ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

रविवार, 10 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 106 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 35

Click Here for the English Translation

पवित्र आत्मा से सीखना – 15

 

    परमेश्वर पवित्र आत्मा के भण्डारी होने के नाते, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों की यह ज़िम्मेदारी है कि वे योग्य रीति से उसकी सामर्थ्य और सेवाओं का लाभ उठाएँ और उसके निर्देशों के अनुसार काम करें। परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी में, उसके उद्धार के समय से ही, उस में निवास करने के लिए अपना पवित्र आत्मा दे दिया है, ताकि उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक हो, उसके मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का निर्वाह करने के लिए। उस के शिक्षक के रूप में, पवित्र आत्मा विश्वासी को परमेश्वर का वचन भी सिखाता है। इसलिए, यह प्रत्येक मसीही विश्वासी का दायित्व है कि उस से बाइबल को तथा पवित्र आत्मा के बारे में भी सीखे, जिस से उसका भण्डारी होने का ठीक से निर्वाह कर सके। हम 1 पतरस 2:1-2 से सीख रहे हैं कि विश्वासी को परमेश्वर का वचन कैसे सीखना है, और हमने देखा है कि सबसे पहले उसे साँसारिक और शारीरिक व्यवहार छोड़कर वचन सीखने की एक सच्ची लालसा रखनी है; और दूसरे, उसकी लालसा वचन के “निर्मल दूध” के लिए होनी चाहिए, न कि जो कुछ भी मिलावटी वस्तु परमेश्वर के सत्य के नाम परोस दी जाए उसे यूँ ही ग्रहण कर ले।

    हमने यह भी देखा था कि शैतान परमेश्वर के वचन में मिलावट करवाता है ताकि उसे अप्रभावी बना सके। वह यह काम या तो अपने दूतों से करवाता है जो जानबूझकर यह करते हैं, अथवा परमेश्वर के सच्चे समर्पित विश्वासियों के द्वारा अनजाने में ही झूठी शिक्षाएँ और गलत सिद्धान्तों को चुपके से घुसा देता है। यह दूसरा कारण विभिन्न कारणों से संभव होने पाता है, और बहुधा इसके पीछे विश्वासियों के जीवन में किसी प्रकार का कोई पाप छुपा होना होता है, जिस से शैतान को उन्हें अपने बहकावों और युक्तियों में डाल देने का रास्ता मिल जाता है। ऐसा हो जाने के बाद, शैतान उन से परमेश्वर के वचन और शिक्षाओं में उनकी अपनी बुद्धि और समझ की बातें डलवा कर वचन में मिलावट कर देता है और उन विश्वासियों को आभास भी नहीं होता है कि उनके द्वारा और उनके कारण मिलावट हो गई है। और वे उस मिलावट वाले वचन का ही प्रचार करते रहते हैं उसी की शिक्षा देते रहते हैं, यही समझते हुए कि वे परमेश्वर के सत्य को ही प्रस्तुत कर रहे हैं।

    परमेश्वर के वचन में, यह सुनिश्चित करने के लिए कि केवल बाइबल की खरी बातें और सही शिक्षा का ही प्रचार हो, विश्वासियों के लिए, विशेषकर उनके लिए जो वचन की सेवकाई में लगे हैं, एक तीन-स्तर का जाँचना-परखना निर्धारित किया गया है। पिछले लेख में हमने इन तीन स्तरों में से पहले के बारे में 1 कुरिन्थियों 4:6 में से देखा था, अर्थात वचन की सेवकाई में संलग्न विश्वासी द्वारा स्वयं का आँकलन तथा मण्डली के द्वारा उसे परखना। हमने देखा था कि इस पहले स्तर की जाँच में दो भाग हैं, पवित्र शास्त्र में लिखे हुए से आगे नहीं बढ़ना तथा एक के पक्ष में और दूसरे के विरोध में गर्व न करना, अर्थात मनुष्यों के अनुसरण करने और गुटों में विभाजित होने को प्रोत्साहन न देना। विश्वासियों को तथा उन्हें जो वचन की सेवकाई में लगे हुए हैं नियमित रीति से अपने आप को, तथा अपने प्रचार और शिक्षाओं की सामग्री को जाँचते-परखते रहना चाहिए कि कहीं, किसी समय उन्होंने इस पहले स्तर की किसी बात का उल्लंघन तो नहीं किया है। आज हम दूसरे स्तर को देखेंगे।

    इस तीन-स्तर की जाँच-परख का दूसरा स्तर है मण्डली के लोगों का, उन लोगों का जिन्हें किसी प्रचारक और शिक्षक के द्वारा संबोधित किया जा रहा है, सक्रिय रीति से ध्यान रखना कि कहीं परमेश्वर के वचन से असंगत किसी बात को बताया अथवा सिखाया तो नहीं जा रहा है। इस का एक अंश हमने पिछले लेख में पहले स्तर की जाँच-परख के साथ 1 कुरिन्थियों 4:6 में से देखा था, जहाँ पर पवित्र आत्मा के द्वारा पौलुस “भाइयों” – अर्थात मण्डली के सदस्यों को संबोधित करता है। दूसरे शब्दों में, यह न केवल प्रचारक और शिक्षक की ज़िम्मेदारी है, लेकिन “भाइयों” – मण्डली के सदस्यों की भी, कि यह सुनिश्चित करें कि पहले स्तर के दोनों भागों का सही निर्वाह हो रहा है। इसलिए, श्रोताओं को निष्क्रिय होकर केवल ग्रहण करने वाले ही नहीं होना है, लेकिन उन्हें ऐसे जन होना है जो उसका जो बताया और सिखाया जा रहा है सक्रिय होकर आँकलन करते हैं – प्रेरितों 17:11 और 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 का व्यावहारिक उपयोग करने वाले लोग होना है। यह मसीही विश्वासियों को परमेश्वर द्वारा दी गई ज़िम्मेदारी है, उन्हें झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों से सुरक्षित रखने के लिए। एक बार यदि विश्वासी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और समझ-बूझ से यह करने की ठान ले, तो न केवल वह अपने आत्मिक जीवन में उन्नति करेगा और सीखेगा, लेकिन साथ ही कई औरों को भी गलत बातों में पड़ने से बचाएगा। साथ ही इस से उनके मध्य में वचन की सेवकाई करने वाले भी सचेत होकर सेवकाई करेंगे कि कहीं उनके द्वारा कोई गलत शिक्षा तो नहीं लाई जा रही है।

    दूसरे स्तर की यह जाँच-परख – मण्डली और श्रोताओं के द्वारा, केवल पहले स्तर में निहित ही नहीं है, 1 कुरिन्थियों 14:29 “भविष्यद्वक्ताओं में से दो या तीन बोलें, और शेष लोग उन के वचन को परखें” में यह निर्देश भी दिया गया है। इस अध्याय में प्रेरित पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में “अन्य भाषाएँ” बोलने से संबंधित कई भ्रांतियों और गलत शिक्षाओं को संबोधित किया है, उन्हें स्पष्ट किया है, और फिर यह उद्धृत किया गया पद इस विषय के निष्कर्षों में से एक है। इसलिए, निहितार्थ प्रकट है, यदि मण्डली के लोग, विशेषकर वे जो स्वयं भी वचन की सेवकाई में हैं “भविष्यद्वक्ताओं” को “परखें” तो फिर भ्रांतियों और गलत शिक्षाओं को प्रवेश करने का अवसर ही नहीं होगा, उनके जड़ पकड़ कर बढ़ने की तो संभावना ही नहीं रहेगी। यह ध्यान देने योग्य बात है कि यहाँ पर प्रयोग किए गए मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “भविष्यद्वक्ताओं” किया गया है, उसका अर्थ होता है वह जो किसी अधिकार के अन्तर्गत बोलता है – सामान्यतः इसे ईश्वरीय अधिकार माना जाता है, अर्थात आवश्यक नहीं कि वह केवल आने वाली बातों के बारे में बताए। इसी प्रकार से मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “परखें” किया गया है, उसका अर्थ होता है आँकलन या जाँच-परख कर के एक निर्णय देना। इसलिए परमेश्वर का वचन मण्डली को, कम से कम मण्डली के अगुवों, प्रचारकों, वचन के शिक्षकों को, यह ज़िम्मेदारी देता है, कि उन्हें दिए जाने वाले प्रत्येक सन्देश और शिक्षा का आँकलन किया जाए, और फिर निर्णय दिया जाए कि वह सही और मानने के योग्य है कि नहीं। यहाँ पर यह निहित है कि आँकलन के माप-दण्ड के लिए परमेश्वर का वचन उपयोग किया जाएगा। लेकिन जो ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात यहाँ पर दी गई है, वह है कि न तो मण्डली के “भविष्यद्वक्ताओं” को और न ही मण्डली के लोगों को प्रचारक के नाम, ख्याति, और स्तर, और न ही उसके द्वारा प्रचार किए गए सन्देश के आकर्षक होने के कारण बहक जाना है और वह जो भी कह अथवा सिखा रहा है उसे यूँ ही स्वीकार कर लेना है। बल्कि यह उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गई ज़िम्मेदारी है कि वे “भविष्यद्वक्ताओं” को भी “परखें” और उनके सन्देशों को भी, ताकि मण्डली किसी भी झूठी शिक्षा या गलत सिद्धान्त के घुसाए जाने से सुरक्षित रहे, जो शैतान चुपके से किसी लापरवाही के होने के द्वारा घुसा सकता है।

    अगले लेख में हम जाँचने-परखने के तीसरे स्तर को देखेंगे, जिसे परमेश्वर के वचन में दिया गया है जिस से कि वचन और उसकी शिक्षाओं की शुद्धता और पवित्रता बनी रह सके।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

***********************************************************************

English Translation

Learning from the Holy Spirit – 15

 

    As stewards of God the Holy Spirit, the Born-Again Christian Believers have a God given responsibility to worthily utilize His strength and services and to work according to His directions. God has given His Holy Spirit to reside in every Christian Believer since the moment of his salvation, to be their Helper, Companion, Teacher, and Guide for their Christian living and for fulfilling their God assigned ministry. As their Teacher, God the Holy Spirit is also there to teach God’s Word the Bible to the Believers. Therefore, it is every Christian Believer’ duty to learn from Him and about Him, to function worthily as His stewards. We have been learning from 1 Peter 2:1-2 about the Believers learning God’s Word, and have seen that firstly the Believers should leave aside worldly and carnal behavior and have a sincere desire to learn, and secondly the desire to learn only the “pure milk” of God’s Word, instead of accepting any adulterated stuff dispensed as God’s truth.

    We have also seen that Satan gets God’s Word adulterated to render it ineffective, either deliberately through his agents; or inadvertently through subtly bringing in false teachings and wrong doctrines amongst God’s committed Believers engaged in the ministry of preaching and teaching God’s Word. This happens because of various reasons, very often it is because some sin creeping into them, and laying them open to Satan’s deceptions. Once this happens, Satan gets them to adulterate God’s Word by adding to it things of their own understanding and wisdom, without their even realizing this adulteration has happened in and through them. And they preach and teach that adulterated Word, while continuing to function in the belief that they are preaching and teaching God’s truth.

    God’s Word has prescribed a three-level cross-check for the Believers, especially those engaged in ministry of the Word, to ensure that only true Biblical teachings are preached and taught. In the last article we have seen the first of these three levels, i.e., the level of personal evaluation and cross-checking by the congregation and the persons engaged in the Word ministry from 1 Corinthians 4:6. We saw that there are two components of this first level, i.e., not to think beyond what is written in the Scriptures, and not to engage in any one-upmanship, i.e., not to encourage becoming followers of men and of promoting factionalism in the Church. The Believers and those in the ministry of the Word, need to regularly keep checking their lives and the contents of their preaching and teaching that they have not at any time, in any way transgressed this first level, in either of these components. Today we will look at the second level.

    The second level of this three-level cross-checking is the active involvement of the congregation, the audience being addressed by the preacher and teacher of God’s Word, to see that nothing inconsistent with God’s Word is preached or taught. A part of this we have seen in the last article, in relation to the first level, from 1 Corinthians 4:6, where through the Holy Spirit the Apostle Paul addresses the “brethren” – i.e., the members of the congregation. In other words, it is not only the responsibility of the preachers and teachers, but also of the “brethren” – the congregation members to ensure that the two components are fulfilled. Therefore, the audience are not to be passive recipients, but those who actively discern the truthfulness of whatever is being preached and taught – the practitioners of Acts 17:11 and 1 Thessalonians 5:21. This is a God given responsibility to the Christian Believers, to keep them safe from false teachings and wrong doctrines. Once the Believers decide to engage in it under the guidance and wisdom from the Holy Spirit, not only will they learn and grow in their spiritual lives, but will also keep many others from falling into erroneous teachings. They will also keep those ministering God’s Word to them on their toes to ensure that they do not bring any false teachings to them.

    This second level cross-check – by the congregation and audience, is not only implied in the first level, but has clearly been instructed in 1 Corinthians 14:29 “Let two or three prophets speak, and let the others judge.” In this chapter, the Apostle Paul, through the Holy Spirit has addressed and clarified many misconceptions and false teachings about speaking in “tongues,” and this quoted verse is one of the concluding remarks on this topic. Therefore, the implication is evident, if the congregation, especially those amongst the congregation who themselves are in the ministry of the Word, “judge” the “prophets” then, the misconceptions and false teachings will have no chance to even enter, let alone take root and grow. It is important to note here that the Greek word translated as “prophet” means one who speaks forth or speaks on behalf of an authority – usually taken to mean a divine authority; i.e., it is not necessarily foretelling events. Similarly, the Greek word for “judge” means to discern or analyze and state a result. So, God’s Word puts it upon the congregation, at the very least, upon the elders, preachers, and teachers of the congregation, to evaluate every message and teaching given, and then state whether it is correct and worthy to be followed or not. Implied here is that the Word of God is to be used as the standard for the evaluation. But the important point to note is that neither the “prophets” in the congregation, nor the congregation are to simply get carried away by the name, fame, and status of the preacher, nor fall for the attractiveness of the message, and agree with whatever has been said and taught. But it is their God given responsibility to “judge” the “prophet” as well as his message, to safeguard their congregation from being misled by false teachings and wrong doctrines that Satan may subtly bring in due to their complacency.

    In the next article we will see about the third level of cross-checking that God’s Word prescribes for maintaining the purity and sanctity of God’s Word and its ministry.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well