व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? - 4
क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 2)
पिछले लेख की बात, कि मनुष्य उद्धार पाने के बावजूद अपने आप से शैतान पर विजयी नहीं हो सकता है, को जारी रखते हुए, हम परमेश्वर के वचन से देखते हैं कि, परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित यूहन्ना और पौलुस के जीवन से दिखाया और लिखवाया है कि मसीही विश्वासी को प्रतिदिन, हर समय पाप के साथ जूझना पड़ता है, और कोई भी मसीही विश्वासी पाप करने से बचा हुआ नहीं है। प्रेरित यूहन्ना ने तो “हम” कहकर अपने आप को पाप करते रहने वालों में सम्मिलित करते हुए लिखा कि “यदि हम कहें, कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं: और हम में सत्य नहीं। यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है। यदि कहें कि हम ने पाप नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं, और उसका वचन हम में नहीं है” (1 यूहन्ना 1:8-10)। इसी प्रकार से पौलुस प्रेरित ने रोमियों 7:12-25 में पाप तथा शारीरिक प्रवृत्तियों के साथ अपने निरंतर चलने वाले संघर्ष के बारे में लिखा, जिस संघर्ष में बहुत बार पाप और शरीर उस पर विजयी भी हो जाते हैं।
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि मनुष्य चाहे वह प्रभु का जन हो, चाहे उद्धार पाया हुआ विश्वासी हो, वह अपने आप में शैतान, उसकी युक्तियों, फंदों, और चालाकियों का सामना करने में पूर्णतः असमर्थ है। जैसे ही वह शैतान को ज़रा सा भी अवसर देता है, शैतान उसे पाप में फँसा और गिरा देता है। किन्तु फिर भी परमेश्वर मनुष्य के प्रति धैर्य रखता है, उसे तुरंत ही उसके किए का परिणाम नहीं देता है। शारीरिक, अपरिवर्तित मनुष्य के पापों के विषय वह उन्हें “अज्ञानता के समय की बातें” कहकर उनके लिए आनाकानी करने को तैयार है; और मसीही विश्वासियों के लिए वह उन्हें 1 यूहन्ना 1:9 के अनुसार क्षमा और बहाल करने के लिए तैयार है।
तो अभी ये प्रश्न हमारे सामने बने हुए हैं कि मनुष्य शैतान के सामने इतना असमर्थ क्यों है? और परमेश्वर शारीरिक, अपरिवर्तित मनुष्य के पापों के विषय उन्हें “अज्ञानता के समय की बातें” कहकर उनके लिए आनाकानी करने को तैयार क्यों है। इन्हें समझने के लिए कुछ और बातों पर विचार करना, और फिर उनके निष्कर्षों को साथ में लेकर चलना भी आवश्यक है। इन बातों को हम अगले लेखों में देखेंगे। अभी के लिए, हम मसीही विश्वासियों के लिए 1 कुरिन्थियों 10:12 की बात, “इसलिये जो समझता है, कि मैं स्थिर हूं, वह चौकस रहे; कि कहीं गिर न पड़े” बहुत ध्यान देने और पालन करने के लिए अनिवार्य है। हम अपने जीवनों में जब भी, जहाँ भी परमेश्वर द्वारा स्थापित व्यवहार और सीमाओं से, ‘बाड़े’ से ज़रा सा भी बाहर निकलेंगे, सभोपदेशक 10:8 के अनुसार शैतान तुरंत ही हमें डस लेगा, और पाप में गिरा देगा; जिसके समाधान के लिए हमें उस पाप को प्रभु परमेश्वर के सामने मानना होगा, पश्चाताप करना होगा।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Why The Law Cannot Save Us – 4
Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 2)
Continuing with the thought of the previous article, that despite being saved, man, on his own, is incapable of being victorious over Satan, we see from God’s Word that, God the Holy Spirit showed from the lives of the apostles John and Paul, and had it written that the Christian has to contend with sin every day, all the time, and that no Christian is free from sinning. The apostle John included himself amongst those who continue to sin by the use of "we". He wrote, "If we say that we have no sin, we deceive ourselves, and the truth is not in us. If we confess our sins, He is faithful and just to forgive us our sins and to cleanse us from all unrighteousness. If we say that we have not sinned, we make Him a liar, and His word is not in us" (1 John 1:8-10). Similarly, the apostle Paul wrote in Romans 7:12–25 about his continual struggle with sin and carnal tendencies, a struggle in which sin and the flesh often triumphed.
It is clear from these examples that man, even if he is a follower of the Lord, being a saved Believer, yet he is completely incapable of confronting Satan and his tricks, snares, and devices, without the safety and protection provided by the Lord. The moment he gives Satan the slightest opportunity, Satan traps and makes him fall into sin. But yet God is patient with man, not immediately paying him according to his deeds. God calls the sins of the natural, unregenerate man, "acts committed in the times of ignorance" and is willing to overlook them, if man is willing to repent of them. And for Christians when they sin, He is ready to forgive and restore them if they confess their sins and repent according to 1 John 1:9.
So now these questions remain in front of us that why is man so incapable of confronting Satan? And why is God willing to overlook the sins of natural, unregenerate man, calling them "acts committed in the times of ignorance" if he repents of them? For this, it is necessary to consider some other Biblical things, and then put their conclusions together to understand this. We will begin see these ‘other Biblical things’ in the subsequent articles. For now, the point of 1 Corinthians 10:12 “Therefore let him who thinks he stands take heed lest he fall”, is of paramount importance for us Christians demanding close attention and diligent observance. Whenever, wherever, in our lives, we break out even the slightest from ‘the hedge’, the limits set by God regarding our attitudes and behavior, Satan will immediately bite us, and make us fall into sin, according to Ecclesiastes 10:8. Then for the solution of the sin we have to confess that sin before the Lord God, and have to repent of it.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.