। और यदि वह अपने आप को समझता या कहता भी है, तो उसकी वास्तविकता देर-सवेर प्रकट हो जाएगी, और वह अनन्त विनाश के लिए पृथक कर दिया जाएगा। इसलिए अपने आप को मसीही विश्वासी कहने वाले प्रत्येक जन के लिए अभी समय और अवसर है कि अपनी वास्तविक स्थिति को भली-भांति जाँच-परख कर, उचित कदम उठा ले और प्रभु के साथ अपने संबंध ठीक कर ले।

 

इन रूपकों में होकर हम उसकी कलीसिया के लिए प्रभु के प्रयोजन एवं उद्देश्यों को समझने का प्रयास करेंगे। इन रूपकों को किसी विशेष क्रम में नहीं लिया अथवा रखा गया है, सभी रूपक समान ही महत्वपूर्ण हैं, सभी में मसीही जीवन से संबंधित कुछ आवश्यक शिक्षाएं हैं। हम इन रूपकों के एक के बाद एक देखते हैं: 

(1) प्रभु का परिवार:


प्रभु यीशु ने, और परमेश्वर पिता तथा पवित्र आत्मा ने प्रभु के लोगों को, उसकी कलीसिया को, प्रभु का परिवार कहा है। इस संदर्भ में बाइबल के कुछ पद देखिए:

  • प्रभु यीशु ने कहा: “और कौन है मेरे भाई? और अपने चेलों की ओर अपना हाथ बढ़ा कर कहा; देखो, मेरी माता और मेरे भाई ये हैं। क्योंकि जो कोई मेरे स्‍वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई और बहिन और माता है” (मत्ती 12:49-50)।

  • परमेश्वर पिता कहता है: “इसलिये प्रभु कहता है, कि उन के बीच में से निकलो और अलग रहो; और अशुद्ध वस्तु को मत छूओ, तो मैं तुम्हें ग्रहण करूंगा। और तुम्हारा पिता होऊंगा, और तुम मेरे बेटे और बेटियां होगे: यह सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर का वचन है” (2 कुरिन्थियों 6:17-18)। 

  • परमेश्वर पवित्र आत्मा ने लिखवाया: 

    • परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं” (यूहन्ना 1:12)। 

    • आत्मा आप ही हमारी आत्मा के साथ गवाही देता है, कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं। और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं” (रोमियों 8:16-17)।  

    • इसलिये तुम अब विदेशी और मुसाफिर नहीं रहे, परन्तु पवित्र लोगों के संगी स्‍वदेशी और परमेश्वर के घराने के हो गए” (इफिसियों 2:19)।


उपरोक्त पदों से हम सीखते हैं कि प्रभु की कलीसिया के सदस्य होने का एक परिणाम है कि मसीही विश्वासी परमेश्वर की संतान, उसके परिवार के अंग भी बन जाते हैं। उन्हें यह आदर उनके किसी कार्य अथवा योग्यता के आधार पर नहीं, वरन केवल उनके द्वारा किए गए पापों से पश्चाताप, और प्रभु पर विश्वास के कारण उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है (यूहन्ना 1:12; इफिसियों 2:19)। परमेश्वर की संतान बनने पर यह मसीही विश्वासी का कर्तव्य है कि वह संसार की अशुद्धता से अपने आप को पृथक रखे; और परमेश्वर उनसे एक पिता के समान (2 कुरिन्थियों 6:17-18); तथा प्रभु यीशु अपने परिवार के सदस्यों के समान (मत्ती 12:49-50) उससे व्यवहार करता है।


प्रकट है कि कोई भी अपने आप को तब तक परमेश्वर की संतान, प्रभु के परिवार का सदस्य नहीं बना सकता है, जब तक परमेश्वर स्वयं उसे यह आदर प्रदान न करे। किसी भी मानवीय योजना अथवा विधि से यह कर पाना संभव नहीं है। इस प्रकार से परमेश्वर की संतान होने के इस रूपक से हम कलीसिया के लिए परमेश्वर के प्रयोजन, उसके उद्देश्य के विषय क्या सीखते हैं? थोड़ा थम कर, रोमियों 8:16-17 पर कुछ ध्यान से विचार, और इसके निहितार्थ पर गंभीरता से मनन कीजिए। क्या आप कभी कल्पना भी कर सकते हैं कि परमेश्वर आपको आपकी किसी भी योग्यता, गुण, अथवा कार्य के लिए मसीह यीशु का संगी वारिस, उसकी महिमा का संभागी बना सकता है? किन्तु आपके द्वारा अपने पापों से पश्चाताप करने, प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने और अपना जीवन उसे समर्पित करने के द्वारा परमेश्वर आपको कैसा अद्भुत, कल्पना से भी कहीं बढ़कर आदर देना चाहता है - आपको, अर्थात, उसकी कलीसिया के सदस्य को, अपने स्वर्गीय राज्य में मसीह यीशु का संगी वारिस और मसीह की महिमा का संभागी बनाना चाहता है।


यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो आपके अपने आप को जाँचने के लिए कुछ बातें इस रूपक से सामने आती हैं: क्या आप परमेश्वर की संतान, उसकी कलीसिया के सदस्य, पापों से पश्चाताप और प्रभु में विश्वास के द्वारा बने हैं; या किसी अन्य मानवीय प्रक्रिया के निर्वाह अथवा आधार पर अपने आप को प्रभु की कलीसिया का सदस्य समझते हैं? परमेश्वर की संतान होने के नाते क्या आप स्वर्गीय पिता परमेश्वर की इच्छा पर चलते हैं? क्या आप ने अपने आप को संसार और संसार की बातों से पृथक किया है? परमेश्वर के घराने का व्यक्ति होने के नाते आपको अपने दायित्वों का निर्वाह करना भी अनिवार्य है, अन्यथा संसार के लोगों के समान आपका जीवन और व्यवहार आपके वास्तविक मसीही विश्वासी होने पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न लगाता है, तथा आपके स्वर्गीय प्रतिफलों के लिए बहुत हानिकारक होगा।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।   



एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यशायह 9-10 

  • इफिसियों 3


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English Translation

Biblical Metaphors for the Church – Member of God’s Family


We have seen in the previous articles from Matthew 16:18 that the Lord Jesus is Himself building His Church, according to His standards and criteria; He alone is its owner; He cares for it and looks after it; and presently the Church is “Under Construction.” We have also seen the Church is not a building, or a place of worship, or any organization or Institution. Rather, the Church is the group of people who have truly accepted the Lord Jesus as the one and only savior of the world and themselves, have fully submitted their lives to Him to live in obedience to Him and His Word; they have all been joined together on the basis of this one criterion. Whoever, on the basis of any other concept, basis, or criteria tries to join the Church on his own, the Lord Jesus exposes him and removes him from His Church, or will eventually cast him out at the end time separation. The Lord Jesus is very carefully evaluating people and building His Church. The Lord is restoring the people fallen into sin and alienated from God by Satan, back into the fellowship with God, through His righteousness imputed to them (please read Romans 5), and is preparing them for their eternal heavenly residence and works (John 14:3).


The work of the Lord Jesus to make His people holy and righteous and restore them into fellowship with God; the purpose, works, and their results of the people of the Lord’s Church; and the various aspects of the Lord’s Church can be better understood through the various metaphors used in God’s Word for the Church of the Lord Jesus Christ. These metaphors are: the family of the Lord; the dwelling place of God; Temple or House of God; the field of the God; The Body of the Lord; the Bride of the Lord; the vineyard of God, etc. Every metaphor shows different aspects of the relationship of a truly surrendered and committed Christian Believer with the Lord Jesus and God, and the related aspects of the Believer’s life and responsibilities. Also, every metaphor also makes it very clear and evident that no person can become a member of the Lord’s Church through any human works, criteria, notions etc., no matter who he may be or how much he may try to join the Lord’s Church. If anyone joins the Church of the Lord, it will only be according to the will, standards, criteria, and acceptance by the Lord. Other than this anyone may keep saying, doing, and claiming whatever they may, he will never actually be or become a member of the Lord’s Church. Even if he considers and claims his being a member, sooner or later his actual state will be exposed, and he will be separated out for eternal destruction. Therefore, for everyone who claims himself to be a Christian Believer, now is the time and opportunity to examine and evaluate their relationship with the Lord and its basis, and if there is any doubt, then have it rectified and come into the right relationship with the Lord.


Through these metaphors we will try to understand the purposes and works of the Lord Jesus for His Church. In our considerations here, these metaphors have not been placed or taken up in any particular order; every metaphor is as important as any other, and every one of them brings forth some teaching or the other about the Christian Believer’s life. Let us consider these metaphors one by one:



(1) The Family of God


The Lord Jesus Christ, God the Father, and God the Holy Spirit have called the people of the Lord, His Church, members of the family of the Lord God. Consider some related verses from the Bible:

  • The Lord Jesus said: “And He stretched out His hand toward His disciples and said, "Here are My mother and My brothers! For whoever does the will of My Father in heaven is My brother and sister and mother."” (Matthew 12:49-50).

  • God the Father says: “Therefore Come out from among them And be separate, says the Lord. Do not touch what is unclean, And I will receive you. I will be a Father to you, And you shall be My sons and daughters, Says the Lord Almighty” (2 Corinthians 6:17-18).

  • God the Holy Spirit had it written:

    • But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name” (John 1:12).

    • The Spirit Himself bears witness with our spirit that we are children of God, and if children, then heirs; heirs of God and joint heirs with Christ, if indeed we suffer with Him, that we may also be glorified together” (Romans 8:16-17).

    • Now, therefore, you are no longer strangers and foreigners, but fellow citizens with the saints and members of the household of God” (Ephesians 2:19).


From these verses, we learn that one of the results of being a member of the Lord’s Church is that the Christian Believer becomes a child of God and a member of God’s family. This honor is bestowed upon them by God, not because they have done anything or because of any of their abilities, but because they have repented of their sins and accepted the Lord Jesus as their Savior and Lord (John 1:12; Ephesians 2:19). Having become a child of God, it is the Christian Believer’s responsibility to keep himself away from mixing with and the defilement of the world, and then God treats them as a Father (2 Corinthians 6:17-18), and the Lord Jesus accepts them as members of His family (Matthew 12:49-50).


It is evident that no one can make himself a child of God, a member of the family of the Lord Jesus, unless God Himself accords this status to him. It is not possible to attain this status by any human method or plan. So, what do we learn about the purpose and work of God through this metaphor of being a child of God? Stop for a while and ponder deeply over Romans 8:16-17, and its implications. Can you even imagine that God, because of any of your abilities, characteristics, or works could have made you a joint heir with Christ and let you share His glory? But because of your repenting of sins, accepting the Lord Jesus as your Savior and Lord, surrendering your life to Him, God is now giving you this wonderful and exalted status way beyond even your wildest imagination - God wants to make you, i.e., a member of His Church, a joint heir with Christ and let you share His glory in heaven.


If you are a Christian Believer, then this metaphor puts forth some things for you to examine yourself:  have you become a child of God, a member of His Church because of repenting of your sins, accepting Christ Jesus as your Lord and Savior, surrendering your life to Him to live in obedience to Him and His Word? Or, is it that because of having fulfilled certain rites, rituals and ceremonies you are assuming yourself to be an actual member of the Lord’s Church? Have you separated yourself away from the things and defilements of this world? Being members of the household of God, it is necessary for you to fulfill your God-given responsibilities; else your life and behavior similar to any other person of the world will not only bring a big question mark on your actually being a Christian Believer, but will also be very harmful to your eternal heavenly rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.




Through the Bible in a Year: 

  • Isaiah 9-10 

  • Ephesians 3

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - उद्देश्य / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - Purpose


Click Here for the English Translation


कलीसिया में होकर पाप से पूर्व की स्थिति की बहाली

 

पिछले लेखों में हमने मत्ती 16:18 में प्रभु के कहे वाक्य - “...मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...” से देखा है कि कलीसिया कोई स्थान अथवा भवन नहीं है, वरन उन लोगों का समूह है जो प्रभु यीशु को जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं, और इस आधार पर, उन्होंने प्रभु यीशु से पापों की क्षमा और उद्धार प्राप्त करके अपने आप को पूर्णतः प्रभु को समर्पित किया है। प्रभु यीशु कहे गए इस वाक्यांश से हमने प्रभु की इस कलीसिया के विषय तीन बातें देखीं - पहली प्रभु यीशु ही अपने लोगों को एकत्रित कर रहा है, और उसके लोगों में किसी अन्य आधार पर कोई भी व्यक्ति सम्मिलित नहीं रह सकता है, प्रभु उन्हें पृथक कर देता है, या कर देगा। दूसरी बात उसके लोगों की देखभाल और रख-रखाव के लिए प्रभु की इस कलीसिया का संपूर्ण स्वामित्व प्रभु यीशु ही के पास है; प्रभु ने कुछ लोगों को कलीसिया की कुछ ज़िम्मेदारियां अवश्य दी हैं, किन्तु स्वामी वह स्वयं ही है, और अपने लोगों की जरा से भी हानि या उनके प्रति कोई भी लापरवाही उसे स्वीकार नहीं है। और तीसरी बात है कि प्रभु की कलीसिया अभी निर्माणाधीन है, प्रभु यीशु ही उसे बना रहा है; उसकी कलीसिया में कौन कहाँ पर किस प्रकार से उपयोग होगा, यह केवल प्रभु यीशु ही निर्धारित एवं कार्यान्वित करता है। अर्थात प्रभु यीशु की कलीसिया से संबंधित हर बात पूर्णतः प्रभु ही के नियंत्रण में है, किसी भी मनुष्य या मानवीय संस्था का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है, चाहे इस संसार में उस मनुष्य अथवा संस्था का कोई भी स्थान या सम्मान क्यों न हो।

 

प्रभु यीशु ने अपने स्वर्गारोहण से पहले अपने शिष्यों को जो महान आज्ञा दी (मत्ती 28:18-20; मरकुस 16:15-19; लूका 24:47; प्रेरितों 1:8), वह सारे संसार के सभी लोगों, सभी जातियों में जा कर पापों से पश्चाताप करने और यीशु को प्रभु स्वीकार करने के द्वारा प्रभु यीशु में पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार प्रचार करने के लिए थी।  अर्थात, प्रभु का दृष्टिकोण केवल किसी एक स्थान विशेष के लोगों के लिए नहीं है, वरन सारे संसार के सभी लोगों के लिए है, इसलिए प्रभु यीशु की कलीसिया किसी स्थान अथवा जाति विशेष तक ही सीमित नहीं है, वरन विश्वव्यापी है। प्रभु संसार के सभी स्थानों और लोगों में से अपने विश्वासियों को एकत्रित करके अपनी विश्वव्यापी कलीसिया बनाने में लगा हुआ है। हम मसीही विश्वासी सुसमाचार प्रचार के द्वारा प्रभु के इस कार्य में उसके सहायक हैं - सुसमाचार प्रचार के द्वारा लोगों को प्रभु के पास लाते हैं, प्रभु से जोड़ते हैं; और जो सच्चे मन तथा पूर्ण समर्पण से प्रभु के साथ जुड़ता है, उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करता है और अपना जीवन उसे समर्पित करता है, प्रभु उसे अपनी कलीसिया में उसके लिए उपयुक्त और उचित स्थान निर्धारित करके, उसे उस स्थान और दायित्व के निर्वाह के लिए तैयार करता है, प्रयोग करता है। किन्तु साथ ही प्रभु यीशु प्रत्येक व्यक्ति के पापों से पश्चाताप और उसके प्रति उस व्यक्ति के समर्पण की वास्तविक मनोदशा भी भली-भांति जानता है; कोई उसका मूर्ख नहीं बना सकता है, उसे धोखा नहीं दे सकता है। इसलिए उसकी कलीसिया में वही बना रह सकता है, और उपयोगी हो सकता है जो प्रभु के मानकों पर सही होता है; अन्य सभी लोग देर-सवेर, अथवा जगत के अंत के समय के पृथक किए जाने में कलीसिया से बाहर निकाल कर अनन्त विनाश में भेज दिए जाएंगे। इसलिए हम सभी के लिए अभी यह अवसर है कि कलीसिया में अपने होने के विषय अपनी सही जाँच-परख कर लें, और यदि कोई सुधार लाना है तो उसे अभी समय रहते कर लें, क्योंकि किसके पास समय और अवसर कब तक है कोई नहीं जानता है; इस निर्णय को टालना बहुत हानिकारक, अनन्तकाल के लिए पीड़ादायक हो सकता है (इब्रानियों 3:7-19)।

 

इस कलीसिया को बनाने का, हम मनुष्यों को अपने साथ इतनी बारीकी से जाँच-परख कर, जोड़ने के पीछे, प्रभु यीशु का क्या उद्देश्य है, क्या उपक्रम है? इसे समझने के लिए हमें सृष्टि के आरंभ के समय में, अदन की वाटिका में घटित हुई पहले पाप की घटना पर जाना पड़ेगा, जब शैतान ने हव्वा को बहका कर आदम और हव्वा से परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करवाई, और पाप को सृष्टि में प्रवेश मिल गया, पाप के दुष्प्रभाव ने सारी सृष्टि को बिगाड़ दिया (रोमियों 8:19-22)। इस दुखद घटना से पूर्व, मनुष्य निष्पाप दशा में परमेश्वर के साथ संगति और सहभागिता रखता था, जो पाप के कारण टूट गई।


मनुष्य के साथ इसी संगति और सहभागिता को पुनः स्थापित करने, शैतान द्वारा मनुष्यों में बोए गए पाप के ‘बीज’ को निकाल बाहर करने, और मनुष्य को उसका वह आदर और स्थान बहाल करने के लिए जो परमेश्वर ने उसकी रचना करने के समय उसे दिया था (उत्पत्ति 1:28), प्रभु परमेश्वर अपने लोगों अपने साथ एकत्रित कर रहा है। इसीलिए वह इतनी बारीकी से देखभाल कर, स्वयं ही इस पूरी प्रक्रिया को पूरा कर रहा है, जिससे शैतान का कोई अंश भी उसमें न रह जाए। उसके इस उद्देश्य और कार्य-विधि को हम बाइबल के नए नियम में “कलीसिया” के लिए दिए गए विभिन्न रूपकों (metaphors) के द्वारा समझ सकते हैं; जिन्हें हम अगले लेख से देखना आरंभ करेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो एक बार फिर आप से आग्रह है कि अभी समय रहते अपनी वास्तविक स्थिति को जाँच-समझ लें। किसी भी परिवार विशेष में जन्म लेने, किसी भी डिनॉमिनेशन के नियम, रीतियाँ, प्रथाएं, और त्यौहार-व्यवहार आदि का निर्वाह करने, अपने परिवार के लोगों के कितनी भी पीढ़ियों से मसीही या ईसाई होने या अभी वर्तमान में भी किसी मसीही सेवकाई में लगे होने, आदि बातों के द्वारा कोई भी प्रभु की कलीसिया का अंग नहीं बनता है। यह केवल व्यक्तिगत रीति से, समझते-बूझते हुए, अपने पापों से पश्चाताप करने और यीशु को प्रभु स्वीकार करके अपना जीवन उसे समर्पित कर देने, और फिर केवल उसी की आज्ञाकारिता में जीवन जीने से होता है (प्रेरितों 17:30-31; रोमियों 10:9-10)। यदि जरा सा भी संदेह है, तो आपसे विनम्र निवेदन है कि अभी इस कार्य को कर लें, कदापि कोई आनाकानी न करें, इस निर्णय को टालें नहीं।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यशायाह 7-8 

  • इफिसियों 2


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English Translation


Restoration of the pre-sin Condition


In the previous articles, we have been looking at important things from the Lord’s statement, “...on this rock I will build My church…” said by the Lord Jesus in Matthew 16:18. We have seen that, Biblically, the Church is not a building or a place of worship; it is a group of people called-out and gathered by the Lord Jesus Christ, those that accept Him as the one and only God appointed savior of the world, and on this basis they have asked for forgiveness of their sins from the Lord Jesus, and have surrendered their lives to Him, to live in His obedience. Related to this sentence, we had seen three things about the Church: First, it is the Lord Jesus Himself who is gathering together His people; none can become ‘His people’ and join His Church on any other basis or criteria - Lord separates them out now, or will do it eventually.  Second, the Lord Himself looks after and takes care of His people in the Church; He alone has the full ownership and authority of His Church. Although the Lord has given some responsibilities for the managing and functioning of the Church to some people chosen by Him for this, but only He has the ownership, and will take an account from those He has appointed to look after the Church. The Lord does not tolerate any carelessness or harm to His Church from anyone. Thirdly, the Church of the Lord Jesus is still “Under Construction”; the Lord Jesus Himself is building it. He alone determines who will do what, where, and when in His Church, no man, whoever he may be, has any say in this. So, everything related to the Church of the Lord Jesus is under the control of the Lord Himself; no person or organization has any say or interference in it, whatever be the status, or respect, or ranking of that person or institution.


In the Great Commission that the Lord gave to His disciples, before His ascension to heaven (Matthew 28:18-20; Mark 16:15-19; Luke 24:47; Acts 1:8), was for them to go into the world and preach the gospel to all people, to tell them about repentance of their sins and receiving forgiveness of sins by accepting Jesus as Lord and committing their lives to Him. In other words, the Lord’s perspective was not just for a particular place or people, but for everyone in the world. Therefore, the Church of the Lord too is not confined to any particular place or people, but is universal. The Lord Jesus is engaged in gathering His people from all over the world to build His Universal Church. The truly Born-Again Christian Believers are the Lord’s co-workers, His helpers in this, through preaching the gospel. Through the preaching of the gospel, we bring people to the Lord, join them to the Lord, and those who join with the Lord with a true heart and full submission, those who accept the Lord Jesus as their savior and Lord, the Lord then assigns that person a place in His Church, and starts preparing him to take that place and work for Him accordingly. But along with this, the Lord also fully well knows the actual condition of the repentance, faith, and submission to Him of every person, none can fool Him or bluff their way through. Therefore, in His Church, only those will remain and be useful who satisfy the standards and criteria of the Lord; else, sooner or later, or eventually at the time of separation that will be done at the end of world, everyone not truly Born-Again, will be cast out of the Church into eternal destruction. Therefore, for all of us, this is a time and opportunity to examine ourselves about our being a part of the Lord’s Church, and carry out whatever rectifications that are required to ensure we actually are a part of His Church. Ignoring or postponing this decision can have disastrous eternal consequences (Hebrews 3:7-19).


What is the purpose of the Lord in building His Church, in so minutely examining us before joining us to His Church? To understand this, we need to go back to the first sin committed in the Garden of Eden, when Adam and Eve, beguiled by Satan, disobeyed God, which opened the way for sin to enter into creation and its harmful effects spread into and spoilt the whole of creation (Romans 8:19-22). Before this sad and painful event, man had an open, unbroken fellowship with God, which was broken by sin. Since then, God is engaged in the process of restoring back this fellowship with man, to remove the seeds of sin sown by Satan in the lives of men, and to give back to man the place and position He had given to him at the time of his creation (Genesis 1:28), and gather man to be with Him in that fully restored status. That is why He is so minutely managing and carrying out this whole process, all by Himself, so that nothing of Satan has any chance of remaining behind to once again ruin things. We can better understand this purpose and the Lord’s way of working, through considering the various figures of speech used in the New Testament for the Church of Lord Jesus; and we will start doing this from the next article.


If you are a Christian Believer, then once again it is our humble but ardent request that you earnestly examine and ensure your actual status with the Lord, now while you have the time and opportunity. By being born in a particular family, or by following and fulfilling the rules, regulations, rites, rituals, feasts, festivals, and ceremonies of any sect or denomination, or because of any number of one’s previous generations being ‘Christians’ in the past does not make anyone a person of the Lord and a member of His Church. This only happens by a person’s taking a willing, conscious decision to repent of one’s sins, ask Him for forgiveness of sins, accept the Lord Jesus as savior and Lord, fully surrender and commit one’s life to Him, to live in obedience to Him and His Word (Acts 17:30-31; Romans 10:9-10). If you have any doubts whatsoever, then please get them clarified and settled now; please do not ignore, delay, or postpone doing so.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Isaiah 7-8 

  • Ephesians 2

बुधवार, 28 सितंबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - निर्माणाधीन / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - “Under Construction”


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प्रभु यीशु की कलीसिया प्रभु ही के द्वारा बनाई जा रही है


पिछले लेखों में हम मत्ती 16:18 में प्रभु के कहे वाक्य - “...मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...”; की तीन बहुत महत्वपूर्ण को देखते आ रहे हैं। इनमें से पहली बात है, कि प्रभु स्वयं ही अपनी कलीसिया बनाएगा, यानि कि, प्रभु यीशु अपनी कलीसिया, अर्थात, उन लोगों को जो उसे जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं, स्वयं ही एक समूह में एकत्रित कर रहा है। किसी की भी वास्तविक मनोदशा, और प्रभु के प्रति उसकी निष्ठा और समर्पण की वास्तविक स्थिति को कोई भी मनुष्य नहीं जान सकता है, किन्तु प्रभु की दृष्टि से कुछ छिपा नहीं है। इसीलिए वह समय-समय पर शैतान द्वारा कलीसिया में घुसाए हुए लोगों को प्रकट और पृथक करता रहता है, तथा मत्ती 13:24-30 के अनुसार अंत के समय एक बड़ा पृथक करना होगा और कलीसिया में घुसाए गए दुष्ट के सारे लोग निकाल कर अनन्त विनाश में भेज दिए जाएंगे, प्रभु की कलीसिया में प्रभु के चुने हुए लोगों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं बचेगा।

 

दूसरी बात जो हमने कल के लेख में कुछ विस्तार से देखी, वह है कि प्रभु अपनी कलीसिया का स्वामी है और अपने स्वामित्व में कोई हस्तक्षेप नहीं होने देता है। वह अपने इस स्वामित्व को बहुत गंभीरता से लेता है, अपनी कलीसिया, यानि अपने लोगों का पूरा ध्यान रखता है। वह स्वयं ही कलीसिया की देखभाल के लिए उचित दासों को उनकी योग्यता के अनुसार नियुक्त करता है और फिर उन से उन्हें सौंपे गए दायित्व का पूरा हिसाब भी लेता है। प्रभु को अपनी कलीसिया, अपने लोगों की जरा सी भी हानि, उनके प्रति थोड़ी सी भी लापरवाही कतई स्वीकार नहीं है।

 

तीसरी, जिसे हम आज देखेंगे है कि प्रभु ने कहा कि वह स्वयं ही अपनी इस कलीसिया को ‘बनाएगा’; प्रभु के इस कथन में भी दो महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें कलीसिया के लिए प्रयोग किए गए रूपकों में से एक, “परमेश्वर के निवास के लिए एक मन्दिर” (इफिसियों 2:21-22) के संदर्भ में अधिक सरलता से समझा जा सकता है:

  • उन दोनों बातों में से एक बात तो यह कि जैसे पहली दो बातों में हमने कलीसिया से संबंधित हर बात में प्रभु की सार्वभौमिकता को देखा है, कि वही अपने लोगों को चुनता और बुलाता है, अनुचित लोगों को अपने लोगों में से पृथक करता है; और यह कि कलीसिया का संपूर्ण स्वामित्व प्रभु के ही हाथों में है, ठीक उसी प्रकार से यह बात भी है कि वह स्वयं ही अपनी कलीसिया को बनाता भी है। हर एक निवास-स्थान या मंदिर का हर अंश, हर पत्थर का अपना निर्धारित स्थान होता है। जिस पत्थर का जो स्थान है उसे वहीं पर लगाया और उपयोग किया जाता है। उसी प्रकार से प्रभु ही अपने लोगों को, उसके द्वारा उनके निर्धारित कार्यों एवं कलीसिया या मण्डली में उपयोग के अनुसार व्यवस्थित करके उन्हें कलीसिया में उनके सही स्थान पर स्थापित भी करता है। यह निर्णय न तो किसी मसीही विश्वासी का अपना होता है, न किसी अन्य मनुष्य, अगुवे, अध्यक्ष, डिनॉमिनेशन, अथवा संस्था आदि का है; इसे केवल प्रभु ही निर्धारित और कार्यान्वित करता है। 

  • और, उन दोनों बातों में से दूसरी बात के लिए ध्यान कीजिए कि यहाँ प्रयुक्त शब्द है ‘बनाएगा’ - भविष्य काल; जब प्रभु ने यह बात कही कलीसिया उस समय वर्तमान नहीं थी, बनाई जानी थी। प्रभु द्वारा कही गई यह बात प्रेरितों 2 अध्याय में पतरस के प्रचार और उस प्रचार द्वारा हुई प्रतिक्रिया के साथ कलीसिया के अस्तित्व में आने से आरंभ हुई थी; और हम यह देख चुके हैं कि स्वयं प्रभु ही अपनी कलीसिया में लोगों को जोड़ता जाता था। किसी वस्तु को ‘बनाने’ में समय और प्रयास लगता है, उसे उसके पूर्ण और अंतिम स्वरूप में लाने या ढालने के लिए एक प्रक्रिया से होकर निकलना पड़ता है। प्रभु की कलीसिया भी प्रभु के द्वारा ‘बनाई’ जा रही है, उसमें अभी भी संसार भर से हर प्रकार के लोग जोड़े जा रहे हैं। साथ ही यह भी ध्यान कीजिए कि प्रभु की कलीसिया का प्रत्येक सदस्य, उसका प्रत्येक जन “नया जन्म” पाने के द्वारा प्रभु के साथ जुड़ता है। “नया जन्म” पाने के साथ ही वह एक आत्मिक शिशु के समान कलीसिया में, प्रभु की संगति में प्रवेश करता है। उसे शिशु अवस्था से उन्नत होकर परिपक्व स्थित में आने में समय और विभिन्न अनुभवों एवं शिक्षाओं से होकर निकलना पड़ता है। इसलिए कलीसिया के सभी सदस्य अलग-अलग आत्मिक स्तर और परिपक्वता की स्थिति में देखे जाते हैं; प्रभु उन्हें उनके कलीसिया में सही स्थान के लिए अभी तैयार कर रहा है। इसीलिए कहा गया है कि अभी कलीसिया पूर्ण नहीं हुई है, निर्माणाधीन है; उसमें कार्य ज़ारी है। यही कारण है कि आज हमें प्रभु की कलीसिया में, अर्थात प्रभु के लोगों के समूह में कुछ कमियाँ, दोष, अपूर्णता, और सुधार के योग्य बातें दिखती हैं। प्रभु उसे बना भी रहा है और जितनी बन गई है, उसे प्रभु निष्कलंक, बेझुर्री भी बनाता जा रहा है, जिससे अन्ततः अपने पूर्ण स्वरूप में वह तेजस्वी, पवित्र और निर्दोष होकर उसके साथ खड़ी हो (इफिसियों 5:27)।

    इन बातों का एक उत्तम उदाहरण राजा सुलैमान द्वारा परमेश्वर की आराधना के लिए बनवाया गया प्रथम मंदिर का निर्माण कार्य है। परमेश्वर के इस मंदिर के लिए लिखा गया है, “और बनते समय भवन ऐसे पत्थरों का बनाया गया, जो वहां ले आने से पहिले गढ़कर ठीक किए गए थे, और भवन के बनते समय हथौड़े बसूली या और किसी प्रकार के लोहे के औजार का शब्द कभी सुनाई नहीं पड़ा” (1 राजा 6:7)। इस पद की बातों पर ध्यान कीजिए - मंदिर के निर्माण के लिए जो पत्थर तैयार किए गए, वे, निकाले जाने के बाद, और मंदिर में लगाए जाने से पहले, एक अलग स्थान पर गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर ठीक कर लिए जाते थे। जब वे अपने स्थान पर बैठाए जाने के लिए तैयार हो जाते थे, तो उन्हें ला कर उनके निर्धारित स्थान पर स्थापित कर दिया जाता था। हर पत्थर का अपना निर्धारित स्थान था, जिसके आधार पर उसे गढ़, तराश और काट-छाँट कर तैयार किया जाता था। न तो वह पत्थर किसी अन्य का स्थान ले सकता था, और न ही कोई अन्य पत्थर उसका स्थान ले सकता था; और न ही वह पत्थर यह निर्धारित करता था कि वह कहाँ पर लगाया जाना पसंद करेगा। भवन बनाने वाले ने जिसे जहाँ के लिए निर्धारित और तैयार किया था, वह वहीं पर लाकर स्थापित किया जाता था। एक और बहुत अद्भुत बात थी कि उस पत्थर को बस लाकर उसके स्थान पर स्थापित कर दिया जाता था; उसे फिर गढ़ने, तराशने और काटने-छाँटने की, अर्थात अन्य के साथ ताल-मेल बैठाने के लिए सही करने की कोई आवश्यकता नहीं होती थी; वहाँ पर, मंदिर में, किसी भी औज़ार का शब्द सुनाई नहीं देता था। इसी प्रकार से प्रभु भी हमें इस संसार में, विभिन्न परिस्थितियों और अनुभवों के द्वारा गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर तैयार कर रहा है। वह यह कार्य हमें अपने सुरक्षित स्थान, अपनी कलीसिया में लाकर करता है, जहाँ हम निरंतर उसकी निगरानी, उसकी देखभाल में रहते हैं। प्रभु के नियुक्त सेवकों के द्वारा हमें तैयार किया जाता है, प्रभु उन सेवकों के कार्य पर भी दृष्टि बनाए रखता है; और अन्ततः जब वह मसीही विश्वासी उसके द्वारा निर्धारित स्थान के लिए तैयार हो जाता है, प्रभु उसे वहाँ पर स्थापित कर देता है। इस प्रकार प्रभु द्वारा परमेश्वर के निवास के लिए यह मंदिर बनाया जा रहा है, निर्माणाधीन है।

 

ध्यान कीजिए, जिस पहाड़, या खदान से ये पत्थर निकाले जाते थे, वहाँ पर छोटे-बड़े, विभिन्न आकार और प्रकार के अनेकों अन्य पत्थर भी होंगे; किन्तु हर पत्थर मंदिर में लगाए जाने के लिए उपयुक्त एवं उचित नहीं था। केवल वही पत्थर जो मंदिर में लगाए जाने के लिए उपयुक्त एवं उचित थे, उन्हें ही फिर गढ़ने, तराशने, और काटने-छाँटने के लिए लिया गया, और अन्ततः मंदिर में स्थापित किया गया। प्रभु के द्वारा कलीसिया के बनाए जाने में भी केवल वही “पत्थर” या लोग सम्मिलित होंगे जो वास्तव में प्रभु की कलीसिया के हैं, जो उसे “मसीह” यानि “जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता” स्वीकार करके उस पर विश्वास रखते हैं, उसी के आज्ञाकारी रहते हैं। अन्य कोई भी, जो किसी भी अन्य आधार पर कलीसिया से जुड़ने का प्रयास करता है, अन्ततः उसका तिरस्कार कर दिया जाएगा, उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाएगा, और अनन्त विनाश के लिए भेज दिया जाएगा। मत्ती 13:24-30 के दृष्टांत पर ध्यान कीजिए; बुरे पौधों के खेत में बने और बढ़ते रहने, खेत के स्वामी द्वारा उनकी भी देखभाल होने, उन्हें भी पानी और खाद मिलने, पक्षियों और जानवरों से उनकी भी सुरक्षा किए जाने के द्वारा वे खेत के स्वामी को स्वीकार्य नहीं बन गए थे। उनका अन्तिम स्थान तो पहले से निर्धारित था, और वे फिर वहीं भेज भी दिए गए। इसी प्रकार, प्रभु की कलीसिया में जो प्रभु के मानकों और निर्धारण के द्वारा नहीं है, वह अभी अपने आप को कितना भी सुरक्षित और स्वीकार्य क्यों न समझता रहें, अन्ततः उन की वास्तविकता तथा अंतिम दशा अनन्त विनाश ही की होगी, वह स्वर्गीय मंदिर या कलीसिया का भाग कभी नहीं ठहरेंगे।


यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो अपने आप को जाँच-परख कर सुनिश्चित कर लीजिए कि आप प्रभु के मानकों और बुलाए जाने के द्वारा अपने आप को मसीही विश्वासी मानते हैं, या आप किसी अन्य रीति द्वारा प्रभु की कलीसिया से जुड़ने के कारण अपने आप मसीही विश्वासी समझते हैं। खेत में उगने वाले बुरे पौधों के लिए तो अपनी अंतिम दशा बदलना संभव नहीं था, किन्तु आपके पास अभी अवसर भी है, और प्रभु की क्षमा भी आपके लिए अभी उपलब्ध है, आप अभी भी अपनी अंतिम दशा बदल कर ठीक कर सकते हैं। अभी सही आँकलन करके सही निर्णय ले लीजिए; बाद में यदि अवसर न रहा, तो फिर अनन्त विनाश ही हाथ लगेगा। दूसरे, पृथ्वी पर प्रभु की कलीसिया में सम्मिलित होने के बाद, प्रभु आपको गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर ठीक करता है कि आप उसकी स्वर्गीय कलीसिया में आपके उचित स्थान पर स्थापित किए जा सकें। यह प्रक्रिया अवश्य ही पीड़ादायक होती है, इसके द्वारा हमारे जीवन की कई बातें जो व्यर्थ और आत्मिक उन्नति एवं परिपक्वता के लिए बाधक हैं, निकाल दी जाती हैं। इसे कोई विलक्षण, अनहोनी, या अनुचित बात न समझें (प्रेरितों 14:22; 2 तिमुथियुस 3:12; इब्रानियों 12:5-12; 1 पतरस 4:1-2, 12-19); हमारे तैयार किए जाने का ये बातें एक अनिवार्य भाग हैं।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यशायाह 5-6 

  • इफिसियों 1


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English Translation


Lord Jesus Christ is Still Building His Church


In the previous articles, we have been looking at three important things from the Lord’s statement, “...on this rock I will build My church…” said by the Lord Jesus in Matthew 16:18. The first among these three is that the Lord said He will build His Church, i.e., the Lord Jesus will Himself gather together those people who accept Him as the one and only savior of the world. No man can ever know the actual state of any person’s mind and heart, nor a person’s commitment and submission towards the Lord Jesus; but nothing is hidden from the eyes of the Lord God. that is why, from time-to-time He keeps exposing and separating the infiltrators brought into the Church by Satan, and as per Matthew 13:24-30, at the end there will be a great separation and segregation and those sneaked into the Church by the wicked one will all be cast out into eternal destruction, none other than the Lord’s chosen will remain in the Lord Jesus Christ’s Church.


The second thing that we saw in some detail in the previous article was that the Lord is the owner of His Church, and does not allow any interference in His ownership. He takes His ownership responsibilities very seriously, and takes full care of His people. He Himself appoints appropriate people, according to their abilities, for looking after the works of the Church, and eventually will take a proper accounting from them of this responsibility entrusted to them. The Lord does not accept any carelessness, any harm, of His people and Church.


The third thing, which we will see today is the Lord’s statement that He Himself will build His Church. There are two important points in this statement of the Lord, which can be more easily understood by one of the metaphors used for the Church, “A temple for the dwelling of God” (Ephesians 2:21-23).


Of those two, the first point is that, as we have seen the sovereignty of the Lord Jesus in everything related to the Church, that it is He who chooses and calls His people, separates out the inappropriate ones from amongst His people, the ownership of the Church is in the hands of the Lord; another thing is that it is He who is building His Church. In every house or temple, every piece, every stone has its appointed place. Every stone is placed in its fixed place, and used in its assigned role. Similarly, it is the Lord who properly places and establishes every person in His Church according to the person’s work, ministry, and assigned place in the Church. This decision is not taken by any Christian Believer, nor by any other person, or Elder, or Official, or by any Denomination, Organization, or Institution. It is only the Lord, and Lord alone who determines and implements this.


The second point is that in this statement, the Lord uses the future tense “will build”; when the Lord had said this, at that time the Church had not come into existence, it still had to be built. It takes time and effort to build anything, and a process has to be followed to bring it into the final shape, and its completion. The Church began with the preaching of Peter in Acts 2, and the response of the devout Jews gathered in Jerusalem, on hearing the sermon. We have already seen earlier that from that time onwards, the Lord Himself kept adding people to His Church. Even today, this process of adding to the Church is continuing, and the Lord is still building His Church. Also bear in mind, that every person that the Lord adds, gets added by the person’s being saved or being Born-Again. With being saved or Born-Again, a person enters into the fellowship of the Lord as a spiritual neonate, passes through various experiences and learns many things, gradually maturing and growing spiritually, being cut, trimmed, molded, and polished to take his assigned place in the Church. That is why, in the Church - local as well as universal, we still have Christian Believers in various stages of maturity and spiritual growth; the Lord is still at work in them, preparing them for their appointed place in the Church. That is why it is said that the Church has not been completed yet; it is still “under construction.” for this reason, in the Lord’s Church we still get to see some faults, shortcomings, things that need to be corrected, an incompleteness. The Lord is still building it, and whatever has been built, is making it without spot or wrinkle as well, so that in its completed form, the Church will stand by His side as His glorious, holy, blemish less bride (Ephesians 5:27).


An excellent example of this process is the first temple built by Solomon for the worship of the Lord. It has been written about the construction process of this Temple that “And the temple, when it was being built, was built with stone finished at the quarry, so that no hammer or chisel or any iron tool was heard in the temple while it was being built” (1 Kings 6:7). Take note of the things said in this verse. The stones that were used for the building of this temple, after being taken out of the quarry and before being put in their place in the temple, were taken to a place where they were cut, trimmed, polished and given the size, shape, and appearance required for their place in the temple. Once they were ready for being placed in the temple at their proper place, then they were brought and fitted into their place. Every stone had its assigned place, and according to that place, it was cut, trimmed, prepared, and made ready. No other stone could take its place, nor could the stone take the place of any other stone; nor did the stone decide in which place it would like to be placed and fit in. According to the plan and design of the master-builder, every stone was placed in its pre-determined location. There was another very astounding and wonderful thing that was happening, mentioned here; each prepared and ready stone was just brought and fit into place, there was no need to trim and finely cut or prepare it again to take its place and settle in with the other stones at that location. It is written that in the temple there was no sound heard of any instruments being used. Similarly, the Lord too, in this world, through our situations, experiences and circumstances is cutting, trimming, molding, and polishing us, preparing us to take our pre-determined place in the Church. He does this work in His secured place, in His Church, where we are constantly under His observation and are being worked upon, under His supervision by His appointed ministers. When we are finally ready and prepared for our pre-determined place, the Lord takes and places us there. In this manner, this temple, this Church is still under construction, he is still building it.


Think it over, in the quarry, from where the stones were cut, there must have been various stones of different sizes and shapes; but every stone was not appropriate for being used in the temple. Only those stones that were appropriate for being used in the temple, were then taken to be cut, trimmed, polished, and prepared to place in the temple. The Lord too uses only those people to build His Church, who are actually worthy of His Church, i.e., those who have actually accepted Him as the Messiah, the “one and only savior of the world” have come into faith in Him, and have lived a life of obedience to Him and His Word. Anyone else, who has joined himself to the Lord’s Church through any other means, on any other basis or criteria, will be rejected, sent out into eternal destruction. Pay heed to the parable of Matthew 13:24-30; the tares received the care of the landlord, they too got the manure, water, protection from birds and animals, etc., but none of this made them accepted by the landlord. They had been identified and kept for destruction from the beginning, and that is where they were eventually sent. Similarly, in the Church of the Lord, all those who are not according to the standards and criteria of the Lord, they may consider themselves safe and secure for now, may think that they are accepted by the Lord, but eventually at the end, they will be cast out and sent to destruction. They will never be a part of the heavenly temple, the Church of God.


If you are a Christian Believer, then examine yourself and make sure that you actually are a saved and Born-Again Believer, as per the criteria and the standards of the Lord Jesus, and have come into the Church not through any other mechanism or way, but by the one and only way of repentance and forgiveness of sins from the Lord, as given by the Lord. The tares growing in that field did not have the power or ability to change their eternal destiny; but you have the opportunity and the ability to receive the Lord’s forgiveness and come to faith in Him, join Him in His prescribed manner. Do a proper evaluation now, and rectify that which needs to be rectified, while you still can do it. Do it now, lest somehow if you do not have the opportunity, time, or ability to do it later, you may not have to cut a sorry figure and face eternal destruction. Secondly, after you become a part of the Church of the Lord Jesus, He will cut, trim, mold, and polish you to prepare you for your assigned place in the Church. This process is painful for sure; but is necessary, and by it many vain and redundant things in our lives are taken away, things that impede our spiritual growth and maturity. Do not think this to be something unexpected or inappropriate (Acts 14:22; 2 Timothy 3:12; Hebrews 12:5-12; 1 Peter 4:1-2, 12-19); this is an integral and essential part of the process to build us up for our place in the Church.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Isaiah 5-6 

  • Ephesians 1