पाप का परिणाम
पिछले तीन लेखों में हमने
परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार पाप क्या है; परमेश्वर किसे
पाप मानता है, देखा है। संक्षेप में, बाइबल
बताती है कि परमेश्वर की व्यवस्था, अर्थात, उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन, [जिनमें उसकी दस आज्ञाएँ
(निर्गमन 20:1-20) तथा वे दो महान आज्ञाएँ (मत्ती 22:35-40)
भी सम्मिलित हैं जो परमेश्वर की सारी व्यवस्था और उसके द्वारा अपने भविष्यद्वक्ताओं
में होकर प्रकट की गई शिक्षाओं का आधार हैं], और हर प्रकार
का अधर्म पाप है।
पवित्र, निष्पाप परमेश्वर पाप के साथ संगति नहीं कर सकता है;
वह बुराई को देख ही नहीं सकता है “तेरी
आंखें ऐसी शुद्ध हैं कि तू बुराई को देख ही नहीं सकता, और
उत्पात को देखकर चुप नहीं रह सकता …” (हबक्कूक 1:13);
पाप परमेश्वर और मनुष्य में दीवार ले आता है, परस्पर
संगति को तोड़ देता है “परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने
तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे
पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता” (यशायाह 59:2)। परमेश्वर की सारी सृष्टि में केवल
मनुष्य ही है जिसे उसे अपने स्वरूप में, अपने हाथों से रचा,
और उसमें अपनी श्वास डालकर उसे जीवित प्राणी बनाया, तथा समस्त पृथ्वी और सभी प्राणियों पर उसे अधिकार प्रदान कर दिया
(उत्पत्ति 1:27-28; 2:7)। परमेश्वर मनुष्य के साथ संगति करता
था, उससे मिलने आया करता था (उत्पत्ति 3:8)। इसीलिए परमेश्वर ने प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा
को सचेत किया था कि यदि वे वाटिका के उस वर्जित फल को खाएंगे, तो मर जाएंगे (उत्पत्ति 2:17; 3:3)।
मर जाना, मानवीय क्षमताओं और संदर्भ में, एक
अपरिवर्तनीय बिछड़ने को दिखाता है। जब कोई व्यक्ति शारीरिक रीति से मरता है,
तो वह अपने सगे-संबंधियों, मित्रों, परिवार जनों, संसार से ऐसा पृथक होता है कि किसी भी
मानवीय प्रयास द्वारा वह फिर न लौट सकता है और न लौटाया जा सकता है। इसी बात को
आलंकारिक भाषा में संबंधों को तोड़ने के लिए भी व्यक्त किया जाता है; जब किसी से कहा जाए “आज से तू मेरे लिए मर गया”
तो तात्पर्य यही होता है कि उन दोनों के मध्य का संबंध ऐसा समाप्त
हो गया है मानों मृत्यु ने अलग कर दिया हो। आदम और हव्वा के द्वारा किए गए परमेश्वर
की अनाज्ञाकारिता के पाप के कारण, परमेश्वर और मनुष्य की यह संगति टूट गई, और मनुष्य मृत्यु, अर्थात परमेश्वर से सदा के लिए
अलग रहने के खतरे में आ गया। यह बहुत महत्वपूर्ण तथा आधारभूत तथ्य है, जिसे समझे बिना उद्धार के बारे में समझना असंभव है।
अब परमेश्वर के समक्ष दो विकल्प थे - या तो वह मनुष्य
को उसके पाप में पड़ा रहने दे, और उस पाप के परिणामों को भुगतने दे; अथवा, वह उन दोनों प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा, को नष्ट करके नए मनुष्य सृजे और इस
क्रिया को फिर से आरंभ करे। किन्तु परमेश्वर मनुष्य से इतना प्रेम करता है कि उसे
इन दोनों में से कोई भी विकल्प स्वीकार्य नहीं था। न तो वह मनुष्य को पाप की
दुर्दशा पड़े हुए देखना चाहता है, और न ही उसे नष्ट करना
चाहता है; परमेश्वर तो दुष्ट के नाश होने से भी प्रसन्न नहीं
होता है “सो तू ने उन से यह कह, परमेश्वर
यहोवा की यह वाणी है, मेरे जीवन की सौगन्ध, मैं दुष्ट के मरने से कुछ भी प्रसन्न नहीं होता, परन्तु
इस से कि दुष्ट अपने मार्ग से फिर कर जीवित रहे; हे इस्राएल
के घराने, तुम अपने अपने बुरे मार्ग से फिर जाओ; तुम क्यों मरो?” (यहेजकेल 33:11)।
पाप द्वारा उत्पन्न इस समस्या के समाधान के लिए या तो
पाप को क्षमा किया जाना था; अन्यथा पाप के दोषी को पाप का दंड भुगताना था। यह एक बड़ी
विडंबना थी; यदि परमेश्वर, उन दोनों के
प्रति अपने महान प्रेम के अंतर्गत, आदम और हव्वा के पाप की
अनदेखी करता और उन्हें ऐसे ही छोड़ देता, तो यह उसके सच्चे,
खरे, न्यायी, पक्षपात
रहित चरित्र और गुण के विरुद्ध होता, जो परमेश्वर को कदापि
स्वीकार्य नहीं है। यदि उन्हें उनके पाप के परिणाम भुगतने के लिए छोड़ देता,
तो न तो उसका प्रेमी हृदय इसे स्वीकार करता, और
न ही यह उसके प्रेमी, अनुग्रहकारी, दयावान,
कृपालु चरित्र और गुण के अनुरूप होता। मनुष्य के पाप ने परमेश्वर को
एक बड़ी विडंबना की स्थिति में डाल दिया।
जो मनुष्य के लिए असंभव है, वह परमेश्वर के लिए संभव
है “उस [यीशु] ने कहा;
जो मनुष्य से नहीं हो सकता, वह परमेश्वर से हो
सकता है” (लूका 18:27)। परमेश्वर
ने ही इस असंभव प्रतीत होने वाली समस्या का समाधान निकाला - जो समस्त मानव जाति को
परमेश्वर की ओर से सेंत-मेंत उपलब्ध करवाया गया प्रभु यीशु में लाए गए विश्वास
द्वारा मनुष्यों के लिए उद्धार का मार्ग है; जिसके बारे में
हम अगले लेखों में देखेंगे। परमेश्वर द्वारा बनाए और उपलब्ध करवाए गए इस उद्धार के
मार्ग को जब हम बिना किसी पूर्व-धारणा के, और निष्पक्ष
दृष्टिकोण रखते हुए देखते हैं, तो तुरंत प्रकट हो जाता है कि
पाप की समस्या का इससे अधिक सहज, सरल, स्वीकार्य,
मनुष्यों द्वारा बनाई गई धर्म-जाति-कुल-सभ्यता-स्थान आदि की सीमाओं
से स्वतंत्र, संसार के सभी लोगों के लिए संपूर्णतः लाभकारी, और कोई समाधान हो ही
नहीं सकता है।
अभी के लिए, आप से विनम्र निवेदन है, यदि आपने
अभी तक उद्धार नहीं पाया है, परमेश्वर के इस समाधान को
स्वीकार नहीं किया है, तो अभी अवसर और समय रहते यह कर लीजिए;
पता नहीं फिर यह अवसर और स्थिति हो या न हो। आपके द्वारा स्वेच्छा
से, सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करते हुए, की गई समर्पण की एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु,
मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने मन-ध्यान-विचार-व्यवहार से आपकी
अनाज्ञाकारिता की है, पाप किया है। मैं स्वीकार करता हूँ कि
आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, कलवरी के क्रूस पर दिए गए
अपने बलिदान के द्वारा, उनके दंड को भी मेरे लिए सह लिया;
और फिर मृतकों में से पुनरुत्थान के द्वारा मेरे लिए जीवन का मार्ग
बना कर दे दिया। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपना
आज्ञाकारी शिष्य बना लें, और अपने साथ कर लें” आपको तुरंत ही अब से लेकर अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय जीवन में लाकर खड़ा कर
देगी। निर्णय आपका है।
बाइबल पाठ: रोमियों 3:20-31
रोमियों 3:20 क्योंकि व्यवस्था के
कामों से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिये
कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहचान होती है।
रोमियों 3:21 पर अब बिना व्यवस्था
परमेश्वर की वह धामिर्कता प्रगट हुई है, जिस की गवाही
व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता देते हैं।
रोमियों 3:22 अर्थात परमेश्वर की
वह धामिर्कता, जो यीशु मसीह पर विश्वास करने से सब विश्वास
करने वालों के लिये है; क्योंकि कुछ भेद नहीं।
रोमियों 3:23 इसलिये कि सब ने पाप
किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।
रोमियों 3:24 परन्तु उसके अनुग्रह
से उस छुटकारे के द्वारा जो मसीह यीशु में है, सेंत मेंत
धर्मी ठहराए जाते हैं।
रोमियों 3:25 उसे परमेश्वर ने उसके
लहू के कारण एक ऐसा प्रायश्चित्त ठहराया, जो विश्वास करने से
कार्यकारी होता है, कि जो पाप पहिले किए गए, और जिन की परमेश्वर ने अपनी सहनशीलता से आनाकानी की; उन के विषय में वह अपनी धामिर्कता प्रगट करे।
रोमियों 3:26 वरन इसी समय उस की
धामिर्कता प्रगट हो; कि जिस से वह आप ही धर्मी ठहरे, और जो यीशु पर विश्वास करे, उसका भी धर्मी ठहराने
वाला हो।
रोमियों 3:27 तो घमण्ड करना कहां
रहा उस की तो जगह ही नहीं: कौन सी व्यवस्था के कारण से? क्या
कर्मों की व्यवस्था से? नहीं, वरन
विश्वास की व्यवस्था के कारण।
रोमियों 3:28 इसलिये हम इस परिणाम
पर पहुंचते हैं, कि मनुष्य व्यवस्था के कामों के बिना
विश्वास के द्वारा धर्मी ठहरता है।
रोमियों 3:29 क्या परमेश्वर केवल
यहूदियों ही का है? क्या अन्यजातियों का नहीं? हां, अन्यजातियों का भी है।
रोमियों 3:30 क्योंकि एक ही
परमेश्वर है, जो खतना वालों को विश्वास से और खतना-रहितों को भी विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराएगा।
रोमियों 3:31 तो क्या हम व्यवस्था
को विश्वास के द्वारा व्यर्थ ठहराते हैं? कदापि नहीं;
वरन व्यवस्था को स्थिर करते हैं।
एक साल में बाइबल:
· भजन 126; 127; 128
· 1 कुरिन्थियों 10:19-33