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बुधवार, 5 जनवरी 2022

मसीह यीशु की कलीसिया या मण्डली - डांवांडोल नहीं, दृढ़ आधार पर बनाई गई


क्या पतरस मण्डली का डांवांडोल नहीं वरन दृढ़ आधार बन सकता था?

पिछले लेखों में प्रभु यीशु की मण्डली या कलीसिया के बारे में देखते आ रहे हैं। हमने देखा है कि मूल यूनानी भाषा में, प्रभु यीशु द्वारा मत्ती 16:18 में प्रयुक्त शब्द का अर्थ बुलाए गए या एकत्रित किए गए लोगों का समूह है, न कि कोई भवन अथवा संस्था। साथ ही हमने देखा है कि इस पद को लेकर यह गलत शिक्षा दी जाती है कि प्रभु ने अपनी मण्डली या कलीसिया को पतरस पर बनाने की बात कही है। हमने देखा है कि मत्ती 16:18 में प्रभु की कही गई बात की वास्तविकता को तीन बातों:

  • क्या मत्ती 16:18 में प्रभु की कलीसिया बनाने की बात पतरस के लिए थी?
  • क्या वचन में किसी अन्य स्थान पर पतरस पर कलीसिया बनाने की, उसे कलीसिया का आधार रखने की पुष्टि है?
  • क्या पतरस इस आदर और आधार के योग्य था?

के आधार पर जाँच और समझ सकते हैं। पिछले लेखों में हमने इनमें से पहली दो बातों के विश्लेषण को देखा था, और समझा था कि प्रभु यीशु ने आलंकारिक भाषा का प्रयोग तो किया, किन्तु मत्ती 16:18 में यह बात पतरस के विषय नहीं कही थी। आज हम तीसरी बात, “क्या पतरस इस आदर और आधार के योग्य था?” को देखेंगे।

प्रभु यीशु मसीह ने अपने पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5-7 अध्याय) के अंत की ओर आकार एक दृष्टांत दिया था - दो घर बनाने वालों का (मत्ती 7:24-27)। घर बनाने वाला एक व्यक्ति मूर्ख ठहरा क्योंकि उसने स्थिर और दृढ़ नींव पर घर नहीं बनाया, और वह घर परिस्थितियों का सामना नहीं कर सका, शीघ्र ही गिर गया। दूसरा घर बनाने वाला बुद्धिमान ठहरा, क्योंकि उसने घर की नींव चट्टान पर डाली थी, इसलिए उसका घर स्थिर बना रहा, सभी परिस्थितियों को झेल सका। फिर निष्कर्ष में प्रभु ने कहा है कि वह दृढ़ चट्टान जिस पर स्थिर और अडिग घर या जीवन स्थापित होता है, उसकी शिक्षाएं हैं। जो प्रभु की बातें मानता है, वह चट्टान पर बने घर के समान स्थिर और दृढ़ बना रहेगा; किन्तु जो प्रभु की बातों को सुनता तो है, परंतु उनका पालन नहीं करता है वह उस मूर्ख मनुष्य के समान होगा जिसका घर या जीवन परिस्थितियों को झेल नहीं सकेगा, स्थिर बना नहीं रहेगा। अपनी सेवकाई के आरंभ में ही यह शिक्षा देने के बाद, क्या यह संभव है कि प्रभु अपनी ही दी हुई शिक्षा से पलट कर, अपनी विश्व-व्यापी कलीसिया को किसी अस्थिर, डांवांडोल रहने वाले मनुष्य पर स्थापित करेगा? साथ ही ध्यान करें, मत्ती 28:18-20 में - जो स्वर्गारोहण से पहले प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई उनकी सेवकाई के विषय महान आज्ञा है, प्रभु ने शिष्यों से जाकर लोगों को उसका शिष्य बनाने, और जो शिष्य बन जाएं उन्हें उसकी सिखाई हुई बातों को सिखाने का निर्देश दिया है। वहाँ प्रभु ने यह नहीं कहा कि जैसा पतरस बताए या सिखाए, वही करना, वैसा ही सिखाना। एक बार फिर प्रभु ने स्वयं इस बात को दिखा दिया कि उसकी कलीसिया पतरस की बातों पर नहीं, प्रभु की शिक्षाओं पर स्थापित होगी; जैसा हम पिछले लेख में विस्तार से देख चुके हैं।

आज हम वचन में दी गई बातों के आधार पर देखेंगे कि क्या पतरस कलीसिया या मण्डली के लिए अत्यावश्यक यह स्थिर, दृढ़, और अडिग आधार हो सकता था? क्या विभिन्न परिस्थितियों और अवसरों पर, वचन में दिया गया पतरस का व्यवहार, इस बात की पुष्टि करता है कि वह डांवांडोल नहीं, वरन प्रभु की शिक्षाओं और निर्देशों पर सदा स्थिर और अडिग रहने वाला व्यक्ति था? इस विश्लेषण के लिए हम प्रभु के पुनरुत्थान से पहले की बातों को नहीं देखेंगे; क्योंकि यह प्रकट है कि प्रभु के मारे जाने, गाड़े जाने, और मृतकों में से जी उठने और शिष्यों को दर्शन देने के बाद, प्रभु के उनसे मिलते रहने और उन्हें सेवकाई के लिए तैयार करने के द्वारा शिष्यों तथा पतरस में बहुत परिवर्तन आया था। किन्तु इस परिवर्तन के बावजूद, क्या पतरस प्रभु में अपने विश्वास और मण्डली में अपने मसीही व्यवहार में ऐसा स्थिर, दृढ़, और स्थापित हो गया था कि उसे कलीसिया का आधार बनाया जा सके?

प्रभु के पुनरुत्थान और स्वर्गारोहण के बाद की बातों को देखने से हमें पतरस के व्यवहार में कुछ खामियाँ दिखाई देती हैं, जो उसे अस्थिर और डांवांडोल तथा उस पर कलीसिया के स्थापित किए जाने के लिए अनुपयुक्त प्रकट करती हैं। ये बातें हैं:

  • पतरस उतावली से कार्य कर देता था, अधीर था; जिससे उसके साथ रहने वाले भी उसकी बातों में आकर बहक जाते थे। इसके दो उदाहरण हैं, पहला, यूहन्ना 21:2-3 पद में, जब वह वापस अपने पुराने काम, मछली पकड़ने की ओर लौट गया, और उसके साथ छः और लोग भी चले गए, किन्तु सभी असफल रहे। दूसरा, प्रेरितों 1:15-26 में, बिना प्रभु की आज्ञा के, या प्रभु से पूछे, उसने यह निर्णय लिया कि यहूदा इस्करियोती के स्थान पर किसी और को नियुक्त किया जाए; और सभी लोग उसकी बातों में भी आ गए, यह कर दिया। किन्तु ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति को वचन में कोई स्वीकृति मिली हो। बारहवें प्रेरित का यह पद बाद में प्रभु ने पौलुस को दिया। यह विश्लेषण एक पृथक विषय है, जिसे हम यहाँ पर नहीं देख पाएंगे। 
  • पतरस का ध्यान, कम से कम उस आरंभिक समय में, प्रभु द्वारा दिए जा रहे निर्देशों पर कम, औरों के साथ अपनी तुलना करने में अधिक रहता था; जो आरंभिक कलीसिया के लिए अत्यावश्यक स्थिरता और निष्पक्षता के व्यवहार के अनुरूप नहीं था। इसका उदाहरण भी हम यूहन्ना 21:18-22 में देखते हैं; प्रभु पतरस को उसकी आने वाली सेवकाई और जिम्मेदारियों के विषय सिखाना चाह रहा है, और पतरस का ध्यान प्रभु की बात पर नहीं वरन अपने साथी यूहन्ना के भविष्य पर लगा है। जिसके विषय फिर प्रभु को उसे एक डाँट लगानी पड़ती है (पद 22) 
  • पतरस अभी स्वर्गीय दर्शनों को समझने और उनके अनुसार कार्य करने के लिए अपरिपक्व था। प्रेरितों 10:10-16 में प्रभु उसे दर्शन के द्वारा संसार के सभी लोगों के पास जाकर सुसमाचार प्रचार करने की बात दिखा और बता रहा है, और वह उसे केवल अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार समझ कर प्रभु की बात को मानने से इनकार कर रहा है। और प्रेरितों 10:17 में लिखा है कि जब कुरनेलियुस के घर से लोग उसके पास पहुँचे, तब वह असमंजस में ही पड़ा हुआ था। यदि उसकी आत्मिक परिपक्वता उचित स्तर की होती तो समझ जाता कि जो दर्शन उसने देखा और जहाँ जाने के लिए प्रभु ने बुलावा भेजा है, वे एक ही बात हैं, जिसके लिए प्रभु उसे उस दर्शन के द्वारा आगाह कर रहा था (प्रेरितों 10:19-20)
  • पतरस में प्रभु की विश्वव्यापी कलीसिया की स्थापना की समझ नहीं थी; इसी अपरिपक्वता और दर्शनों की नासमझी के कारण, वह यह नहीं समझ सका था कि प्रभु अन्यजातियों से भी उतना ही प्रेम करता है जितना यहूदियों से, जैसा उसने प्रेरितों 1:8 में शिष्यों तथा पतरस से सामरिया और संसार के छोर तक जाकर प्रचार करने के दायित्व देने के द्वारा प्रकट किया था। वह कुरनेलियुस के घर जाकर अपनी इसी अपरिपक्वता और नासमझी को प्रकट करता है (प्रेरितों 10:28-29)। जो व्यक्ति प्रभु के सुसमाचार के विश्वव्यापी उद्देश्य को नहीं समझता था, वह प्रभु की विश्वव्यापी कलीसिया के दर्शन को क्या जानेगा, और उसका आधार कैसे होगा?
  • पतरस लोगों को दिखाने के लिए अपने मसीही व्यवहार को बदलने और कपट करने वाला व्यक्ति था, और उसके इस व्यवहार के कारण उसके साथ रहने वाले और भी लोग बहक जाते थे। गलातियों 2:11-21 में, घटना लिखी गई है जब पतरस ने पौलुस के मसीही हो जाने के चौदह वर्षों (गलातियों 2:1) से भी अधिक के बाद, अर्थात लगभग दो दशकों तक कलीसिया में कार्य करते रहने के बाद भी, लोगों को दिखाने के लिए अपने आप को यहूदियों को स्वीकार्य दिखाने का प्रयास किया था, और उसके साथ बरनबास जैसे लोग भी इस बात में गिर गए। यह इतनी गंभीर गलती थी, कि पतरस के इस व्यवहार और उसकी भर्त्सना के लिए पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा इस व्यवहार और उससे संबंधित बातों के लिएकपट” (पद 13 ), “सुसमाचार की सच्चाई पर सीधी चाल नहीं चलना” (पद 14), “विश्वास की नहीं वरन कर्मों की धार्मिकता को दिखाने वाला” (पद 16), “पापी” (पद 17), “अपराधी” (पद 18), “परमेश्वर के अनुग्रह को व्यर्थ ठहराने वाला” (पद 21) जैसे कठोर और कटु शब्दों का प्रयोग किया, और इस घटना को तथा उससे संबंधित भर्त्सना के उन शब्दों को अनन्तकाल के लिए अपने वचन में लिखवा भी दिया, जिससे आज हम पतरस के समान ही मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए परमेश्वर की शिक्षाओं से विमुख होने की इस गलती में न पड़ जाएं।

अब विचार कीजिए, क्या प्रभु जो आदि से लेकर अन्त तक की हर बात को जानता है, जिससे कोई बात छुपी नहीं है, जिसके लिए भविष्य भी वर्तमान के समान ही है, क्या वह ऐसे अस्थिर और डांवांडोल व्यवहार और प्रवृत्ति रखने वाले मनुष्य पर कलीसिया स्थापित करेगा? वह भी अपनी स्वयं की शिक्षा (मत्ती 7:24-27) के विरुद्ध?

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता एवं अधीनता में वचन की सच्चाइयों को उससे समझें। किसी के भी द्वारा कही गई कोई भी बात को तुरंत ही पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार न करें, विशेषकर तब, जब वह बात बाइबल की अन्य बातों के साथ ठीक मेल नहीं रखती हो। सदा इस बात का ध्यान रखें कि वचन के हर शब्द, हर बात को न केवल उसके तात्कालिक संदर्भ में देखें, समझें, तथा व्याख्या करें, वरन यह भी सुनिश्चित करें कि आपकी वह समझ और व्याख्या वचन में अन्य स्थानों पर दी गई संबंधित बातों एवं शिक्षाओं के अनुरूप भी है, उनके साथ किसी प्रकार का कोई विरोधाभास नहीं है। कभी भी किसी भी गलत शिक्षा को न तो स्वीकार करें और न ही उसका प्रचार और प्रसार करें; परमेश्वर अपने वचन की सच्चाइयों की अवहेलना करने वालों को फिर उन्हीं की मनसा के अनुसार भयानक भ्रम और विनाश में डाल देता है (यहेजकेल 14:7-8; 2 थिस्सलुनीकियों 2:10-12) 

 यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 13-15     
  • मत्ती 5:1-26