परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 5
परमेश्वर के वचन के प्रति मसीही विश्वासी के भण्डारी होने के सन्दर्भ में हम देखते आ रहे हैं कि किस प्रकार से शैतान बड़े चुपके से और चालाकी से परमेश्वर के वचन पर आक्रमण करता है, उसमें फेर-बदल करवाता है, और उसे परिवर्तित करके मनुष्य का व्यर्थ और अप्रभावी वचन बना देता है। हम उल्लेख कर चुके हैं कि शैतान न केवल परमेश्वर के वचन में जोड़ने या उसमें से कुछ निकालने के द्वारा यह करता है, किन्तु यह भी कि इससे भी बढ़कर वह बड़ी कुटिलता से बहुधा समर्पित मसीही विश्वासियों, बाइबल के प्रचारकों और शिक्षकों को उकसाता है कि बाइबल के लेखों और वाक्यांशों को लेकर ऐसे अर्थ और अभिप्राय के साथ प्रचार करें जो उनके लिए बाइबल में नहीं दिए गए हैं। हमने कलीसिया के अगुवों और बाइबल के प्रचारकों तथा शिक्षकों द्वारा इस अकसर की जाने वाली गलती के दो स्वरूप देखे हैं; और यह भी देखा है कि या तो उनकी यह गलती पहचानी ही नहीं जाती है, अथवा उसकी अवहेलना की जाती है या उसे अस्वीकार कर दिया जाता है। इन दो में से पहला स्वरूप था बाइबल के लेख को सही स्वरूप में लेना किन्तु उसके द्वारा बाइबल के बाहर का गलत अर्थ और सन्देश व्यक्त करना; और दूसरा स्वरूप था परमेश्वर के पक्ष में तो बात कहना, किन्तु अनजाने में ही ऐसी बातें कहना जो या तो सही नहीं हैं, अथवा यद्यपि वे परमेश्वर की भक्ति और आदर में कही गई हैं, किन्तु परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हैं। आज हम इस गलती के एक तीसरे स्वरूप को देखेंगे, उद्धार में मनुष्य के द्वारा किसी प्रकार के कार्यों की भूमिका को सही ठहराना।
यह तीसरी प्रकार की गलती है, बाइबल के लेखों के द्वारा मनुष्य के उद्धार के जीवन में उसके किसी प्रकार के कार्यों की अनिवार्यता को सही ठहराना; यह उपरोक्त पहली गलती – बाइबल के सही लेख को गलत अर्थ देकर उपयोग करना से बहुत मिलता-जुलता है। उद्धार के जीवन में कुछ विशेष कर्मों को घुसाने की इस गलती को दो स्वरूपों में देखा जाता है। एक है कि मसीही विश्वास का जीवन जीने के लिए, विश्वास के साथ उस कलीसिया के बनाए हुए कुछ रीति-रिवाज़ और नियम भी निभाने होते हैं; और दूसरा है कि विश्वास के साथ ‘परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए भला करो, भले बनो, अन्यथा उद्धार खोया जा सकता है’ के सिद्धान्त को भी मानना है। आज हम इन दोनों में से पहले स्वरूप को देखेंगे, अर्थात कलीसिया के रीति रिवाज़ और नियम मानने की आवश्यकता।
इस गलती का आरंभ पहली कलीसिया के समय से ही हो गया था। हम कलीसिया के इतिहास से जानते हैं कि कलीसिया का आरंभ, जैसा प्रेरितों 2 अध्याय में दिया गया है, पतरस द्वारा यरूशलेम में पर्व मनाने आए हुए भक्त यहूदियों के मध्य किए गए प्रचार से हुआ था। सुसमाचार का आरंभिक प्रचार यरूशलेम और यहूदियों में हुआ था और उन्हीं में से उद्धार पाए हुए लोग आरंभिक कलीसिया में जुड़ते जा रहे थे। जब सुसमाचार का प्रसार हुआ, तो फिर गैर-यहूदी, अर्थात अन्य-जातीय लोग भी उद्धार पा कर कलीसियाओं में जुड़ने लगे। तब यहूदी विश्वासियों और अन्य-जाति विश्वासियों के मध्य एक विवाद उठ खड़ा हुआ – प्रेरितों 15 अध्याय देखिए। कुछ यहूदी विश्वासी इस बात के लिए बहुत ज़ोर देने लगे कि अन्य-जाति विश्वासियों को भी खतना करवाने और यहूदी परम्पराओं का पालन करना अनिवार्य है। हम पौलुस की सम्पूर्ण सेवकाई में देखते हैं कि उसे किस प्रकार से इस समस्या का अनेकों तरह से सामना करना पड़ा था, और कैसे वह बारम्बार सिखाता और डाँटता भी रहा कि सभी मसीही विश्वासियों के लिए मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था की सभी परम्पराएँ प्रभु यीशु मसीह द्वारा पूरी करके मार्ग से हटा दी गई हैं। इसलिए अब किसी भी मसीही विश्वासी को मूसा की व्यवस्था और उसकी परम्पराओं के निर्वाह की कोई आवश्यकता नहीं है (रोमियों 10:4; गलातियों 3:10-14; कुलुस्सियों 2:13-14)। उन यहूदी विश्वासियों को इस बात का एहसास करने की आवश्यकता थी कि उद्धार केवल परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा, विश्वास और केवल विश्वास ही के द्वारा है; वह विश्वास जो प्रभु यीशु पर, जो समस्त मानव-जाति के पापों के प्रायश्चित के लिए प्रभु द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान पर, और जो प्रभु के मृतकों में से फिर से जी उठने पर है। इसलिए अब किसी को भी लौट कर परमेश्वर की मूसा के द्वारा दी गई व्यवस्था और उसकी परम्पराओं पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है; यद्यपि यहूदी उसी व्यवस्था और परम्पराओं के द्वारा परमेश्वर से जुड़े हुए थे और संसार के सभी लोगों में अनुपम थे।
हम एक बार फिर से देखते हैं कि किस प्रकार से शैतान ने पवित्र शास्त्र के लेख को लिया, और परमेश्वर के भक्त लोगों के द्वारा उसमें पवित्र शास्त्र के बाहर के अर्थ और अभिप्राय जुड़वाए, और फिर उन्हीं से परमेश्वर के लोगों तथा उद्देश्यों के विरुद्ध उसका दुरुपयोग करवाया, जबकि वे लोग अपने विचारों और मान्यताओं में यही सोच रहे थे कि वे परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता में सही कार्य कर रहे हैं। जैसा पौलुस ने रोमियों 3:20-22 में लिखा है, व्यवस्था कभी किसी को भी धर्मी ठहराने के लिए नहीं दी गई थी, बल्कि वह पाप की पहचान करवाने के लिए, अर्थात लोगों को यह बताने के लिए कि परमेश्वर की दृष्टि में पाप क्या है, दी गई थी; जबकि धर्मी होना केवल प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने के द्वारा ही है। इसी प्रकार से इब्रानियों का लेखक भी इब्रानियों 10:1 में वही बात कहता है जो यशायाह ने यशायाह 1:11-15 में कही थी, कि व्यवस्था के पालन से कभी भी कोई भी धर्मी नहीं ठहर सकता है, जो व्यवस्था की बातों का पालन करते हैं, वे भी परमेश्वर की दृष्टि में अशुद्ध ही रहते हैं।
परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों, और नियमों के पालन पर ज़ोर देना केवल उस समय, उसी युग में ही नहीं किया जाता था; बल्कि सारे ईसाई या मसीही विश्वासियों के समाज में यह आज भी बहुत मानी तथा प्रचलित बात है। प्रत्येक मसीही डिनॉमिनेशन, मत, संप्रदाय के अपने ही नियम, परम्पराएँ, रीति-रिवाज़, आदि होते हैं, और केवल वे लोग ही, जो मनुष्यों द्वारा गढ़े गए इन नियमों, परम्पराओं, और रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं, उस मण्डली का एक भाग हो सकते हैं, उसके लाभ ले सकते हैं। यदि कोई उनके साथ जुड़ना चाहता है, तो उसे पहले अपनी पिछली मण्डली की बातों को छोड़ना पड़ता है और फिर इस मण्डली की इन बातों को अपनाना पड़ता है, अन्यथा उन्हें उस मण्डली की “सदस्यता” और उसके लाभ नहीं दिए जाएँगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इस बारे में बाइबल क्या कहती है, और जुड़ने की इच्छा रखने वाला परमेश्वर द्वारा उद्धार पाया हुआ उसके परिवार का वैध सदस्य है, प्रभु यीशु मसीह में किए गए विश्वास के द्वारा मसीह की देह और दुल्हन, अर्थात मसीह की कलीसिया का एक भाग है। यदि उन्हें उस मण्डली के साथ जुड़ना है, तो फिर उस मण्डली के रीति-रिवाज़ों, परम्पराओं, और नियमों का पालन करना ही होगा, अन्यथा वे बाहर रहें। परमेश्वर के लोगों की मण्डलियों में परमेश्वर के नहीं, मनुष्यों के बनाए हुए नियमों और रीतियों का पालन किया जाता है। साथ ही मंडलियों के अगुवों और ज़िम्मेदार लोगों का यह भी प्रयास रहता है कि मण्डली के लोगों को औरों से पृथक और बिना मेल-जोल बढ़ाए हुए रखा जाए। वे नहीं चाहते हैं कि मंडली के लोग औरों से मिलने-जुलने वाले, अन्य मसीही विश्वासियों के साथ एक होकर रहने वाले, परमेश्वर की अन्य संतानों के साथ संगति रखने वाले बनें। किसी के भी द्वारा “बाहर” के किसी भी विश्वासी के साथ मेल-जोल या संगति रखने को बल देकर मना किया जाता है, ऐसा करने के लिए उन्हें डाँटा भी जाता है। और यह सब मसीह यीशु में होकर प्रेम, क्षमा, मेल-मिलाप, और एक-मनता रखने के सुसमाचार का प्रचार करते हुए किया जाता है। और फिर इसे उचित ठहराने के लिए बाइबल के लेखों का उपयोग मन-गढ़ंत रीति से तथा एक विशिष्ट मानवीय विचार का समर्थन करने के प्रयासों के द्वारा किया जाता है – बाइबल के लेख का बाइबल के विपरीत रीति से उपयोग करना।
यह हमारे आरम्भिक कथन की एक और पुष्टि है कि शैतान परमेश्वर के समर्पित लोगों का, बाइबल के लेखों का जानते-बूझते हुए अथवा अनजाने में दुरुपयोग करने के लिए इस्तेमाल कर सकता है और करता भी है। बहुधा, बिना उनके इस बात को समझे, शैतान मसीही विश्वासियों को फंसा कर, उन से मसीही विश्वास और जीवन के लिए अनुपयुक्त बातें करवाता और कहलवाता है; जो परमेश्वर और उसके वचन के विरुद्ध भी हो सकती हैं तथा मसीही गवाही और सुसमाचार प्रचार के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। लेकिन जो यह करते हैं, वे यही सोचते रहते हैं कि वे परमेश्वर के प्रति भक्ति और श्रद्धा का कार्य कर रहे हैं, परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को दिखा रहे हैं। इसीलिए वे इस व्यवहार को औरों को भी प्रचार करते हैं, इसे सिखाते हैं यह मानते हुए कि वे उन्हें सही मार्ग पर चलाने में सहायता कर रहे हैं। दुःख की बात है कि ऐसे अगुवों और उनके अनुयायियों को उनकी गलती का एहसास करवाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि वे अपने आप को बाइबल पर ही आधारित और सही समझते रहते हैं। उन्हें इस बात के लिए कायल करना बहुत कठिन होता है कि जिसे वे परमेश्वर को प्रसन्न करने वाली बात समझ रहे हैं, वह वास्तव में परमेश्वर को अप्रसन्न कर रही है, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन के साथ छेड़-छाड़ और उसके वचन में फेर-बदल कर रहे हैं, और यह परमेश्वर से प्रतिफल मिलने का नहीं, उनके विरुद्ध उसके प्रतिशोध का कारण होगा, उनके लिए भी और उनकी अनुयायियों के लिए भी। अगले लेख में हम इसी गलती के दूसरे स्वरूप के बारे में देखेंगे – उद्धार के लिए कर्मों की अनिवार्यता पर बल देना, अन्यथा उद्धार खोया जा सकता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Altering God’s Word – 5
In a Christian Believer’s stewardship towards the Word of God, we have been seeing how Satan subtly attacks God’s Word, gets it altered, and thereby converts it into an ineffective and vain word of man. We have mentioned that Satan not only adds to or subtracts from God’s Word, but much more deviously, he very often and very subtly induces the committed Christian Believers, the Bible preachers and teachers, to preach and texts or phrases from the Bible with meanings and implications not given for those texts in the Bible. We have seen two forms of this frequent, but unrecognized and usually either ignored or unaccepted, error that is often inadvertently but commonly practiced by Church leaders, elders, Bible preachers and teachers. One is to use the right Biblical text to wrongly convey a Biblically unintended message through it; and the second one, which we saw in the previous article, is to say things in favor of God, but, again inadvertently, in a manner that is not correct in the eyes of God, things that are not acceptable to God though they have been said reverentially and to honor Him. We will see a third form of this error today, justifying the role of forms of some ‘works’ in salvation of man.
This is third form of the error, of trying to justify the necessity of some kinds of works in man’s life of salvation through Biblical texts It is very similar to the first kind of error – use the right Biblical text, but ascribe wrong meanings to it. This error of inserting the necessity of certain works in the life of salvation is seen in two forms, one is that to live a life of Christian Faith, faith has to be accompanied by the fulfilling and obeying certain rituals and traditions of that Church; and the second is along with faith also accept the ‘do good and be good to be acceptable to God, or else salvation will be lost’ doctrine. Today we will consider the first form, i.e., about the necessity of following church rituals and traditions.
This error started off with the beginning of the first Church itself. We know from the history of the Church that the Church began with the preaching of Peter in Jerusalem amongst the devout Jews gathered there to observe the Jewish feasts, as is recorded in Acts 2. The initial preaching of the gospel and the people being saved and being joined to the initial Church was from the Jews in Jerusalem. As the gospel spread, and the non-Jewish people, the Gentiles, were also saved and started to be joined to the Church. Then a contention amongst the Jewish converts and the Gentile converts arose – see Acts chapter 15. Some of the Jewish converts insisted that the Gentile converts should also be circumcised and be made to follow the Jewish customs. We see throughout Paul’s ministry, how he repeatedly had to face this problem in various forms, and how he kept teaching and admonishing that Mosaic Law and customs have been fulfilled for all Believers by the Lord Jesus, and have now been taken out of the way. Therefore, now no Christian Believer needs to do anything to fulfil the Mosaic Law and customs stated in it (Romans 10:4; Galatians 3:10-14; Colossians 2:13-14). Those Jewish converts and Believers needed to realize that salvation is by the grace of God, through faith and faith alone, in the Lord Jesus Christ, in in His sacrifice on the Cross of Calvary to atone for the sins all of mankind, and His resurrection from the dead. Therefore, no one needs to revert back to the customs and rituals given in the Law delivered to Israel by God through Moses, although it is those God given Laws and customs that have connected the Israelites to God and made them unique amongst the people of the world.
We once again see how Satan has taken the Scriptural text, made godly people ascribe extra-Scriptural meanings and implications to it, and then made them misuse it to make it work contrary to Gods people and purposes, while in their minds and belief they thought that they were rightly doing things in obedience to God and His Word. As Paul through the Holy Spirit says in Romans 3:20-22, the Law was never meant to justify anyone, it was meant to provide the knowledge of sin, i.e., what is sin in God’s eyes; whereas righteousness is through faith in the Lord Jesus Christ. Similarly, the author of Hebrews says in Hebrews 10:1, what Isaiah had said in Isaiah 1:11-15, that observing the customs of the Law can never make anyone perfect, those who do them, still remain unclean in God’s eyes.
This insistence on traditions, rituals and customs was not done just at that time, in that Church age; rather, it is rampant all over Christendom even today. Every Christian denomination, sect, and cult has its own set of rules and regulations, customs, procedures etc. and only those who adhere to these man-made, contrived laws are considered a part of that congregation and are allowed the benefits of being in that congregation. If anyone wants to join them, then they have to forego what they followed in their former denomination, or sect, or cult, and accept these laws of this denomination, sect, or cult; or else they will be denied the “membership” and benefits. It matters little, if any at all, what the Bible has to say about it all, and that they have been saved by God, are the bona fide members of God’s family, His Born-Again children by faith in the Lord Jesus, a part of Christ’s body and bride, i.e., His Church. If they have to be a part of that denomination, sect, or cult, then they have to fulfil the rites, regulations, and customs, follow the rules; or stay out and away. Man’s, not God’s rules and customs govern the congregations of God’s people; and efforts of the leaders and elders are directed at segregating and excluding from others, rather than including and assimilating, or even fellowshipping with the other children of God. Any attempts by anyone at mixing or fellowshipping with Believers from ‘outside’ are strongly discouraged and even reprimanded. Yet, all of this is done while preaching a gospel of love, forgiveness, and unity by faith in Christ, and is justified by using Biblical texts in a manner contrived to suit a particular line of thinking – i.e., using Biblical text in an unBiblical way.
This is another Biblical affirmation of our initial statement, that Satan can and does mislead God’s committed people to knowingly or unknowingly use Biblical texts in unBiblical ways. Often, without their realizing it, Satan traps Christian Believers into doing and saying things inappropriate or unnecessary for Christian faith and life; things that may even be contrary to God and His Word, and harmful for the Christian witness, the spread of the gospel. But those who do this keep thinking that they are being godly and reverent, are expressing their love and commitment to God, and they preach and teach to others also to do the same in the belief that they are leading them on the right way. Sadly, it is very difficult to make such leaders and their followers realize and accept their error, because they firmly believe that they are Biblically correct. To convince them that what they are thinking to be pleasing to God, is actually displeasing to God because of their tampering with His Word and altering it; and it is inviting not rewards but retribution from God, for themselves as well as their followers. In the next article we will see the second form of this error – insisting on works along with salvation, or else salvation can be lost.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.