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मंगलवार, 26 जुलाई 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 7


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शिक्षक पवित्र आत्मा - यूहन्ना 14:26


हम प्रभु यीशु मसीह के सच्चे, आज्ञाकारी, और समर्पित शिष्य द्वारा उसकी मसीही सेवकाई में सहायता और मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका का अध्ययन कर रहे हैं, जो कि प्रत्येक मसीही विश्वासी में, उसके उद्धार पाते ही, तुरंत ही आकर निवास करने लगता है। हमने देखा है कि पवित्र आत्मा की यह भूमिका दो प्रकार की है, विश्वासी के व्यक्तिगत जीवन में, जो यूहन्ना 14 अध्याय में दी गई है; और उसकी सेवकाई के जीवन में, जो यूहन्ना 16 अध्याय में दी गई है। हम व्यक्तिगत जीवन में भूमिका को यूहन्ना 14:16-17 पदों से देख चुके हैं कि एक बार विश्वासी में आ जाने के बाद वह सर्वदा मसीही विश्वासियों के साथ आजीवन बना रहता है, मसीही जीवन के निर्वाह के लिए उनका सहायक होता है, सेवक नहीं। उसे किसी मनुष्य के प्रयास, विधियों, अथवा युक्तियों द्वारा प्राप्त नहीं किया जाता है, वरन परमेश्वर द्वारा स्वेच्छा से प्रदान किया जाता है। परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है, कोई भी सांसारिक व्यक्ति, वह चाहे कितना भी “धर्मी” क्यों न हो, उसे ग्रहण नहीं कर सकता है; वह केवल वास्तविक मसीही विश्वासियों में ही रहता है। आज हम मसीही विश्वासी के व्यक्तिगत जीवन में परमेश्वर का वचन सीखने से संबंधित परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका को देखेंगे।

 

प्रभु यीशु मसीह ने फसह के पर्व के भोज के समय में अपने शिष्यों से चर्चा करते समय उनसे परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय, जिसे वे निकट भविष्य में प्राप्त करने वाले थे, आगे कहा, “परन्तु सहायक अर्थात पवित्र आत्मा जिसे पिता मेरे नाम से भेजेगा, वह तुम्हें सब बातें सिखाएगा, और जो कुछ मैं ने तुम से कहा है, वह सब तुम्हें स्मरण कराएगा” (यूहन्ना 14:26)। इस पद से हम परमेश्वर पवित्र आत्मा (जिसे, जैसा कि यहाँ भी लिखा गया है, कोई मनुष्य नहीं वरन पिता परमेश्वर ही प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों में भेजेगा), द्वारा मसीही विश्वासी को प्रभु का वचन सिखाने की कार्य-विधि को देखते हैं:

  • वह तुम्हें सब बातें सिखाएगा” - पवित्र आत्मा ही 'तुम्हें' अर्थात प्रभु के शिष्यों को सब बातें सिखाता है। अर्थात वह बिना किसी भेदभाव या पक्षपात के सभी शिष्यों को समानता से प्रभु की सभी बातें सिखाने के लिए है। ध्यान कीजिए यहाँ यह नहीं कहा गया है कि जो शिष्य अलग से कोई कार्य करेंगे या कोई रीति पूरी करेंगे उन्हें सिखाएगा; या उससे मिलने वाली वचन की यह शिक्षा कुछ विशेष चुने हुए शिष्यों ही के लिए है, अन्य के लिए नहीं। परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रभु के हर शिष्य को सभी बातें सिखाएगा। सीखना परिश्रम से, बारंबार अध्ययन करने और परस्पर चर्चा करने से ही होता है; पुस्तक हाथ में पकड़ लेने या उसका सिरहाना बना लेने, या लापरवाही से कभी-कभार पढ़ लेने से सीखना नहीं हो सकता है। बारंबार पढ़ना, लिखी बातों का पालन करना, दिए गए अभ्यास को करके शिक्षक को दिखाना और उसकी जाँच करवाना होता है। सीखना एक प्रक्रिया है, जिसका निर्वाह करना आवश्यक है; और इसके लिए पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों का शिक्षक है। सीखने में विद्यार्थियों द्वारा गलतियाँ होती हैं, उनके कार्य में कमी रह जाती है। तब शिक्षक उन गलतियों को सुधार कर संबंधित अध्ययन और निर्धारित कार्य को पुनः करने को देता है। इसमें समय और सतत प्रयास की आवश्यकता होती है; किन्तु इस प्रक्रिया से निकले बिना सीखना नहीं होने पाता है। ठीक इसी प्रक्रिया का निर्वाह पवित्र आत्मा की अगुवाई और सामर्थ्य से परमेश्वर के वचन के अध्ययन और मसीही सेवकाई से संबंधित बाइबल में दिए गए परमेश्वर के निर्देशों के पालन करने में भी किया जाता है। परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी में निवास करता है, और जब तक वह विश्वासी उसके साथ सहयोग करता है, उसका आज्ञाकारी रहता है, पवित्र आत्मा उसका मार्गदर्शन करता है, उसे सिखाता है, सुधारता है, सक्षम तथा उन्नत करता रहता है। 

  • जो कुछ मैं ने तुम से कहा है, वह सब तुम्हें स्मरण कराएगा” - आज बहुत से मत और डिनॉमिनेशंस में यह गलत शिक्षा और व्यवहार बहुत आम है कि उनके अनुयायी ये दावे करते हैं कि उन्हें पवित्र आत्मा ने कुछ विशिष्ट कहा है, या उन्हें कोई नई शिक्षा दी है, या उन्हें कोई नया दर्शन मिला है - ऐसी बातें और भविष्यवाणियाँ जो बाइबल में नहीं दी गई हैं, जिन्हें न प्रभु यीशु ने और न ही उनके शिष्यों अथवा प्रेरितों, या वचन की पुस्तकें लिखने वालों ने कहा और लिखा है। उनकी इन बातों से प्रभावित होकर बहुत से लोग भी ऐसे अनुभवों की लालसाएं करने लगते हैं, उनके समान करने के प्रयासों में लग जाते हैं। जबकि यह विचार, व्यवहार, और शिक्षा बाइबल के अनुसार सही नहीं है, सर्वथा अनुचित और गलत है। आज हमारे हाथों में जो परमेश्वर का वचन है वह अधूरा नहीं संपूर्ण है; हर स्थान, समय, और सभ्यता के लिए, सभी लोगों को जीवन और भक्ति से संबंधित सब कुछ सिखाने, संसार की सड़ाहट से बचाने, और ईश्वरीय स्वभाव का संभागी बनाने के लिए पर्याप्त है (2 पतरस 1:2-4)। उसमें और कुछ भी नया जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। वचन में चेतावनी है कि जो भी इसमें कुछ जोड़ेगा, या इस में से कुछ निकालेगा, उसे यह करने के लिए परमेश्वर के दंड का भागी होना पड़ेगा (व्यवस्थाविवरण 12:32; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। इस पद में प्रभु यीशु मसीह ने स्पष्ट कहा है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा की शिक्षा का तरीका केवल प्रभु द्वारा कही गई बातों को स्मरण करवाने का; उनके आधार पर सिखाने का है; इससे अतिरिक्त या इससे पृथक नहीं। प्रभु यीशु ने यह नहीं कहा कि वह अपनी ओर से शिष्यों को कोई नई शिक्षाएं, कोई नए दर्शन देगा, स्थापित वचन में अपने द्वारा कोई नई बात जोड़ेगा। इसकी पुष्टि में, प्रभु यीशु मसीह ने अपनी महान आज्ञा में, अपने स्वर्गारोहण के समय शिष्यों से कहा कि वे जाकर और शिष्य बनाएं, तथा जो शिष्य बनते हैं उन्हें प्रभु यीशु की बातें सिखाएं (मत्ती 28:18-20); न कि उन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा नई शिक्षाएं, नए दर्शन और नई भविष्यवाणियाँ प्राप्त करने के लिए लालसा, परिश्रम, और प्रयास करने वाले बनना सिखाएं। 


तात्पर्य यह है कि पहले प्रभु की बातों को पढ़ो और मन में बसाओ (कुलुस्सियों 3:16)। जो और जितना मन में बसा हुआ है, पवित्र आत्मा उसे ही स्मरण करवाने के द्वारा सिखाएगा। इस पद से कुछ ऊपर यूहन्ना 14:21, 23 में प्रभु यीशु मसीह ने शिष्यों से कहा कि जो उसके वचन से प्रेम करता है, वही है जो वास्तविकता में प्रभु से प्रेम करता है, और प्रभु तथा पिता परमेश्वर ऐसे प्रेम करने वालों के साथ रहते हैं। यदि वचन अधिकाई से मन में बस हुआ होगा तो स्मरण करवाने और सिखाने के लिए अधिक सामग्री होगी, बेहतर सीखने पाएंगे। यदि वचन मन में कम होगा तो पवित्र आत्मा के पास स्मरण करवाने और सिखाने के लिए कम सामग्री होगी, और कम ही सीखने पाएंगे। जिस शिष्य ने वचन जितना अधिक अपने मन में बसा रखा है, समय, परिस्थिति, तथा आवश्यकता के अनुसार परमेश्वर पवित्र आत्मा को उसे उतना अधिक और अच्छा सिखाने, तथा उपयोग करवाने का अवसर रहेगा।

 

इसीलिए, यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो परमेश्वर के वचन, बाइबल को अपने जीवन में प्राथमिकता दीजिए। वचन को केवल औपचारिकता निभाते हुए पढ़ने वाले ही नहीं, वरन लगन एवं गंभीरता से वचन का अध्ययन तथा पालन करने वाले बनिए। मसीही विश्वासी के अंदर निवास करने वाला पवित्र आत्मा प्रत्येक विश्वासी को वचन सिखाने के लिए ही दिया गया है। यदि आप उसके साथ मिलकर प्रयास और परिश्रम करने के लिए तैयार हैं तो वह अवश्य ही आपको भी सिखाएगा क्योंकि वह तो सभी को सिखाना चाहता है और सभी मसीही विश्वासियों को सिखाता है (1 कुरिन्थियों 2:10-15; 2 तिमुथियुस 3:16-17)।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको अपना वचन सिखाए; फिर आप में होकर अपने आप को औरों पर प्रकट करे, अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे आपको आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  

 

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 40-42 

  • प्रेरितों 27:1-26


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English Translation

The Holy Spirit as Teacher - John 14:26


We are studying the role, help, and guidance provided by the Holy Spirit in the life of a true, obedient, and committed disciple of Christ Jesus, for his life and Christian ministry. We have seen that the Holy Spirit comes to reside in every Believer, the moment his is saved, is Born-Again; and the Holy Spirit has two kinds of roles in the Believer’s life as given by the Lord Jesus in His discourse in John chapter 14 and 16. In John 14 we see the role of the Holy Spirit in the personal life of the Believer; and in John 16 is given the role in the life of a Believer’s ministry. We have seen from John 14:16-17 about His role in a Believer’s personal life, that - He is freely and willingly given by God to His Believers, and is not obtained through any human efforts or methods; having once come to reside in a Believer, the Holy Spirit remains in and with him for life; is the Believer’s helper in living out his life of Christian faith, and not his servant or substitute. The Holy Spirit is the Spirit of truth; He never comes to reside in any worldly or unsaved person - no matter how religious or good that person may be and whatever efforts he may make to have the Holy Spirit; He only resides in and stays with the actual Christian Believers. Today, we will see the role of the Holy Spirit related to a Christian Believer learning the Word of God.


During the Passover feast, while telling them about the Holy Spirit, whom they were going to receive in the near future, the Lord Jesus further stated, “But the Helper, the Holy Spirit, whom the Father will send in My name, He will teach you all things, and bring to your remembrance all things that I said to you” (John 14:26). Here, in this verse, we see two main things. Firstly, it is reiterated that the Holy Spirit is sent by God, i.e., He does not come through any man, but only when and to whom God sends Him. Secondly, this verse tells us the method a Christian Believer learns the Word of God through the Holy Spirit. The way the Holy Spirit teaches God’s people, God’s Word is:

  • He will teach you all things” - The Lord Jesus told His disciples that the Holy Spirit will teach “you all things” i.e., those who are the disciples of Christ Jesus. Implied in this statement is that all of the disciples will be taught similarly, without any discrimination, all the things. This is very important to take note of; pay attention that the Lord has not said that those disciples who do some extra things or fulfill some particular ritual or process, the Holy Spirit will teach only them and not the others, or teach them better and differently. The Holy Spirit will teach all things to every disciple of the Lord. It is general knowledge that learning is only through laboring about it, studying the topic repeatedly, and discussing what has been read or learnt with others. No one can learn anything by being casual and careless about it, reading occasionally, or just keeping the text-book without reading it regularly and diligently. While learning, the person has to read and go through the lesson repeatedly, do the exercises that have been instructed in the lesson, and have a review and evaluation done by the instructor. Learning is a process, and the process has to be fulfilled; the Holy Spirit guides the Believer through this process. While learning all students make mistakes, do lack in some things; and then the instructor points out those mistakes and short-comings, guides how to correct them, and takes them through the lesson again. Learning requires time, patience, practice, and efforts; and without undergoing this process learning does not happen. The same holds true for learning from the Holy Spirit about God’s Word, about the way of doing the assigned ministry, and about being obedient to God’s instructions in living the Christian life of faith and commitment. The Holy Spirit resides in every Christian Believer, but for Him to be able to help and guide the Believer, the person has to learn to be sensitive to His promptings, cooperative and obedient to His instructions, be willing and prepared to face the situations He takes one through, persevering in repeatedly handling difficulties and opposition, etc.; only then does the Believer learn, improve, and grow in faith and maturity. 

  • bring to your remembrance all things that I said to you” - These days it is a very commonly seen thing amongst some sects and denominations, that their members and followers claim to have received some new revelation or teaching or specific instructions etc., from the Holy Spirit, things that have never been said or written by the authors of the books of the Bible, and prophecies that have never been made in the Bible - this is inconsistent with the Word of God and with the characteristics of the Holy Spirit. It is an unBiblical, wrong teaching and behaviour. Many people, often the newcomers to Christianity are misled and misguided into having similar ambitions and exhibiting similar behaviour. This is misusing the name and work of the Holy Spirit, and committing the sin of adding to the Word of God. the Word of God that we have in our hands today is complete and final in every aspect; and is sufficient for people of every place, time, civilization, to teach them all that is required for life and godliness, to help them escape the corruption of the world, and make them partakers of the divine nature (2 Peter 1:2-4). There is no rational or need to add anything new to it; therefore, God will never give any new revelations or prophecies outside of what He has already provided in His Word. Anyone attempting to add to God’s Word or to remove anything from it will have to face God’s punishment for this (Deuteronomy 12:32; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). In this verse that we are looking at, the Lord Jesus has very clearly said that the Holy Spirit will teach the disciples by reminding them of what the Lord had said; He will teach them what has already been said by the Lord; the Holy Spirit will never teach anything other than that or extra. The Lord Jesus never said that the Holy Spirit will give any new teachings or visions or revelations to the disciples, or would add anything to God’s Word later on. This is affirmed by what the Lord Jesus said in His ‘Great Commission’ instructions to the disciples - that they should make other disciples, and to those who choose to become the Lord’s disciples, teach what the Lord Jesus had taught them (Matthew 28:18-20). The Lord never said to them that they should teach and encourage the new disciples to seek new teachings, revelations, prophecies etc., be desirous of such experiences, to strive to engage in such things. Therefore, any such teachings and behavior in the name of the Holy Spirit or the Lord is contrary to what they have said and got written in the Bible, and is unacceptable.

The lesson to learn is that the disciples, the Believers, should first read and stablish in their hearts and minds the words of the Lord (Colossians 3:16). Whatever, and as much as we store up in our hearts and minds, the Holy Spirit will teach and remind us about it. The more of God’s Word we have within ourselves, the better off we will be, and if we don’t store up much of the Lord’s Word within us, the Holy Spirit will also not have much to teach us from, and neither will He be able to bring to our remembrance the required Word according to the need or circumstances we may be in. So, a disciple’s primary responsibility to learn from the Holy Spirit is to first store up as much of God’s Word as he can within himself. Just a few verses before this verse, in John 14:21, 23 the Lord Jesus had said to His disciples that the one who loves His Word, is the one who actually loves the Lord, and the Lord and God the Father abide with such a person.


Therefore, if you are a Christian Believer, give God’s Word the priority it ought to have in your life. Do not just read the Bible to fulfill a formality, but read it to learn it, to store up its teachings within you, and to obey them. The Holy Spirit has been given to every Believer to help, guide, and teach him (1 Corinthians 2:10-15; 2 Timothy 3:16-17); but He can do this only when the person is willing to cooperate with Him and strive as He directs.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 40-42 

  • Acts 27:1-26