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वरदानों और सेवकाई में स्तर?
जैसा कि 1 कुरिन्थियों 12:1 से स्पष्ट है, पौलुस प्रेरित में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा की यह हार्दिक इच्छा है कि मसीही विश्वासी उसे दिए गए आत्मिक वरदानों के विषय ज्ञान और समझ रखें। फिर 4 से 6 पद में पौलुस लिखता है कि वरदान, सेवा, और प्रभावशाली कार्य कई प्रकार के हैं, किन्तु इनके पीछे, इनमें होकर कार्य करने वाला आत्मा, प्रभु, और परमेश्वर एक ही है। अभिप्राय यह, कि न तो किसी का कार्य, न उसकी सेवा, और न उस सेवकाई का प्रकट प्रभाव, परमेश्वर की दृष्टि में छोटा अथवा बड़ा, या महत्वपूर्ण अथवा गौण है। जिसके लिए परमेश्वर ने जो और जैसा निर्धारित किया है, वही उसके लिए सही, सबसे उपयुक्त, और सबसे महत्वपूर्ण है; चाहे मनुष्यों की दृष्टि एवं आँकलन में वह कैसा भी हो - परमेश्वर उसे अपने मापदंड और आँकलन के अनुसार देखेगा और प्रतिफल देगा; मनुष्यों की बातों के अनुसार नहीं। परमेश्वर की दृष्टि में उसकी सभी सन्तान समान महत्व की हैं, वह सभी से समान प्रेम करता है, और उसने जिसे जैसा और जिस उद्देश्य से सृजा है, उसे के अनुसार उसे सामर्थ्य, समझ, और वरदान भी दिए हैं। चाहे उसे सौंपा गया कार्य छोटा या काम महत्व का ही प्रतीत हो, किन्तु उस विश्वासी के द्वारा परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित कार्य को सही तरह से करना, किसी अन्य के द्वारा किए गए अद्भुत आश्चर्यकर्मों या सामर्थी प्रचार से किसी भी रीति से कदापि कम नहीं है।
इसे समझने के लिए बाइबल से कुछ उदाहरणों को देखते हैं:
प्रेरितों 9:36-43 में तबीता, जिसे दोरकास भी कहा गया है, के बारे में, और पतरस द्वारा उसे मृतकों में से जिलाए जाने के बारे में लिखा है। तबीता मसीही विश्वासी थी; वह कोई प्रचार नहीं करती थी, उसने कोई आश्चर्यकर्म नहीं किए, किसी को कभी चंगा नहीं किया। उसकी बहुत साधारण सी सेवकाई और जीवन थे; वह भले काम और दान करती थी (प्रेरितों 9:36), जो सामान्यतः सभी विश्वासी करते हैं; तथा, औरों को कपड़े बनाकर देती थी (प्रेरितों 9:39)। किन्तु उसके इस साधारण से काम और सेवकाई ने उसे लोगों में इतना प्रिय बना दिया था, कि उसकी मृत्यु होने पर लोगों ने तुरंत पतरस को बुलावा भेजा, पतरस ने उसके कार्य और सेवकाई के बारे में सुनकर प्रार्थना की, परमेश्वर ने लोगों की दोहाई और पतरस की प्रार्थना के उत्तर में तबीता को पुनर्जीवित कर दिया, और यह आश्चर्यकर्म बहुतेरों को प्रभु के पास ले आने का कारण बन गया (प्रेरितों 9:40-42)। कहने को भले काम करना, दान देना, और कपड़े बना कर देना कोई विशेष काम नहीं हैं; किन्तु जिस तरह से तबीता ने उन्हें किया, उसने उसके आस-पास के लोगों को बहुत प्रभावित किया; इतना प्रभावित किया कि परमेश्वर ने उसे फिर से उनके मध्य में भेज दिया। क्या कोई उसकी सेवकाई और उसके वरदान को छोटा या महत्वहीन कह सकता है?
मत्ती 25:14-30 में प्रभु यीशु मसीह द्वारा कहा गया परदेश जाते समय एक मनुष्य द्वारा अपने दासों को दिए गए तोड़ों का दृष्टांत है। उस मनुष्य ने एक दास को पाँच, एक को दो और एक को एक ही तोड़ा दिया; और वापस लौटने पर तीनों से समान ही हिसाब लिया। इस पूरे दृष्टांत में कहीं यह संकेत अथवा बात नहीं दी गई है कि उस स्वामी की दृष्टि में उन दासों या उसके द्वारा उनका आँकलन करने या उन्हें परखने में दासों के स्तरों में कोई भिन्नता थी। यद्यपि उनकी व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार स्वामी ने हर एक को दिया (पद 15), किन्तु वे तीनों और उनका आँकलन स्वामी की दृष्टि में समान था। एक तोड़ा पाने वाला अपने निकम्मेपन के कारण दण्ड का भागी हुआ, न कि स्वामी की उसके प्रति किसी पूर्व-धारणा के कारण।
प्रभु ने मत्ती 20:1-16 में दाख की बारी के स्वामी का दृष्टांत बताया, जो दिन के अलग-अलग पहरों में जाकर अपनी बारी में काम करने के लिए मज़दूरों को लाता रहा, यहाँ तक कि अंतिम घंटे में भी और मज़दूर काम के लिए बुलाए। फिर उसने सभी को समान मेहनताना दिया। सारे दिन कार्य करने वालों और एक घंटा काम करने वालों में कोई भिन्नता नहीं की। जिन मज़दूरों ने भिन्नता करवानी भी चाही, उन्हें भी चुप कर दिया।
निष्कर्ष स्पष्ट है, प्रभु द्वारा निर्धारित और सौंपा गया कोई भी सेवकाई या कार्य छोटा या बड़ा नहीं है; इसलिए उस सेवकाई या कार्य को करने से संबंधित कोई भी आत्मिक वरदान छोटा या बड़ा, अथवा कम या अधिक महत्व का नहीं है। जिसने भी प्रभु द्वारा निर्धारित कार्य को वफादारी से किया, प्रभु द्वारा उसे उपलब्ध करवाए गए संसाधनों का सही और उचित उपयोग किया, वह प्रभु द्वारा कभी भी किसी से भी छोटा या कम महत्व वाला नहीं समझा गया। उसे भी वही आदर और सम्मान तथा प्रतिफल और आशीषें मिलीं जो किसी अन्य को, चाहे मनुष्यों की दृष्टि में उसकी सेवकाई का महत्व एवं आँकलन कुछ भी हो।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Levels in Gifts and Ministry?
As is quite apparent from 1 Corinthians 12:1, God the Holy Spirit very much wants the Christian Believers to have the knowledge and understanding about the spiritual gifts given to them. After this, in verses 4 to 6, Paul under the Holy Spirit writes that there are many different gifts, ministries, and activities, but behind all of them, it is one and the same God the Holy Spirit who provides the power and ability. The implication is that in the eyes of God, neither any person, nor his work or ministry, nor the evident effects of his works and ministry are big or small, or, of greater or lesser importance. Whatever God has determined for a person, that and only that is appropriate, best, and important for him; no matter how other men may look at it or consider it, but God will consider it, evaluate it, and reward it according to His own criteria and standards, not any man’s. In God’s eyes, all His children are of equal importance, He loves them all equally, and the way and for the purpose He has created them, he has also given them abilities, understanding, and gifts. Even though the work assigned by God to that Believer may seem to be small and insignificant, but when he does that God assigned work worthily, then, in God’s eyes it is in no way any lesser or inferior to another Believer doing some miraculous works or preaching mightily.
To understand this, let us look at some examples from the Bible:
In Acts 9:36-43 we have the incidence of the resurrection of Tabitha, also known as Dorcas, by Peter. Tabitha was a Christian Believer; she did not preach, nor do any miracles nor healed anybody. She had a very ordinary life and ministry; she did good works and gave donations (Acts 9:36), which is a fairly common thing to do by any Believer; and she also made clothes for other people (Acts 9:39). But the way she did these ordinary and seemingly insignificant things, had made her very dear to the people around her. She was so loved by them that on her death, they immediately called Peter, on hearing about her life and ministry Peter prayed for her to God, and God, in response to the cry or the people and Peter’s prayer made her live again, and this miracle led to many others to salvation (Acts 9:40-42). There is nothing great or extraordinary about doing good works, giving donations, and making clothes for people; but the way Tabitha did it all, so influenced others and endeared her to them, that God sent her back amongst them. Can anyone call her gift or ministry small or insignificant?
In Matthew 25:14-30 is a parable the Lord Jesus spoke about a person going on a journey and giving his servants some talents, some responsibilities. He gave one servant five talents, to another two, and to the third one, one talent; and on returning, he asked for an account from all three of them. In this parable, there is no indication anywhere that in the eyes of that man there was any difference of levels amongst his servants and the criteria he was evaluating them by. Although, the lord of those servants gave to each one according to that servant’s personal abilities (verse 15), yet, in the eyes of that man, those three were of similar importance, and their evaluation was also on the same criteria, by the same standards, not differently. The servant who had received one talent was punished because of his own irresponsible behavior, not on any pre-conceived ideas the man had about him.
In Matthew 20:1-16, the Lord Jesus gave a parable of the owner of the vineyard, who went at different times throughout the day to look for and engage laborers to work in his vineyard, he even brought them in the last hour of the day. Then he paid them all for their work. There was no difference in the wages given to those who had worked the whole day, and those who had worked only in the last hour. The laborers who wanted to create a differentiation were admonished and silenced by the owner of the vineyard.
The conclusion is quite clear, no work assigned by the Lord is greater or lesser, or of greater or lesser importance in the eyes of the Lord. Therefore, no gift related to that God given work or ministry, will be greater or lesser, or of more or lesser importance. Those who do their God assigned work faithfully, and utilize their God given provisions and gifts properly, are never seen as greater or lesser than anyone else. God gives them all similar honor, commendation, and rewards for their work; whatever be any person’s importance and evaluation of that work or ministry.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.