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बपतिस्मा की समझ - (5) – पवित्र आत्मा का बपतिस्मा "भरना"?
एक अन्य गलत धारणा जिसका “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” के संदर्भ में प्रचार किया जाता है, शिक्षा दी जाती है, कि यह वैसे ही पवित्र आत्मा से “भर जाना” है जैसे कुछ अतिरिक्त सामग्री लेकर किसी रिक्त स्थान को उस सामग्री से भर दिया अजाए; किन्तु इस धारणा का भी बाइबल से कोई समर्थन नहीं है।
सामान्य वार्तालाप एवं उपयोग में वाक्यांश “भर जाने” या “परिपूर्ण हो जाने” के विभिन्न अभिप्राय होते हैं, और इस वाक्यांश के विषय ऐसा ही हम परमेश्वर के वचन बाइबल में भी देखते हैं। इन विभिन्न अभिप्रायों के कुछ उदाहरण हैं:
किसी रिक्त स्थान में समा जाना और उसे अपनी उपस्थिति से ‘भर’ देना या परिपूर्ण अथवा ओतप्रोत कर देना। बाइबल में इस अभिप्राय का एक उदाहरण है मरियम द्वारा प्रभु के पाँवों पर इत्र उडेलना, जिसकी सुगंध से घर सुगंधित हो गया (यूहन्ना 12:3 - अंग्रेज़ी में filled with the fragrance) अर्थात सुगंध से भर गया। बाइबल से इसी अभिप्राय का एक और उदाहरण है राजा के कहने पर सभी स्थानों से लोगों को लाकर ब्याह के भोज के लिए बैठाना जिससे “ब्याह का घर जेवनहारों से भर गया” (मत्ती 22:10)।
किसी बात या भावना के वशीभूत होकर कुछ कार्य अथवा व्यवहार करना; जैसे कि
लोगों का प्रभु या उसके शिष्यों के विरुद्ध क्रोध से भर जाना और हानि पहुँचाने का प्रयास करना (लूका 4:28-29; 6:11; प्रेरितों 5:17; 13:45)
आश्चर्यकर्म को देखकर अचरज और भय के वशीभूत हो जाना (लूका 5:26; प्रेरितों 3:10)
अत्यधिक आनंदित हो जाना (प्रेरितों 13:52)
इसके अतिरिक्त, बाइबल में, पवित्र आत्मा के संदर्भ में, इन वाक्यांशों का प्रयोग इस अर्थ के साथ भी किया गया है:
पहली बार पवित्र आत्मा को प्राप्त करना (प्रेरितों 9:17)
पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से अभूतपूर्व कार्य करना (प्रेरितों 2:4; 4:8, 31; 13:9-11)
इनके अतिरिक्त वाक्यांश “भर जाने” या “परिपूर्ण हो जाने” के और भी प्रयोग बाइबल में दिए गए हैं, जैसा कि सामान्य भाषा में भी अन्य प्रयोग होते हैं। किन्तु, हमारे संदर्भ के विषय के लिए, बाइबल में कहीं पर भी इस वाक्यांश का अर्थ पवित्र आत्मा से बपतिस्मा प्राप्त करना नहीं दिया गया है; न ही “भर जाने” या “परिपूर्ण हो जाने” को पवित्र आत्मा से बपतिस्मा प्राप्त करने के समतुल्य बताया गया है, और न ही ऐसा कोई संकेत भी किया गया है। सामान्यतः बाइबल में वाक्यांश “भर जाने” या “परिपूर्ण हो जाने” का अर्थ और प्रयोग किसी की सामर्थ्य अथवा उपस्थिति के वशीभूत होकर अथवा उससे प्रेरित होकर कुछ अद्भुत या अभूतपूर्व कर पाने के संदर्भ में होता है। इसलिए हम निःसंकोच यह तात्पर्य माँ सकते हैं कि पवित्र आत्मा से भर जाना से अभिप्राय है पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, उसके नियंत्रण में होकर कार्य करना।
इसके लिए इफिसियों 5:18 “और दाखरस से मतवाले न बनो, क्योंकि इस से लुचपन होता है, पर आत्मा से परिपूर्ण होते जाओ” के आधार पर पवित्र आत्मा के विषय गलत शिक्षाओं को बताने और सिखाने वालों के द्वारा दावा किया जाता है कि पवित्र आत्मा से परिपूर्ण होने या भर जाने की शिक्षा बाइबल में दी गई है। किन्तु यदि हम बहुधा ज़ोर देकर दोहराई जाने वाली पवित्र आत्मा संबंधी गलत शिक्षाओं के प्रभाव से निकल कर इस वाक्य को साधारण समझ से देखें, और वह भी उसके सही सन्दर्भ में, तो यहाँ असमंजस की कोई बात ही नहीं है। इस वाक्य का सीधा सा और स्पष्ट अर्थ है; इस वाक्य में दाखरस द्वारा मनुष्य को नियंत्रित कर लेने वाले प्रभाव को उदाहरण के समान प्रयोग किया गया है, एक अन्य तथ्य, पवित्र आत्मा के प्रभाव को चित्रित करने के लिए। पौलुस ने इस पद में पवित्र आत्मा की प्रेरणा से जो लिखा है उसे समझने के लिए इस प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है, “जिस प्रकार दाखरस से ‘परिपूर्ण’ व्यक्ति का मतवालापन, या लुचपन का व्यवहार के द्वारा प्रकट कर देता है कि वह व्यक्ति उसमें भरे हुए दाखरस के प्रभाव तथा नियंत्रण में है, उसी प्रकार मसीही विश्वासी को अपने आत्मा से भरे हुए या ‘परिपूर्ण’ होने को अपने आत्मिक व्यवहार के द्वारा प्रदर्शित और व्यक्त करना है कि वह पवित्र आत्मा से भरा हुआ है, उसके नियंत्रण में है” और फिर इससे आगे के पद 19 से 21 में वह पवित्र आत्मा से ‘भरे’ हुए होने पर किए जाने वाले अपेक्षित व्यवहार की बातें बताता है।
इस वाक्य में एक और बात पर ध्यान कीजिए, पौलुस ने लिखा है, ‘...परिपूर्ण होते जाओ’ यानि कि यह लगातार होती रहने वाली प्रक्रिया है। अर्थात, इसे यदा-कदा किए जाने वाला कार्य मत समझो वरन लगातार पवित्र आत्मा के प्रभाव और नियंत्रण में बने रहो। इस कथन का न तो यह अर्थ है, और न ही हो सकता है, कि तुम्हें पवित्र आत्मा की कुछ मात्रा बारंबार लेते रहना पड़ेगा जब तक कि तुम उस से ‘भर’ नहीं जाते हो; और न ही यह अर्थ है कि क्योंकि पवित्र आत्मा व्यक्ति में से रिस कर निकलता रहता है, इस लिए जब भी ऐसा हो जाए तो उसे फिर से ‘भर’ लेने के लिए पर्याप्त मात्रा में उसे ले लो। यह तो कभी हो ही नहीं सकता है, क्योंकि जैसा पहले देखा जा चुका है, पवित्र आत्मा परमेश्वर है, पवित्र त्रिएक परमेश्वर का एक व्यक्तित्व, उसे बांटा नहीं जाता है, वह टुकड़ों या किस्तों में नहीं मिलता है, न ही किसी व्यक्ति में उसे घटाया या बढ़ाया जा सकता है, और वह हर किसी सच्चे मसीही विश्वासी में मात्रा तथा गुणवत्ता में समान ही विद्यमान होता है। क्योंकि यही वचन का सच है तो फिर संभव भी केवल यही है कि व्यक्ति के सच्चे मसीही विश्वास में आते ही जैसे ही पवित्र आत्मा उसे मिला, वह तुरंत ही उससे ‘भर गया’ या ‘परिपूर्ण’ भी हो गया।
इस बात की पुष्टि प्रेरितों 2:3-4 “और उन्हें आग की सी जीभें फटती हुई दिखाई दीं; और उन में से हर एक पर आ ठहरीं। और वे सब पवित्र आत्मा से भर गए, और जिस प्रकार आत्मा ने उन्हें बोलने की सामर्थ्य दी, वे अन्य अन्य भाषा बोलने लगे” से भी हो जाती है - पवित्र आत्मा उन एकत्रित और प्रतीक्षा कर रहे शिष्यों पर उतरा, साथ ही लिखा है कि वे शिष्य पवित्र आत्मा से भर गए - उन शिष्यों द्वारा पवित्र आत्मा को प्राप्त करना ही पवित्र आत्मा से भर जाना था। उन्हें पवित्र आत्मा से भरने के लिए अलग से कोई प्रयास नहीं करना पड़ा; और साथ ही वहाँ जीतने जन उपस्थिति थे, वे सभी एक साथ ही, समान रूप से पवित्र आत्मा से भर गए, कोई कम कोई अधिक नहीं, या कोई भर गया कोई रह गया नहीं। प्रेरितों 1:4, 5, 8 में प्रभु ने स्पष्ट कर दिया था कि पवित्र आत्मा प्राप्त करना ही पवित्र आत्मा से बपतिस्मा प्राप्त करना है; और यहाँ पर वचन यह स्पष्ट कर देता है कि पवित्र आत्मा का विश्वासी में आना और उसका पवित्र आत्मा से भर जाना एक ही बात है। अर्थात पवित्र आत्मा का विश्वासी में आना ही पवित्र आत्मा से बपतिस्मा तथा पवित्र आत्मा से भर जाना है। अब जो पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में उस व्यक्ति में आ गया है, क्योंकि उससे अतिरिक्त, या अधिक, या दोबारा तो किसी को कभी मिल ही नहीं सकता है; पवित्र आत्मा उसमें अपनी संपूर्णता में हमेशा वही, वैसा ही, और उतना ही रहेगा; इसलिए अब तो बस उस व्यक्ति को अपने में विद्यमान पवित्र आत्मा की उपस्थिति को अपने आचरण द्वारा व्यक्त करते रहना है, अपने व्यवहारिक जीवन में पवित्र आत्मा के प्रभाव एवं नियंत्रण को दिखाते रहना है।
तो इसलिए अब, किसी अन्य की तुलना में, उस व्यक्ति में विद्यमान पवित्र आत्मा के कार्यों और सामर्थ्य के दिखाए जाने में जो भी भिन्नता हो सकती है वह उस व्यक्ति में विद्यमान पवित्र आत्मा की ‘मात्रा’ के भिन्न होने कारण कदापि नहीं होगी – क्योंकि न तो पवित्र आत्मा की मात्रा और न उसकी गुणवत्ता कभी भी बदल सकती है, और न ही कभी किसी अन्य से भिन्न हो सकती है। किन्तु यह परस्पर भिन्नता केवल उन व्यक्तियों में पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण एवं आज्ञाकारिता में बने रहने और इसे अपने व्यवहारिक जीवन में प्रदर्शित करते रहने में भिन्न होने के द्वारा ही हो सकती है। किसी व्यक्ति का यह पवित्र आत्मा के प्रति आज्ञाकारिता एवं समर्पण का व्यवहार एवं आचरण, उस में पवित्र आत्मा की ‘मात्रा’ का मान अथवा सूचक नहीं है। इस भिन्नता को पवित्र आत्मा की मात्रा के सूचक के रूप में प्रयोग करने या कहने की शिक्षा बाइबल की शिक्षाओं से संगत नहीं है, बल्कि इसका संकेत है कि ऐसी शिक्षाएं देने वाले पवित्र आत्मा के बारे में कितना कम और गलत जानते तथा सिखाते हैं। इस भिन्नता को समझने के बारे में कुछ विस्तार से हम अगले लेख में देखेंगे।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो यह आपके लिए अनिवार्य है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय वचन में दी गई शिक्षाओं को गंभीरता से सीखें, समझें और उनका पालन करें; और सत्य को जान तथा समझ कर ही उचित और उपयुक्त व्यवहार करें, सही शिक्षाओं का प्रचार करें। किसी के भी द्वारा प्रभु, परमेश्वर, पवित्र आत्मा के नाम से प्रचार की गई हर बात को 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 तथा प्रेरितों 17:11 के अनुसार जाँच-परख कर, यह स्थापित कर लेने के बाद कि उस शिक्षा का प्रभु यीशु द्वारा सुसमाचारों में प्रचार किया गया है; प्रेरितों के काम में प्रभु के उस प्रचार का निर्वाह किया गया है; और पत्रियों में उस प्रचार तथा कार्य के विषय शिक्षा दी गई है, तब ही उसे स्वीकार करें तथा उसका पालन करें, उसे औरों को सिखाएं या बताएं। आपको अपनी हर बात का हिसाब प्रभु को देना होगा (मत्ती 12:36-37)। जब वचन आपके हाथ में है, वचन को सिखाने के लिए पवित्र आत्मा आपके साथ है, तो फिर बिना जाँचे और परखे गलत शिक्षाओं में फँस जाने, तथा मनुष्यों और उनके समुदायों और उनकी गलत शिक्षाओं को आदर देते रहने के लिए, उन गलत शिक्षाओं में बने रहने के लिए क्या आप प्रभु परमेश्वर को कोई उत्तर दे सकेंगे?
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 91-93
रोमियों 15:1-13
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Understanding Baptism - (5) – Holy Spirit
Baptism “Filling”?
Another wrong notion that is preached and taught about “Baptism of the Holy Spirit” is that it is a “filling” of the Holy Spirit, as in an extra amount of some material being taken and being used to occupy some empty places; but this too has no support from the Bible.
In general use and conversation, the phrase “to fill” or “to be filled with” have different meanings and implications, and we see the same in God’s Word as well. Let us look at some examples of the use of these phrases from the Bible:
One meaning is to occupy an empty space and make its presence felt in that space, i.e., to permeate in that space. One example of this meaning is Mary anointing the feet of Jesus with perfume, and the sweet smell of the perfume filled up or permeated in the whole house (John 12:3). Another example of this meaning is in Matthew 22:10, where at the King’s command, “the wedding hall was filled with guests.”
Another meaning is to come under the control of an emotion or a situation, and do something while in that state of being overwhelmed by that emotion or situation; e.g.:
People getting filled up with rage or anger and trying to harm the Lord Jesus and His disciples (Luke 4:28-29; 6:11; Acts 5:17; 13:45).
Being overwhelmed with dismay and fear on seeing miracles (Luke 5:26; Acts 3:10).
Becoming overjoyed and overwhelmed with an emotion (Acts 13:52).
In the Bible, in context of the functioning of the Holy Spirit, these phrases have also been used with the following meaning:
To receive the Holy Spirit for the first time (Acts 9:17).
The doing of miraculous and extra-ordinary works through the power of the Holy Spirit (Acts 2:4; 4:8, 31; 13:9-11).
Besides these uses, the phrases “to fill” or “to be filled with” have also been used with other meanings, as they are used in common day-to-day use in general conversation. But, in context of our topic of discussion, nowhere in the Bible have these phrases ever been used to mean or even remotely indicate the receiving the “Baptism of the Holy Spirit” - which is the meaning ascribed to these phrases by the preachers and teachers of wrong doctrines about the Holy Spirt. The common usage in the Bible of these phrases is to show being overwhelmed with or coming under the control of some emotion or power and then doing something extra-ordinary or wonderful under that effect. Therefore, we can safely surmise that the meaning of “being filled with the Holy Spirit” is to be imbued with the power of God the Holy Spirit, and to carry out some work under the control of the Holy Spirit.
In support of their arguments, the preachers and teachers of wrong doctrines often use Ephesians 5:18 “And do not be drunk with wine, in which is dissipation; but be filled with the Spirit” to claim that the Bible teaches and asks to be filled with the Holy Spirit. But if we step out of the influence of the emphatically and repeatedly stated wrong teachings about the Holy Spirit, and look at this verse with a general, straightforward understanding, and that too in its actual context, then it becomes apparent that there is nothing perplexing in this verse. There is a simple and straightforward meaning to this sentence; here the ability of wine to take control of a person has been used as an example to illustrate another truth, about the Holy Spirit. To understand what Paul has written here under the guidance of the Holy Spirit, this verse can be paraphrased as follows: “Just as a person ‘filled’ with wine, through his drunken and wayward behavior shows that he is under the effect and control of the wine in him, in a similar manner a Christian Believer should demonstrate his being ‘filled’ with and being under the control of the Holy Spirit through his spiritual behavior and works”; and then from verse 19-21 Paul talks about the expected behavior and life of a person ‘filled’ with the Holy Spirit.
Another thing to be noted in this sentence is that Paul has said “... be filled ...” in the present continuous tense; i.e., this has to be a regular, continual process, and not something to be done off and on; meaning always and continually remain under the influence and control of the Holy Spirit for everything in your life. This statement neither implies, nor can be can be taken to mean that the Christian Believer will have to keep on receiving portions of the Holy Spirit to top up and remain ‘filled’. It also does not mean that the Holy Spirit keeps leaking out of a person and he needs to keep filling up to make up for the leak. None of this can ever happen, or be accepted, since as we have seen before, the Holy Spirit is God, a person of the Holy Trinity, and He can neither be divided not broken into bits and pieces, nor given to anyone in parts, and cannot in any way be increased or decreased in quantity or quality in anyone. He is always present just the same in every Christian Believer. Since this is the absolute truth and fact of the Scripture, therefore, the only thing possible is that as soon as the person comes to faith in Christ Jesus and is saved, he receives the Holy Spirit, and is also “filled” with the Holy Spirit at that very moment as well.
This also affirmed from the incidence of the disciples receiving the Holy Spirit, in Acts 2:3-4 “Then there appeared to them divided tongues, as of fire, and one sat upon each of them. And they were all filled with the Holy Spirit and began to speak with other tongues, as the Spirit gave them utterance” - when the Holy Spirit descended on those disciples waiting to receive the Holy Spirit, it is written that their receiving the Holy Spirit was the same as their being ‘filled with the Holy Spirit.’ They never had to make any separate efforts to receive the ‘filling with the Holy Spirit’; all of those who were present there, were simultaneously and in like manner filled with the Holy Spirit, nobody was filled different or more or less than any other. The Lord had made it clear in Acts 1:4, 5, 8 that receiving the Holy Spirit is the same as being baptized by the Holy Spirit; and here God’s Word also makes it clear that the coming of the Holy Spirit into the Believer and his being ‘filled’ with the Holy Spirit are one and the same thing. Once the Holy Spirit comes into a person, He comes in His fullness, and there is nothing more or different about Him that can be given or received on some other occasion. He will always remain in the Christian Believer in His fullness, just the same as at the time of coming into him. Therefore, now, the person has to demonstrate through his life and behavior, through practical living under the influence and guidance of the Holy Spirit, the presence and power of the Holy Spirit within him.
Hence, in comparison to any other person, if the works and power of the Holy Spirit is any different from someone else, it cannot ever be due to any difference in quality or quantity of the Holy Spirit - because this difference is just not possible. This difference is only due to the submission and obedience people have towards the Holy Spirit in their lives, and in the manner they live and show their being guided by the Holy Spirit in their lives. These differences in submission, obedience, works, and living under the guidance of the Holy Spirit are not indicative of differences in quantity or quality of the Holy Spirit within them. Those who use these differences to teach about differences in quantity and quality of the Holy Spirit in persons, and then build their own wrong doctrines based on this, show and prove by doing this that they simply do not know or understand the basic Biblical truths about the Holy Spirit. We will look into some more details about these differences in the next article, to understand it better.
If you are a Christian Believer, then it is mandatory for you to learn the teachings related to the Holy Spirit from the Word of God, seriously ponder over them, understand them, and obey them. You should learn the truth and accordingly live and behave appropriately and worthily, and should teach only the truth from the Bible. You will have to give an account of everything you say to the Lord Jesus (Matthew 12:36-37). When you have God’s Word in your hand, and the Holy Spirit is there with you to teach you, then how will you be able to answer for yourself for getting deceived by wrong doctrines and false preaching and teachings? How will you justify your giving credibility to the persons, sects, and denominations teaching and preaching wrong things in the name of the Holy Spirit, and being part of their false teachings?
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 91-93
Romans 15:1-13