क्या व्यवस्था हमें जीवन दे सकती है?
व्यवस्था और उद्धार से संबंधित बातों को देखने, और यह समझने के बाद कि क्यों व्यवस्था मनुष्यों को उद्धार नहीं दे सकती है, अभी हमारे सामने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न शेष हैं। पहला है कि यदि उद्धार व्यवस्था के पालन से नहीं है, तो फिर पुराने और नए नियम में व्यवस्था द्वारा जीवन मिलने की बात क्यों कही गई? और दूसरा है तो फिर व्यवस्था के दिए जाने का क्या उद्देश्य है? और तीसरा प्रश्न है कि आज हम मसीही विश्वासियों, प्रभु के लोगों के लिए, क्या व्यवस्था की कोई उपयोगिता अथवा भूमिका है? आज हम इनमें से पहले प्रश्न, व्यवस्था के द्वारा जीवन मिलने को देखना आरंभ करेंगे।
इसे समझने से पहले हमें व्यवस्था, जिसके पालन के द्वारा जीवन मिलने की बात कही गई है, वह क्या है, इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है। व्यवस्था क्या है, यह हमें मत्ती 22:35-40 में प्रभु यीशु की व्यवस्थापक से हुए बातचीत, और बातचीत के निष्कर्ष से पता चलता है। जैसा हम एक आरंभिक लेख (मार्च 17) में देख चुके हैं, प्रभु यीशु ने स्वयं हमारे लिए परिभाषित किया है कि परमेश्वर की व्यवस्था कोई रीति-रिवाज़, धर्म, पर्वों और परंपराओं आदि का पालन करना नहीं है। वरन, परमेश्वर और मनुष्यों के साथ हमारे संबंध, समर्पण, और व्यवहार को, जिसमें सबसे ऊपर, सबसे बढ़कर परमेश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण और आज्ञाकारिता, तथा मनुष्यों के प्रति खरा प्रेम है, व्यवस्था इन्हें निर्धारित और निर्देशित करने वाले परमेश्वर के नियम हैं। और यही रोमियों 13:8-10 में भी परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा कहा गया है। व्यवस्था के विषय यह एक आम, किन्तु बिलकुल गलत धारणा है कि पुराने नियम में, विशेषकर मूसा की पहली पाँच पुस्तकों में दिए गए रीति-रिवाजों का पालन करने, पर्वों को मनाने, भेंटो और बलिदानों को निर्धारित समय और विधि के अनुसार चढ़ाने को ही लोग व्यवस्था का अर्थ और व्यवस्था का पालन करना मान लेते हैं। लेकिन पुराने नियम ही में लिखा गया है कि इन रीति-रिवाजों, पर्वों, भेट-बलिदानों आदि के निर्वाह की औपचारिकता के द्वारा न तो परमेश्वर प्रसन्न होता है और न ही अनन्त जीवन मिल सकता है (यशायाह 1:12-20)।
प्रभु यीशु मसीह ने अनन्त जीवन का मार्ग जानने के लिए उसके पास आए हुए धनी जवान से कहा था, “... पर यदि तू जीवन में प्रवेश करना चाहता है, तो आज्ञाओं को माना कर” (मत्ती 19:17); अर्थात, प्रभु यीशु मसीह के अनुसार, आज्ञाओं के पालन से जीवन में प्रवेश मिल सकता है। प्रभु उस व्यक्ति से जिन आज्ञाओं के पालन की बात कर रहा था, वे पुराने नियम में दी गई परमेश्वर की व्यवस्था के एक भाग, दस आज्ञाओं, के पालन के बारे में है। न केवल यहाँ पर प्रभु यीशु मसीह ने, लेकिन पुराने नियम में परमेश्वर ने भी कहा है कि उसके नियम और विधियाँ मानने से उसके लोग जीवित रहेंगे (लैव्यव्यवस्था 18:5; नहेम्याह 9:29; यहेजकेल 20:11; आदि)। और इसकी पुष्टि नए नियम में पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित द्वारा भी करवाई है (रोमियों 10:5)। वचन की इन बातों के कारण, यहाँ एक विरोधाभास की सी स्थिति प्रतीत होती है। इस विरोधाभास को समझने और सुलझाने के लिए वचन से कुछ संबंधित बातों को देखते हैं कि वचन के अनुसार जीवन क्या है, और जीवन में प्रवेश करना, या, जीवन पा लेना से क्या अर्थ है।
जीवन, और जीवन में प्रवेश करना क्या है, यह प्रभु यीशु ने स्वयं ही स्पष्ट किया है, बताया है। प्रभु ने कहा है कि:
पिता परमेश्वर को और प्रभु यीशु को जानना ही अनन्त जीवन है “और अनन्त जीवन यह है, कि वे तुझ अद्वैत सच्चे परमेश्वर को और यीशु मसीह को, जिसे तू ने भेजा है, जानें” (यूहन्ना 17:3)।
प्रभु यीशु की शिक्षाएं जीवन हैं, “आत्मा तो जीवनदायक है, शरीर से कुछ लाभ नहीं: जो बातें मैं ने तुम से कहीं हैं वे आत्मा है, और जीवन भी हैं।” (यूहन्ना 6:63)।
प्रभु यीशु स्वयं जीवन हैं, “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता।” (यूहन्ना 14:6)।
पतरस ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा था, “शमौन पतरस ने उसको उत्तर दिया, कि हे प्रभु हम किस के पास जाएं? अनन्त जीवन की बातें तो तेरे ही पास हैं” (यूहन्ना 6:68)।
जितने प्रभु यीशु के जन बन जाते हैं, वे प्रभु को ‘पहन’ लेते हैं (रोमियों 13:14; गलातियों 3:27), उस में अर्थात, अनन्त जीवन में आ जाते हैं। और जो प्रभु यीशु में हैं, उनपर दंड की आज्ञा नहीं रहती है, वे पाप और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र हो जाते हैं (रोमियों 8:1-2), जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। अर्थात, प्रभु परमेश्वर यीशु मसीह ही जीवन है, और जीवन में प्रवेश करने का अर्थ है प्रभु यीशु मसीह को समर्पित हो जाना है, उसका बन जाना है। जो लोग अपने पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु से पापों की क्षमा प्राप्त करने के द्वारा, प्रभु परमेश्वर के साथ सही संबंधों में आ जाते हैं, प्रभु के वचन के अनुसार रहने लगते हैं, वे जीवन में प्रवेश कर जाते हैं।
प्रभु के साथ सही संबंध में आकर जीवन में प्रवेश कर जाना केवल नए नियम ही की बात नहीं है। पुराने नियम के भी जितने लोग परमेश्वर के साथ सही संबंध में रहे, वे चाहे सिद्ध नहीं थे, किन्तु नाश भी नहीं हुए और स्वर्ग भी गए। इब्रानियों 11 अध्याय पुराने नियम के इन्हीं विश्वास के नायकों के बारे में है; लेकिन इनके अतिरिक्त भी पुराने नियम के परमेश्वर के नबी और विश्वासी जन, ये सभी रीति-रिवाजों के पालन के कारण नहीं, परमेश्वर के साथ सही संबंधों के कारण परमेश्वर के लोग, उसे स्वीकार्य बने। और इनमें से दो, हनोक (उत्पत्ति 5:24) और एलिय्याह (2 राजाओं 2:9-12), बिना मृत्यु के ही परमेश्वर के पास उठा भी लिए गए। उनका परमेश्वर के साथ तथा अपने साथ के मनुष्यों के साथ सही संबंधों में बने रहना ही, उनके द्वारा व्यवस्था का पालन किए जाने के समान था, जिसने उन्हें न केवल परमेश्वर को स्वीकार्य बना दिया, किन्तु आज हम नए नियम के मसीही विश्वासियों के लिए उदाहरण भी बना दिया।
किन्तु जिन्होंने व्यवस्था के पालन को रीति-रिवाज़, नियमों, धर्म, पर्वों, परंपराओं आदि का पालन करना समझा है, और जो यह सब एक औपचारिकता के समान किए जाने वाला काम समझ कर उसे करते रहते हैं, उनके जीवन ही उन्हें इसकी व्यर्थता की गवाही देते हैं; और इसके कारण उन्हें होने वाली बेचैनी को हम अगले लेख में देखेंगे। अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
न्यायियों 13-15
लूका 6:27-49
Can the Law give us life?
Having seen the things related to the Law and salvation, and having understood why the Law cannot save us, we still have some important questions to clarify. The first is that if salvation is not through the observance of the Law, then why do the Old and New Testaments talk of receiving life through the Law? The second, what is the purpose of giving the Law? And the third question is, for us Christians, the people of the Lord, today does the law have any utility or role? Today we'll begin to look at the first of these questions, the receiving of life through the Law.
Before understanding this, it is necessary to recall and keep in mind what is the Law, that if obeyed, is said to give life. We know what the Law is from the Lord Jesus' conversation with the Scribe in Matthew 22:35-40, and from the conclusion of the conversation. As we saw in an earlier article (March 17), the Lord Jesus Himself has defined for us that the Law of God is not the observance of any customs, religion, festivals and traditions, etc. Rather, the Law is God's rules defining and directing our relationship, submission, and behavior with God and man, and our having sincere love for men; in which, a full submission and obedience to God is paramount. And this is again affirmed by God the Holy Spirit in Romans 13:8-10. It is a common, but absolutely erroneous belief regarding the Law, that it is the observance of the customs set forth in the Old Testament, especially in the first five books of Moses; that it is to observe festivals, to offer gifts and sacrifices at the prescribed time and in the given manner. People assume this to be the meaning of the Law and fulfill the law accordingly. But it is written in the Old Testament itself that God can neither be pleased by man’s fulfilling these rituals, festivals, offerings, etc. nor can eternal life be obtained by their formal observation (Isaiah 1:12–20).
The Lord Jesus Christ told the rich young man who came to him to know the way to eternal life, “… but if you want to enter life, keep the commandments” (Matthew 19:17); i.e., according to the Lord Jesus Christ, obedience to the commandments can lead to entry into life. The commandments that the Lord was referring to here for obedience, to this person, are the Ten Commandments, a part of God's Law in the Old Testament. Not only did the Lord Jesus Christ here, but God also said in the Old Testament that obeying His Laws and statutes would give life to His people (Leviticus 18:5; Nehemiah 9:29; Ezekiel 20:11; etc.). And this is also affirmed by the Holy Spirit in the New Testament through the apostle Paul (Romans 10:5). Because of these points of Scripture, there seems to be a contradiction here. To understand and resolve this contradiction, let's look at some of the relevant and related things from the Scripture. We will see what life according to Scripture is, and what it means to enter into, or, receive life.
The meaning of Life, and of what it is to enter life, has been explained by the Lord Jesus Himself. The Lord has said that:
Knowing God the Father, and the Lord Jesus is eternal life "And this is eternal life, that they may know you, the only true God and Jesus Christ, whom you have sent" (John 17:3).
The teachings of the Lord Jesus are life, "It is the Spirit who gives life; the flesh profits nothing. The words that I speak to you are spirit, and they are life" (John 6:63).
The Lord Jesus Himself is life, “Jesus said to him, I am the way and the truth and the life; No one comes to the Father except through me" (John 14:6).
Peter also supported this, saying, "Simon Peter answered him, Lord, to whom shall we go? You have the words of eternal life" (John 6:68).
All who become people of the Lord Jesus, they have 'put on' the Lord (Romans 13:14; Galatians 3:27), and thereby are now “in Him”, that is, in eternal life. And those who are in the Lord Jesus are no longer under condemnation, but they are freed from the law of sin and death (Romans 8:1-2), they have entered life. In other words, the Lord God Jesus Christ is life, and to enter life means to be surrendered to the Lord Jesus Christ, to become His. Therefore, those who, have repented of their sins and have received forgiveness of sins from the Lord, have come into a proper relationship with the Lord, and live by the Lord's word, they have entered life.
Entering life through the right relationship with the Lord is not just a matter of the New Testament. All those in the Old Testament who were in the right relationship with God, although they were not perfect, yet they did not perish but went to heaven to be with the Lord; they obtained life. Hebrews 11 is about the Heroes of the Faith of the Old Testament; but besides these, many other God's prophets and believers in God in the Old Testament, became acceptable to Him, became the people of God, not because of their observance of customs and rituals, but because of their right relationship with God. And two of them, Enoch (Genesis 5:24) and Elijah (2 Kings 2:9-12), were even taken up to God without going through death. For all these Heroes of Faith and people of God, their staying in the right relationship with God and with the people around them was tantamount to their keeping the Law, which not only made them acceptable to God, but also an example to the New Testament Christians of today.
But those who view their fulfilling of the Law to mean their formally fulfilling the observance of customs, rules, religion, festivals, traditions, etc. their own lives testify about the vanity of their false notions; and the restlessness caused by this, as we will see in the next article. For now, if you are a Christian, and are hoping to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God by being ‘good’ through the works of the flesh; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord. Therefore, while you have the time and the opportunity, take the right decision, decide on the right path, and leave the useless and fruitless path.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
Judges 13-15
Luke 6:27-49