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जाति लाभ और मसीही विश्वास
एक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, अर्थात, उद्धार पाया हुआ व्यक्ति होने का अर्थ है कि व्यक्ति ने अपने पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु मसीह को अपना निज उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उसे अपना जीवन समर्पित कर दिया है, और अब से प्रभु यीशु ही उसके जीवन का प्रभु एवँ स्वामी है, और वह व्यक्ति प्रभु यीशु को समर्पित एवँ उसका आज्ञाकारी है (लूका 6:46)। उद्धार पा लेने पर, स्वतः ही व्यक्ति के साथ कुछ बातें जुड़ जाती हैं, और कुछ जिम्मेदारियां आ जाती हैं। उद्धार पा लेने पर व्यक्ति परमेश्वर के परिवार का सदस्य बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13; इफिसियों 2:19), वह एक पूर्णतः नई सृष्टि हो जाता है (2 कुरिन्थियों 5:17), वह सँसार के अनुसार नहीं वरन परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने वाला हो जाता है (रोमियों 12:1-2)। उद्धार पाए हुए व्यक्ति का दृष्टिकोण स्वर्गीय होना चाहिए (कुलुसियों 3:1-2), और उसे सँसार की बातों में उलझने या फँसने से बचकर रहना चाहिए (1 यूहन्ना 2:15-17; 1 पतरस 2:11-12)। सच्चे जीवित परमेश्वर के विषय जान एवँ सीख लेने के पश्चात, परमेश्वर की सेवकाई के लिए, यहोशू के रवैये का पालन करना ही सर्वोत्तम होता है (यहोशू 24:14-15)।
उद्धार पाया हुआ व्यक्ति अब प्रभु यीशु का जन है और उसके जीवन का उद्देश्य अब से अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु के लिए जीवन जीना तथा अपने जीवन की सब बातों में तथा सब बातों के द्वारा अपने उद्धारकर्ता प्रभु को महिमा देना होना चाहिए (1 कोरिन्थियों 6:19-20; 2 कोरिन्थियों 5:15)। क्योंकि अब, उद्धार पा लेने के बाद से, वह परमेश्वर के परिवार का सदस्य हो गया है, इसलिए वह अपने स्वर्गीय पिता परमेश्वर की ज़िम्मेदारी भी है; और परमेश्वर ने उसकी प्रत्येक आवश्यकता को पूरा करने (मत्ती 6:24-34; फिलिप्पीयों 4:19), उसे कभी न छोड़ने या त्यागने (इब्रानियों 13:5-6), और उसे सभी परीक्षाओं में सुरक्षित रखने (1 कुरिन्थियों 10:13) की प्रतिज्ञा दी है। इसलिए अपनी किसी भी आवश्यकता के लिए, किसी भी सांसारिक लाभ या उपलब्धि के लिए, उसके लिए पिता परमेश्वर को छोड़ किसी अन्य की ओर देखना या किसी अन्य पर भरोसा करना पिता परमेश्वर की अपने बच्चों के प्रति प्रतिज्ञाओं और विश्वासयोग्यताओं को नगण्य समझना, उसका अनादर करना, उसमें और उसकी प्रतिज्ञाओं में उचित विश्वास नहीं रखना, तथा शैतान एवँ सँसार को परमेश्वर और उसके लोगों तथा उनके विश्वास का उपहास एवँ अपमान करने का अवसर प्रदान करना है।
मसीही विश्वास में कोई जातिवाद अथवा जातिभेद का स्थान अथवा मान्यता नहीं है। पिता परमेश्वर के सामने सभी मसीही विश्वासी एक समान हैं (कुलुसियों 3:11), कोई भी किसी अन्य से बड़ा या छोटा नहीं है। इसलिए अपने आप को किसी अन्य व्यक्ति से नीचा या ऊँचा समझना या बनाना, (अपने आप को किसी सांसारिक उद्धार नहीं पाए हुए व्यक्ति के स्थान पर रखने या समान देखने के द्वारा, और वह भी थोड़ी सी नाश्मान सांसारिक वस्तुओं के लिए, जिनकी प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभु यीशु के अतिरिक्त किसी अन्य को सीधे अथवा अप्रत्यक्ष रीति से ईश्वरीय स्तर प्रदान या स्वीकार करना होगा, अपने आप को उस पर विश्वास करने वाले सांसारिक लोगों के समान दिखाने के द्वारा), परमेश्वर के अचूक, अपरिवर्तनीय, सनातन वचन की शिक्षाओं के विरुध्द जाना है; और उसका अपमान करना है – और परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता है; परमेश्वर के विरुद्ध किए गए ऐसे निन्दनीय, तथा उसका इन्कार करने के तुल्य कुकृत्यों के गंभीर परिणाम होते हैं (गलतियों 6:7-8; यहोशू 23:16)।
इसलिए अपने मसीही विश्वास को छिपाने के ढोंग के स्थान पर उसे प्रगट करके रखना ही उचित होता है, चाहे उसके परिणाम जो भी हों (मत्ती 10:16-18, 22; 24:9; मरकुस 13:9)। जो लोग मसीही विश्वास में आने के बाद भी जाति के आधार पर, किसी भी प्रकार से, सांसारिक लाभों को लेने का प्रश्न को उठाते हैं, उन्हें भय होता है कि यदि वे अपने मसीही विश्वास को प्रगट करेंगे तो उन्हें "पिछड़ी जाति या वर्ग" का होने के कारण मिलने वाले लाभ फिर नहीं मिलेंगे; और उन लाभों को पाने के लालच में वे अपने मसीही विश्वास को छुपाए रखते हैं। किन्तु ऐसा करने से वे ढोंगी होने तथा परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं के प्रतिकूल होने के दोषी हो जाते हैं, जो कि उनके लिए सांसारिक तथा आत्मिक दोनों ही स्तरों पर गंभीर हानि का कारण हो सकता है। विश्वास रखें कि अपने मसीही विश्वास को प्रगट करने के कारण होने वाली थोड़ी सी सांसारिक बातों की हानि से आप कभी नुकसान में नहीं रहेंगे, क्योंकि उससे कई गुना अधिक भरपाई परमेश्वर कर सकता है और करेगा (मत्ती 19:29; मरकुस 10:30; 1 कुरिन्थियों 2:9)। किन्तु मसीही विश्वास और प्रभु का इस प्रकार इन्कार, तथा उसकी और उसके विश्वासियों की निंदा एवं उपहास का कारण बनने से ऐसे व्यक्ति तथा उसके परिवार जनों की होने वाली दीर्घकालीन हानि की कल्पना और गणना कर पाना असंभव है; इसके दुष्प्रभाव उसकी तीसरी से चौथी पीढ़ी तक जाएंगे (निर्गमन 20:5-7)।
परमेश्वर की देखभाल और कृपा का आनन्द लेने का एकमात्र तरीका है परमेश्वर पर पूर्णतः विश्वास रखना (इब्रानियों 11:6; यशायाह 40:31), अपने जीवन और कार्यों के द्वारा उसे आदर देना; और2 कुरिन्थियों 6:14-18 के अनुसार अपने आप को सँसार और सांसारिकता से पृथक रखें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Christian Faith & Caste Based Benefits
To be a Born Again Christian Believer, or a saved person, is to have repented from sins and accepted the Lord Jesus as your personal savior, to have surrendered your life to Him and accepted Him as the Lord and Master of your life, to become committed and obedient to Him (Luke 6:46). On being saved some things and some responsibilities naturally come into the life of the saved person. The saved person becomes part of God's family (John 1:12-13; Ephesians 2:19), a totally new creation where old things are past and over (2 Corinthians 5:17), becomes a person who is not to live according to the world but according to the will of God (Romans 12:1-2). The saved person should have a heavenly outlook (Colossians 3:1-2), and should not get caught up or entangled in the things of this world (1 John 2:15-17; 1 Peter 2:11-12). Having learnt and known about the true and living God, it is best to keep an attitude like Joshua for serving God (Joshua 24:14-15).
The saved person now belongs to the Lord Jesus and his life's aim should be to live for his Savior Lord and glorify Him in and through all things (1 Corinthians 6:19-20; 2 Corinthians 5:15). Now, having been saved, because he is part of God's family, the saved person also is Father God's responsibility; and God has promised to provide for this person's needs always (Matthew 6:24-34; Philippians 4:19), to never leave or forsake him (Hebrews 13:5-6), and to keep him safe in all temptations (1 Corinthians 10:13). Therefore, for any needs, for any worldly gains and benefits, this person’s looking towards and relying upon anyone other than the Father God is tantamount to discounting His promises and His faithfulness towards His children, belittling Him, having an improper faith in Him and His promises, and providing Satan and the world an opportunity to mock God and His people, and their faith in Him, and to denigrate them.
In Christianity, there is no caste system and no place for any differentiation on grounds of a person’s caste. All Christians are of same status before God (Colossians 3:11), no one is higher or lower than another, therefore to consider one to be of a particular caste, and therefore to consider or make yourself to be lower or higher than another (by comparing yourself with an unsaved person of the world, and that too for mere perishable worldly things, obtained through a direct or an indirect acknowledgement and/or veneration of some other deity than the Lord God Almighty), is to go against the teachings of God's infallible, incontrovertible, eternal Word and to humiliate God. God is not mocked; such denigrating and reprehensible actions against God, that tantamount to denying God invite very serious consequences (Galatians 6:7-8; Joshua 23:16). /Therefore instead of the hypocrisy of hiding the Christian Faith, it is best to disclose it, no matter what the consequences may be (Matthew 10:16-18, 22; 24:9; Mark 13:9). Those who after having come into the Christian Faith, still want to indulge in worldly gains by any means, are afraid that by disclosing their Christian Faith they will no longer be able to have the benefits of being of a “lower caste or group” and therefore they do not disclose their Christian Faith. But by doing so, they are in serious jeopardy, from both the worldly as well as the spiritual point of view. The little that they stand to lose by declaring and adhering to their Christian faith, can be, and will be compensated many times over by the Lord (Matthew 19:29; Mark 10:30; 1 Corinthians 2:9). But the magnitude of the physical and spiritual loss that they and their family stand to suffer by so denying the Lord and becoming a cause for Him and His people being mocked and denigrated, is incalculable, unimaginable, and will go down to their 3rd to 4th generation (Exodus 20:5-7).
The only way to enjoy God's care and benefits is to have full faith in Him and to completely rely on Him (Hebrews 11:6; Isaiah 40:31), be obedient to Him and honor Him through our lives and deeds, and separate ourselves from the world (2 Corinthians 6:14-18).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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