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पवित्र आत्मा की निन्दा करने का पाप (1)
हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता से भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं। इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं। जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार। साथ ही इस पद में सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है, कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बाइबल से देखने, जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है।
पिछले लेखों में हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, प्रभु यीशु से संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को देखने के बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से देखना आरंभ किया है। हम देख चुके हैं कि प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के नया जन्म या उद्धार पाते ही, तुरंत उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में आकर उसके अंदर निवास करने लगता है, और उसी में बना रहता है, उसे कभी छोड़ कर नहीं जाता है; और इसी को पवित्र आत्मा से भरना या पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना भी कहते हैं। वचन स्पष्ट है कि पवित्र आत्मा से भरना या उससे बपतिस्मा पाना कोई दूसरा या अतिरिक्त अनुभव नहीं है, वरन उद्धार के साथ ही सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा का आकर निवास करना ही है। इन गलत शिक्षकों की एक और बहुत प्रचलित और बल पूर्वक कही जाने वाले बात है “अन्य-भाषाओं” में बोलना, और उन लोगों के द्वारा “अन्य-भाषाओं” को अलौकिक भाषाएं बताना, और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग के द्वारा इससे संबंधित कई और गलत शिक्षाओं को सिखाना। इसके बारे में भी हम देख चुके हैं कि यह भी एक ऐसी गलत शिक्षा है जिसका वचन से कोई समर्थन या आधार नहीं है। प्रेरितों 2 अध्याय में जो अन्य भाषाएं बोली गईं, वे पृथ्वी ही की भाषाएं और उनकी बोलियाँ थीं; कोई अलौकिक भाषा नहीं। हमने यह भी देखा था कि वचन में इस शिक्षा का भी कोई आधार या समर्थन नहीं है कि “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना की भाषाएं हैं। इस गलत शिक्षा के साथ जुड़ी हुई इन लोगों की एक और गलत शिक्षा है कि “अन्य-भाषाएं” बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण है, जिसके भी झूठ होने और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग पर आधारित होने को हमने पिछले लेख में देखा है। पिछले लेख में हमने यह भी देखा था कि उन लोगों के सभी दावों के विपरीत, न तो प्रेरितों 2:3-11 का प्रभु के शिष्यों द्वारा अन्य-भाषाओं में बोलना कोई “सुनने” का आश्चर्यकर्म था, न ही अन्य भाषाएं प्रार्थना करने की गुप्त भाषाएँ हैं, और न ही ये किसी को भी यूं ही दे दी जाती हैं, जब तक कि व्यक्ति की उस स्थान पर सेवकाई न हो, जहाँ की भाषा बोलने की सामर्थ्य उसे प्रदान की गई है। एक और दावा जो ये पवित्र आत्मा और अन्य-भाषाएँ बोलने से संबंधित गलत शिक्षाएं देने वाले करते हैं, वह है कि व्यक्ति अन्य-भाषा बोलने के द्वारा सीधे परमेश्वर से बात करता है। इसके तथा कुछ संबंधित और बहुत महत्वपूर्ण बातों के बारे में हम पिछले दो लेखों में देख चुके हैं कि उनका यह दावा भी वचन की कसौटी पर बिलकुल गलत है, अस्वीकार्य है। ये केवल बाइबल की गलत व्याख्या और दुरुपयोग के द्वारा उनके द्वारा बनाई गई मन-गढ़ंत धारणाएं हैं इनका बाइबल में कोई समर्थन नहीं है, और कुछ भी नहीं।
बाइबल की गलत व्याख्या और दुरुपयोग के द्वारा उनके द्वारा बनाई गई इन मन-गढ़ंत धारणाओं के लोगों द्वारा विश्लेषण करने तथा सत्य को उजागर होने से रोकने के लिये वे भय को एक रण-नीति के समान प्रयोग करते हैं। यदि कोई उनकी धारणाओं की जाँच करना चाहता है, तो उसे ऐसा करने से हतोसाहित करने के लिये, ये लोग उसे यह कहकर भयभीत करते हैं कि वह ऐसा करने के द्वारा पवित्र आत्मा की निन्दा का कभी क्षमा न किया जाने वाला पाप करने जा रहा है, जिसके फिर परमेश्वर की ओर से बहुत ही गंभीर परिणाम होंगे, इसलिए उसे उनकी बात माँ लेनी चाहिए और अपने प्रयास छोड़ देने चाहिएँ। आज से हम उनके इसी दावे की सत्यता के बारे में देखेंगे।
पवित्र आत्मा की निन्दा क्या है, और क्यों इस क्षमा न हो सकने वाला पाप कहा गया है?
हम पवित्र आत्मा से संबंधित इस एक और बहुत गलत और भ्रामक शिक्षा “पवित्र आत्मा की निन्दा - कभी क्षमा न होने वाला पाप” के बारे में, जिसका दुरुपयोग ये गलत शिक्षाएं फैलाने वाले लोग अपने आप को प्रश्न पूछे जाने तथा अपनी आलोचना होने से बचाए रखने के लिए करते हैं, कुछ विस्तार से, तीन भागों में देखेंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि परमेश्वर के वचन बाइबल में, स्वयं प्रभु यीशु मसीह ही के द्वारा “पवित्र आत्मा की निन्दा या निरादर” को “कभी न क्षमा होने वाला पाप” कहा गया है (मत्ती 12:31; मरकुस 3:29; लूका 12:10)। किन्तु वर्तमान में यह भी एक तथ्य है कि प्रभु की इस बात को लेकर मसीही विश्वासियों, मसीही या ईसाई समाज के लोगों में बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ भी हैं, जिसके कारण प्रभु की इस बात का दुरुपयोग भी किया जाता है। यह निंदनीय है कि बहुत से प्रचारक तथा शिक्षक, विशेषकर वे लोग जो पवित्र आत्मा के संबंध में गलत शिक्षाएं सिखाते और फैलाते हैं, वचन की बातों को अनुचित रीति से, संदर्भ से बाहर, और तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने प्रस्तुत करके, इस बात का दुरुपयोग लोगों के मनों में अनुचित भय जागृत करने के लिए करते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं जिससे कोई उनसे, उनके कार्यों और शिक्षाओं के लिए प्रश्न न कर सके। ऐसा करके ये लोग, प्रश्न करने वालों पर “पवित्र आत्मा का निरादर/निन्दा” करने का भय एवं आरोप लगाने के द्वारा, उन गलत शिक्षकों की बहुत सी सैद्धांतिक एवं विश्वास संबंधी गलत शिक्षाओं के विषय, तथा उन लोगों के जीवनों में पाए जाने वाले अनुचित व्यवहार के प्रति उन से प्रश्न करने वाले लोगों के मुंह बंद करते हैं।
यह समझने के लिए कि यह “निरादर” या “निन्दा” वास्तव में है क्या, और यह क्यों परमेश्वर पिता तथा प्रभु यीशु के विरुद्ध नहीं, केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा ही के विरुद्ध ही क्षमा नहीं हो सकता है, हमें परमेश्वर के वचन में से कुछ तथ्यों एवं शिक्षाओं को देखना होगा।
इसे केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा के विरुद्ध पाप ही क्यों कहा गया है?
परमेश्वर का वचन बाइबल हमारे प्रभु परमेश्वर को त्रिएक परमेश्वर दिखाती है, परमेश्वर पिता, परमेश्वर पुत्र – प्रभु यीशु मसीह, और परमेश्वर पवित्र आत्मा की पवित्र त्रिएकता। ये तीनों हर प्रकार से और हर बात में पूर्णतः एक और समान हैं, इन तीनों में कोई भी, किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है – पवित्र त्रिएक परमेश्वर – एक परमेश्वर तीन पवित्र व्यक्तित्वों में। तो जबकि तीनों हर रीति से समान और बराबर हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि केवल “पवित्र आत्मा के निरादर” के लिए ही इतने कठोर परिणाम दिए गए हैं; जबकि ऐसे ही दुष्परिणामों का न तो कोई संकेत और न ही कोई दावा परमेश्वर पिता, या परमेश्वर पुत्र – प्रभु यीशु के विरुद्ध किए गए निरादर के लिए कहा गया है; जबकि तीनों ही परमेश्वर के समान स्वरूप हैं?
इसे समझने के लिए त्रिएक परमेश्वर के तीन व्यक्तित्वों के संबंध में कुछ बारीकियों को देखना होगा। परमेश्वर पुत्र – प्रभु यीशु मसीह, जब पृथ्वी पर हमारे उद्धारकर्ता बन कर आए, तो वे अपनी स्वर्गीय महिमा, वैभव, स्वरूप, और स्थान को छोड़कर आए थे। बाइबल बताती है कि मानव स्वरूप में उन्होंने अपने आप को स्वर्गीय महिमा से शून्य कर लिया और वे स्वर्गदूतों से थोड़ा कम किए गए थे (फिलिप्पियों 2:5-8; इब्रानियों 2:9)। इस मानवीय स्वरूप में, वे संसार के पाप उठाने और संसार के छुटकारे के लिए बलिदान होने के लिए आए थे। इसके लिए उनका, तुच्छ समझा जाना, उनके विरुद्ध बोला जाना, उनका दुःख और ताड़ना सहना, और संसार के लोगों से तिरस्कृत एवं निरादर होना, पूर्व-निर्धारित था (यशायाह 53)। उन्हें भी वही सब अनुभव करना और सहना था जिसमें होकर संसार के लोग निकलते हैं; उन्हें किसी भी अन्य मनुष्य के समान जीवन जीना था (इब्रानियों 4:15; 5:7-8), इन सब बातों में भी निष्पाप बने रहना था, और अंततः क्रूस की श्रापित मृत्यु सहन करनी थी। उनके इस मानवीय स्वरूप और अस्तित्व के सन्दर्भ में, मृत्यु सहने के लिए स्वर्गदूतों से कुछ कम किए जाने से, पृथ्वी पर उनका यह शारीरिक या मानवीय स्वरूप उनके त्रिएक परमेश्वरीय स्वरूप से कुछ “कम” था। इसलिए उनके मानवीय स्वरूप की निंदा या निरादर का दोष, जिसे उन्हें सहना ही था, परमेश्वर पवित्र आत्मा के निरादर से कुछ कम और भिन्न होता। क्योंकि हमारे प्रभु को हमारे उद्धार का मार्ग प्रदान करने की अपनी सेवकाई के दौरान अपमान और तिरस्कार सहना निर्धारित किया गया था, इसलिए उनके (अर्थात उनके शारीरिक/मानव स्वरूप के) विरुद्ध कही गई, या कही जाने वाली निंदनीय बातों को क्षमा न हो सकने वाला पाप कहना उनके पृथ्वी पर आने के उद्देश्य को ही विफल कर देता, और संसार को छुटकारे के स्थान पर नाश में भेज देता। इसलिए परमेश्वर पुत्र की निंदा को क्षमा न हो सकने वाला पाप नहीं कहा जा सकता था।
परमेश्वर पिता के संदर्भ में, ध्यान करें कि शब्द “परमेश्वर” और “पिता” सभी संस्कृतियों और धर्मों में सामान्यतः प्रयोग किए जाने वाले शब्द हैं, जिन्हें नास्तिक और धर्म को न मानने वाले भी प्रयोग करते रहते हैं; बहुधा सौगंध खाने और अपशब्दों के साथ भी, जैसे कि, “अरे मेरे परमेश्वर/या ख़ुदा” “परमेश्वर नाश करे,” “परमेश्वर के श्रापित,” “परमेश्वर की सौगंध” आदि। संसार के किसी भी व्यक्ति द्वारा इन अपमानजनक या निंदनीय शब्दों का प्रयोग करने का यह अर्थ नहीं है कि वह इन्हें मसीही विश्वास के पवित्र त्रिएक परमेश्वरत्व में से पिता परमेश्वर के लिए ही प्रयोग कर रहा है। इसी प्रकार से शब्द “पिता” भी संसार भर में अनेकों अभिप्रायों के साथ प्रयोग किया जाता है, और इसे भी बहुधा अपशब्दों और सौगंध लेने में भी प्रयोग किया जाता है। इसलिए शब्द “पिता” तथा शब्द “परमेश्वर” का, जिन्हें किसी भी मत अथवा धर्म में किसी भी आदरणीय अथवा आराध्य के लिए प्रयोग किया जा सकता है - और यह भी बाइबल के विरुद्ध है, किसी भी प्रकार से दुरुपयोग करना, यदि उसे यहोवा परमेश्वर के निरादर की परिभाषा से पृथक नहीं रखा जाता, तो स्वतः ही शब्दों का इस प्रकार से प्रयोग करने वाला व्यक्ति, तुरंत ही सदा काल के लिए दोषी ठहराया जाता, और उसके पास फिर कभी उद्धार पाने का कोई अवसर नहीं रहता। इसलिए ये दोनों शब्द “पिता” एवं “परमेश्वर” के दुरुपयोग को भी कभी क्षमा न हो सकने वाले पापों में सम्मिलित नहीं किए जा सकता था।
अब पवित्र त्रिएक परमेश्वरत्व में केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा ही शेष रहा। यहां पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बात यह है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा का विचार केवल मसीही और यहूदी धर्म की विचारधारा में ही पाया जाता है; संसार के अन्य किसी भी धर्म या विश्वास में यह विद्यमान नहीं है। क्योंकि पवित्र आत्मा के बारे में पुराने नियम के समय में भी लोगों को भली-भांति पता था (उदाहरण के लिए, उत्पत्ति 1:2; भजन 104:30; 139:7 आदि) – जो कि वह पवित्र शास्त्र है जिसे फरीसी, सदूकी, और शास्त्री पढ़ा करते थे, तथा लोगों को सिखाते भी थे, इसलिए वे फरीसी, सदूकी, और शास्त्री किसी भी प्रकार से परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय अनभिज्ञ होने का दावा नहीं कर सकते थे, और न ही पवित्र आत्मा के त्रिएक परमेश्वर का अभिन्न एवं समतुल्य भाग होने से अपने आप को अनजान होने को कह सकते थे।
इसलिए, परमेश्वर पिता तथा परमेश्वर पुत्र के विषय में उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए, मूलतः, परमेश्वर पवित्र आत्मा के विरुद्ध कही गई निरादर की कोई बात ही वास्तविकता में एकमात्र सच्चे परमेश्वर की निंदा मानी जा सकती है।
पवित्र परमेश्वर के विरुद्ध बात करना वही पाप है जिसके कारण प्रधान-स्वर्गदूत लूसिफर गिराया गया (यशायाह 14:12-14; यहेजकेल 28:12-15), और शैतान बन गया – सदा काल के लिए परमेश्वर और उससे संबंधित किसी भी बात का विरोधी। लूसिफर ने परमेश्वर की महिमा और महानता के विरुद्ध बलवा किया और बातें कीं। लूसिफर ने परमेश्वर को उसके समस्त महिमा, वैभव, महानता, अधिकार और सामर्थ्य में भली-भाँति जानने के बावजूद; परमेश्वर के विषय सारी जानकारी रखते हुए भी जानबूझकर किया गया उसका यह विद्रोह लूसिफर के लिए क्षमा न होने वाला पाप बन गया, और उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया। वह शैतान बन गया, तथा उसे और उसके अनुयायियों को अनन्तकाल तक दण्ड भोगने के लिए ठहरा दिया गया (मत्ती 25:41, 46)।
अगले लेख में हम देखेंगे कि लूसिफर का पाप क्यों क्षमा नहीं हो सकता था; और यह भी समझेंगे कि वचन के अनुसार निन्दा (blasphemy) शब्द का वास्तव में क्या अर्थ और अभिप्राय होता है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित इन गलत शिक्षाओं में न पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहेजकेल 5-7
इब्रानियों 12
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Understanding The Sin of Blasphemy Against the Holy Spirit
We have been seeing in the previous articles that one of the ways the childlike, immature Christian Believers can be identified is that they can very easily be deceived, beguiled and misled by wrong doctrines and false teachings. Satan and his followers bring in their wrong doctrines and misinterpretations of God’s Word through people who masquerade as apostles, ministers of righteousness, and angels of light (2 Corinthians 11:13-15). These deceptive people and their false messages, their teachings appear to be very attractive, interesting, knowledgeable, even very reverential and righteous; but there is always something or the other that is extra-Biblical or unBiblical mixed into them. These wrong teachings and false doctrines are mainly about three topics, as God the Holy Spirit got it written down through the Apostle Paul in 2 Corinthians 11:4 “For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!” - the Lord Jesus Christ, the Holy Spirit, and the Gospel. In this verse a very important way to identify the false and the correct, discern between them, and escape from being beguiled by Satan is also given - that which is the truth about these three topics has already been given and written in God’s Word. Therefore, by cross-checking every teaching and doctrine from the Bible, the true and the false can be discerned; that which is not already present in God’s Word is false, and their preacher is a preacher of satanic deceptions.
In the previous articles, after seeing some commonly preached and taught false things about the Lord Jesus, we had started to look into the wrong things often taught and preached about the Holy Spirit. About the Holy Spirit, we have seen that every truly Born-Again Christian Believer automatically receives the Holy Spirit from God, at the very moment of his being saved. From that moment onwards, the Holy Spirit comes to reside in him in all His fullness, stays with him forever, never leaves him; and Biblically this is also known as being filled by the Holy Spirit or the baptism with the Holy Spirit. Another very popular and emphatically stated wrong teaching of these preachers and teachers of deceptions is about “speaking in tongues”, their claim that the “tongues’ are super-natural languages, and some other related wrong teachings. Regarding this we have seen that these are also wrong teachings which have no support or affirmation from the Bible. The speaking in “tongues” in Acts 2 were the known and understood languages of the earth and not any super-natural languages. We also seen that quite unlike their claims, “tongues” are not any “prayer language”, and neither is speaking in tongues is proof of receiving the Holy Spirit - the Bible does not offer any affirmation or support to any of these. Rather, the Bible very clearly shows that their emphatic claims about these are patently false and unBiblical. They are nothing more than their concocted notions made up through misuse and misinterpretation of Biblical facts.
To cover up their concocted notions made up through misuse and misinterpretation of Biblical facts, and to prevent people from analyzing their claims and raising questions, they use fear as a tactic. If anyone tries to examine their false notions, they discourage him from doing so by telling them that they are committing the unpardonable sin of the blasphemy of the Holy Spirit, and should back-off, stop doing this, simply accept what has been said, else they will face very serious consequences from God. From today, we will start looking into the veracity of these claims made by them.
What is the Sin of Blasphemy against the Holy Spirit; and why has it been called the unforgiveable sin?
We will start considering “Blasphemy Against the Holy Spirit - the Unpardonable Sin”, another very wrong and deceptive teaching frequently misused by these purveyors of wrong doctrines and false teachings, to avoid facing questions and criticism. We will look into it in some detail, and in three parts.
There is no doubt, whatsoever, that blasphemy of the Holy Spirit has been called the unforgiveable sin, by the Lord Jesus Himself (Matthew 12:31; Mark 3:29; Luke 12:10); therefore, it cannot be denied or ignored in any manner. But this too is equally true, that at present, in Christendom, there are many misconceptions and misunderstandings about what the Lord Jesus has said; and the Lord’s statement is often misinterpreted and misused to preach and teach what that statement was never intended for. It is very deplorable that many preachers and teachers, especially those who preach and teach wrong things about the Holy Spirit, take the things of God’s Word, out of their context, then misinterpret and twist them to make them seem like God’s Word is supporting a particular notion, then use it to create a false and unjustified fear in the hearts of the people. They do this to avoid being evaluated and questioned not only about their questionable doctrines and teachings, but even about their own lives, life-styles, and “ministry” that they carry out. By invoking “Blasphemy Against the Holy Spirit - the Unpardonable Sin”, against anyone who dares to question them, they try to cover up their wrongs.
Let us start understanding what this “blasphemy” actually is, and why it has been said to be “unforgivable” only against God the Holy Spirit, and not against God the Father, or the Lord Jesus, from some pertinent facts and teachings of the Word of God.
Why has it been called “unforgivable” only against God the Holy Spirit?
God’s Word the Bible shows that the Lord our God is a Triune God, a Holy Trinity of God the Father, God the Son - the Lord Jesus, and God the Holy Spirit. These three are one in everything and in every manner, none of them is different or lesser from another in any way - Holy Triune God - One God as three divine personalities. Therefore, if all three of them are equal and similar in all respects and for everything, then why is it that only the blasphemy against the Holy Spirit has such serious consequences; while no such admonition has ever been stated or even indicated against God the Father and God the Son - the Lord Jesus?
To understand this, we will have to look into and understand the finer points about the mutual relationship of these three personalities of the Triune God. When God the Son - the Lord Jesus, came to this earth as our saviour, He left His glory, majesty, divine form, and position in heaven. The Bible tells us that in His human form He emptied Himself of His divine form and was made slightly lower than the angels (Philippians 2:5-8; Hebrews 2:9). He had come down in this human form, to take upon Himself the sins of the whole world and sacrifice Himself for deliverance from them. To accomplish this, it was fore-ordained that He will be despised and rejected, will be spoken against and ridiculed, will have to suffer pain and persecution, and will be dishonored and humiliated by the people of the world (Isaiah 53). Lord Jesus had to live a life like any other person of the earth, had to live, suffer and experience like humans (Hebrews 4:15; 5:7-8) remain sinless through it all, and finally endure the cursed death on the cross. In context of His human form and existence, in His being made a little lower than the angels to suffer death, in His physical form on earth He was somewhat “lesser” than His form as one of the Triune God. Therefore, His being insulted, despised, rejected, and humiliated, blasphemed against in His human form, all of which was fore-ordained for Him to suffer anyways, was in a way different than the same being done against the other members of the Holy Trinity. Moreover, since He had to pass through all of these derogatory experiences in His earthly form at the hands of mankind to prepare the way of salvation for all of mankind, therefore if anything spoken against Him were to be called “an unforgiveable sin”, then it would defeat the very purpose of His coming to earth, and instead would have condemned mankind into eternal destruction, with no remedy for their sins. Therefore, the blasphemy against God the Son could not be called “an unforgiveable sin.”
In context of God the Father, take note that the words “God” and “father” are found and used in all civilizations, religions, and beliefs. Even the atheists and irreligious people use them; and often people use these two words without keeping in mind or realizing their meaning, as ‘swear words’ or in an insulting and derogatory sense, as “Oh! My God”; “God condemn/destroy you”; “Curse you in God’s name”; “God’s promise”; and even in abuses and invectives. The use of these two words “God” and “father” in this derogatory manner by anyone in the world does not necessarily mean that he is saying that derogatory thing against God the Father of the Bible, i.e., against the holy personality of the Holy Trinity of the Christian Faith. Similarly, the word “father” can be used with many different implications and senses, often to swear or in abusive language. The words “God” and “father”, have been used in every culture, civilization, belief, religion of the world in an honorable and reverential manner, and at times for worshipping and even for elevating a person to the status of deity and for according him a divine honor, which is again unBiblical. Hence any misuse and misapplication of these words, “God” and “father”, if they had not been kept out of the purview of this blasphemy of the Lord God Jehovah, then all those who would ever have done this would have become guilty and worthy of eternal condemnation, and would never have had any chance of being saved from their sins. Therefore, these two words, “God” and “father” too, could not have been included in the scope of the “unforgiveable sin of blasphemy.”
This leaves only God the Holy Spirit from the Holy Trinity. A very important thing to keep in mind over here is the fact that the concept of “God the Holy Spirit” is unique only to the Judeo-Christian religious thinking and beliefs; it is not seen in any other culture, belief, or religion of the world. Since even the people of the Old Testament knew about the Holy Spirit (e.g., Genesis 1:2; Psalms 104:30; 139:7, etc.), and the Pharisees, Sadducees, and the Scribes used to study, teach and preach the Old Testament, therefore there is no way in which they could say that they did not know about the Holy Spirit; nor could they claim that they were unaware of the Holy Spirit being a part of the Holy Trinity of God.
Therefore, keeping the above-mentioned things in mind about God the Father and God the Son, essentially, it is only something derogatory stated against the Holy Spirit that could have been considered as blasphemy against the one and only true and living Holy God.
To speak against the holy God is the same sin that the archangel Lucifer committed and was cast out of heaven (Isaiah 14:12-14; Ezekiel 28:12-15), and became Satan - forever and ever the opponent of God and everything related to God. Lucifer rebelled and spoke against the glory and majesty of God. Lucifer had seen God in all His glory, majesty, sovereignty, and power; he well knew who God was, but still rebelled against Him, spoke against Him, wanted to rise over and above God. Being well aware of the truth, and still willfully and knowingly rebelling against God became the unforgiveable sin for Lucifer and he was cast out of heaven along with his angels. He became Satan, and he along with his followers was condemned to eternal hell (Matthew 25:41, 46).
In the next article we will see why Lucifer’s sin could not be forgiven, and will also understand what the word ‘blasphemy’ means according to the Word of God.
If you are a Christian Believer, then it is very essential for you to know and learn that you do not get beguiled and misled into wrong teachings and doctrines about the Holy Spirit; neither should you get deceived, nor should anyone else be deceived through you. Take note of the things written in God’s Word, not on things spoken by the people; always cross-check and verify all messages and teachings from the Word of God. If you have already been entangled in wrong teachings, then by cross-checking and verifying them from the Word of God, hold to only that which is the truth, follow it, and reject the rest.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Ezekiel 5-7
Hebrews 12