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बुधवार, 18 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 53 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 39

परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 7

 

    प्रेरित पौलुस के जीवन और उदाहरणों से परमेश्वर के वचन के उपयोग तथा उसके साथ व्यवहार करने को सीखते हुए, हमने पिछले लेख से 1 कुरिन्थियों 2:4-5 से देखना आरम्भ किया है, और साथ ही हमने बहुत संक्षिप्त में पूरे 2 अध्याय को भी देखा था, कि यह पूरा अध्याय परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार के बारे में है। फिर हमने पद 4 को लिया था, और देखा था कि पौलुस इस पद का आरम्भ दो दावे करने के साथ करता है, पहला यह कि पौलुस अपने श्रोताओं पर कभी भी अपनी बुद्धि, या ज्ञान, और या सेवकाई से मिलने वाले स्तर, आदि, के द्वारा कोई प्रभाव नहीं जमाता था; और दूसरा यह कि उसकी सेवकाई तथा उसके द्वारा परमेश्वर के वचन का उपयोग, दोनों ही किसी भी रीति से कोई भी महिमा लेने के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर को महिमा देने के उद्देश्य पर केन्द्रित थे। उसके बाद हमने पौलुस के पहले दावे, अपने श्रोताओं पर प्रभाव जमाने के प्रयास न करने, से सम्बन्धित कुछ बातों को देखा था। आज हम इस पद में पौलुस के इसी पहले दावे के बारे में कुछ और आगे देखना ज़ारी रखेंगे।


    पद 4 में किया गया पौलुस का दावा, उसने जो इससे पहले के तीन पदों में कहा है, उसका निष्कर्ष है। कुरिन्थुस की मण्डली को सुसमाचार प्रस्तुत करते हुए, उसने उन्हें अपनी वाक्पटुता अथवा प्रभावी शब्दों, शैली, और व्यवहार द्वारा लुभाने का प्रयास नहीं किया; और न ही किसी अन्य रीति से उन्हें सुसमाचार सन्देश को स्वीकार करवाने का प्रयास किया। यह निश्चित करने के लिए कि ऐसा ही हो, वह इस अध्याय के पहले तीन पदों में वह अपनी उस कार्यविधि की रूपरेखा देता है, जो उसने वास्तव में किया। पौलुस की यह कार्यविधि उस से जो कि संसार की सामान्य रीति, श्रोताओं को प्रभावित करके अपने अनुयायियों को एकत्रित करने के प्रयासों एवं व्यवहार से बिलकुल भिन्न है। पौलुस 2:1 में कहता है कि उसके द्वारा सुसमाचार का दिया जाना न तो वाक्पटुता के साथ था और न ही ज्ञान की उत्तमता के साथ। कलीसियाओं में पौलुस इस बात के लिए जाना जाता था कि यद्यपि वह पत्र लिखने में तो बहुत अच्छे और प्रभावी लिखता था, लेकिन प्रत्यक्ष में वह एक अच्छा वक्ता नहीं था, बल्कि एक बहुत अप्रभावी वक्ता था (2 कुरिन्थियों 10:1, 10)। लेकिन पौलुस ने कभी इस बात को एक कमजोरी के समान न तो देखा और न ही बनने दिया, और न ही कभी इसे सुधारने या बदलने का प्रयास किया। वह जैसा भी था, परमेश्वर के वचन और सन्देश को लोगों के मध्य जिस भी तरह से प्रस्तुत कर सकता था, उसने वह बिना किसी हिचकिचाहट के, बिना अपने आप को अपनी किसी कमजोरी के कारण सीमित समझे हुए किया। क्योंकि उसने अपने आप को परमेश्वर को समर्पित कर दिया था, उसकी आज्ञाकारिता में चलता था, परमेश्वर के हाथों में छोड़ दिया था, इसीलिए परमेश्वर ने उसे जैसा भी वह था, वैसे ही बहुत सामर्थ्य के साथ उपयोग किया, चाहे वह एक उत्तम वक्ता नहीं भी था। पौलुस तब भी सभी अन्य उत्तम समझे जाने वाले वक्ताओं और वाक्पटुता दिखाने वाले प्रचारकों से बढ़कर परमेश्वर के लिए उपयोगी था, और आज भी है।


    दूसरी बात जो पौलुस दोनों, पद 4 और 1 में कहता है, वह है कि उसने परमेश्वर के वचन और सन्देश को देने के लिए अपनी बुद्धि का सहारा नहीं लिया। इसे समझने के लिए, हमें पौलुस और उसकी सेवकाई से सम्बन्धित दो आधारभूत तथ्य, जिन्हें हम पहले भी कुछ बार देख चुके हैं, ध्यान में रखने चाहिए। पहला, दमिश्क के मार्ग पर प्रभु यीशु के साथ साक्षात्कार और उसके जीवन परिवर्तन होने से पहले वह एक बहुत शिक्षित फरीसी था, जिसने अपने समय के सुविख्यात शिक्षक गमलीएल से शिक्षा पाई थी, और उस समय के पवित्र शास्त्र – हमारे आज के पुराने नियम को बहुत अच्छे से जानता था। दूसरा, परमेश्वर ने पौलुस को अन्यजातियों में, तथा पतरस को यहूदियों में सेवकाई के लिए नियुक्त किया था (गलातियों 2:7)। मानवीय समझ और बुद्धि से यह बिलकुल तर्कहीन और मूर्खतापूर्ण लगता है – एक शिक्षित और प्रशिक्षित फरीसी को जो पवित्र-शास्त्र का अच्छा ज्ञाता है, अन्यजातियों में भेजा जाए; और एक अनपढ़ मछुआरे यहूदी को पढ़े-लिखे यहूदी अगुवों, पवित्र-शास्त्र के ज्ञाताओं, और अन्य यहूदियों में भेजा जाए। किन्तु परमेश्वर की बुद्धि-समझ तथा कार्य-विधि के अंतर्गत यह अपने दोनों सेवकों को शैतान की युक्तियों से सुरक्षित बनाए रखने के लिए एक अति-उत्तम कार्यविधि थी। क्योंकि, अब इस स्थित में, दोनों, पौलुस और पतरस को अपने-अपने श्रोताओं को संबोधित करने के लिए अपनी योग्यताओं और बुद्धि पर नहीं बल्कि पूर्णतः परमेश्वर पर ही निर्भर रहना था; और ऐसे में फिर शैतान उन्हें परमेश्वर के वचन के प्रचार के लिए बहका या भरमा नहीं सकता था।


    हम इसे अगले लेख में और आगे देखेंगे। लेकिन परमेश्वर के वचन से व्यवहार और उसके सन्देश को औरों तक पहुँचाने के बारे में हमने अभी तक जो देखा है, वह है कि हमें कोई उत्तम वक्ता अथवा वाक्पटुता से प्रचार करने वाला होने की कोई आवश्यकता नहीं है; हम जैसे भी हैं, हमारी जो भी योग्यताएं अथवा योग्यताएँ हैं, प्रभु हमें वैसा ही अपने लिए उपयोग कर सकता है । यदि हम प्रभु पर निर्भर रहें और उसके मार्गदर्शन तथा आज्ञाकारिता में अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करें, उसके वचन को सीधे, साधारण, समझने में सरल शब्दों और वाक्यों में प्रस्तुत करें, तो हम प्रभु के लिए बहुत प्रभावी एवं उपयोगी हो सकते हैं। परमेश्वर के वचन का उपयोग और उसके साथ व्यवहार का उद्देश्य अपनी महिमा करवाना नहीं, बल्कि परमेश्वर की महिमा करना है; लोगों पर प्रभाव जमाना नहीं, वरन उन्हें उनके पापों के लिए कायल करके उनके लिए पश्चाताप करने, तथा परमेश्वर से उनके लिए क्षमा मांगने, उद्धार के लिए प्रभु यीशु पर विश्वास करने तक लेकर आना है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Appropriately Handling God’s Word – 7

 

    In learning to utilize and handle God’s Word through the life and example of the Apostle Paul, in the previous article, we began considering 1 Corinthians 2:4-5, and very briefly saw that actually the whole of chapter 2 has to do with handling God’s Word. We then took up verse 4, and saw that Paul makes two assertions at the beginning of the verse, firstly that Paul refrained from impressing his audience by either by his wisdom, or, knowledge, or, status attained through his ministry, etc.; and secondly, his ministry and handling of God’s Word were centered not on receiving any glory in any manner, but on giving glory to God. We then saw some things related to his first claim, of avoiding impressing his audience in any manner. Today, we will continue with Paul’s first claim in this verse.


    Paul’s claim in verse 4 here is the culmination, of what he has said in the preceding three verses. In presenting the gospel to the Corinthians, he did not try to persuade them to accept the gospel because of Paul’s eloquence and persuasion through impressive words and mannerisms. To make sure this happened, he outlines his way or working in the first three verses of this chapter, stating what he actually did. Paul’s way of working was much different from the conventional worldly way of trying to impress the audience and gain a following. Paul says in 2:1 that his presentation of the gospel was neither with excellence of speech nor through any wisdom. Amongst the Churches, it was known about Paul that though he was great in writing impressive letters, but face-to-face he was not a good speaker, rather, he was a poor speaker (2 Corinthians 10:1, 10). But Paul never saw that as a handicap nor did he ever allow it to become a handicap, and he never tried to change this either. Whatever he was, however he could present God’s Word and message to the people, he did so without any hesitation or feeling tied down by any of his inabilities. Since he made himself obedient and surrendered to God, left himself in God’s hands, therefore God used him mightily just as he was, despite his lack of eloquence. Paul was, and still is far more effective for the Lord, than any of the more eloquent speakers.


    The second thing Paul says in both verses, 4 and 1, is that he did not use his wisdom to present the Word and message of God. To understand this, we ought to keep in mind two of the basic facts related to Paul and his ministry, and both have been stated earlier a couple of times. Firstly, before his encounter with the Lord on the road to Damascus and his conversion, he was a learned Pharisee, trained under Gamaliel, a renowned teacher of that time, and well versed in the Scriptures of that time – our present-day Old Testament. Secondly, God had appointed Paul to serve amongst the Gentiles whereas God appointed Peter to serve amongst the Jews (Galatians 2:7). While to human thinking this seems absolutely illogical and absurd – a learned Pharisee, well versed in the Scriptures, being sent to the Gentiles; and an unlearned Jewish fisherman being sent to the learned Jewish leaders, those well versed in the Scriptures, and other Jews, but in God’s wisdom and way of doing things, it was a master-stroke to keep both His ministers safe from the wiles of the devil. For, both Paul and Peter had to depend upon God to help them address their respective audience, neither could do so through his own wisdom and abilities; and thus, Satan could not mislead them in preaching God’s Word.


    We will consider this further in the next article. But what we have learnt so far about handling God’s Word and conveying God’s message to people is that we need not be eloquent, or a good orator to do so; the Lord can use us for His purposes just as we are, whatever be our abilities or inabilities. We can be very effective for the Lord if we just rely on Him and fulfill our responsibilities under the guidance and obedience of God, and present His Word in simple, straightforward, easy to understand words and sentences. The purpose of utilizing and handling God’s Word is not bringing glory to self, but glory to God; not impressing people, but bringing them to the realization and repentance of their sins, asking God’s forgiveness for them and believing in the Lord Jesus for salvation.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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