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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - अलगाव का जीवन / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - Separated from World & Worldliness


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प्रभु यीशु की कलीसिया - संसार और सांसारिकता से पृथक   


प्रभु यीशु की कलीसिया में, प्रभु यीशु द्वारा व्यक्ति के जोड़े जाने साथ ही, उस सच्चे और वास्तविक मसीही विश्वासी के जीवन में कुछ बातों की उपस्थिति भी अनिवार्य और आवश्यक हो जाती है। प्रभु का जन कहलाए जाने वाले व्यक्ति के जीवन में इन बातों की उपस्थिति यह दिखाती और प्रमाणित करती है कि वह प्रभु का जन है, प्रभु की कलीसिया में प्रभु द्वारा जोड़ा गया है। इन बातों के द्वारा वह जन अपने मसीही जीवन में बढ़ता जाता है, प्रभु की कलीसिया के लिए उपयोगी बना रहता है, और उसके द्वारा अन्य लोग भी प्रभु की निकटता में आने लगते हैं। प्रेरितों 2 अध्याय में प्रथम कलीसिया स्थापित हो जाने के साथ ही उन प्रथम विश्वासियों के जीवनों में भी ये सात बातें दिखने लगीं थीं, और तब से लेकर आज तक संसार के हर स्थान में प्रभु की कलीसिया के प्रत्येक सच्चे सदस्य में ये सात बातें होना ही उसके वास्तविक मसीही विश्वासी होने का प्रमाण रही हैं (प्रेरितों 2:39)। ये सात बातें हमें प्रेरितों 2:38-42 में मिलती है, और इनमें से पद 38 में दी गई पहली दो, पापों के लिए पश्चाताप और बपतिस्मे द्वारा मसीही विश्वास में आ जाने की सार्वजनिक गवाही देने से संबंधित कुछ बातों को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं।


तीसरी बात प्रेरितों 2:40 में दी गई है - “उसने बहुत ओर बातों में भी गवाही दे देकर समझाया कि अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ”; अर्थात, बुरे और प्रभु विरोधी लोगों ही अलग होकर प्रभु के साथ और उसकी आज्ञाकारिता में बने रहो। एक सच्चे मसीही विश्वासी का जीवन, संसार और सांसारिकता से बच कर रहने, संसार की नश्वर बातों से हटकर परमेश्वर के वचन के अनुसार चलने का जीवन होता है। मसीही विश्वासी हर परिस्थिति में प्रभु को महिमा देता है, उसके कार्य को, सुसमाचार को औरों तक पहुँचाने में संलग्न रहता है। 


इस संदर्भ में बाइबल के कुछ पद देखते हैं:

  • जब पतरस और यूहन्ना को यहूदी धर्म के अगुवों ने प्रभु यीशु के बारे में कुछ भी कहने से मना किया, तब उनकी प्रतिक्रिया: “तब उन्हें बुलाया और चितौनी देकर यह कहा, कि यीशु के नाम से कुछ भी न बोलना और न सिखलाना। परन्तु पतरस और यूहन्ना ने उन को उत्तर दिया, कि तुम ही न्याय करो, कि क्या यह परमेश्वर के निकट भला है, कि हम परमेश्वर की बात से बढ़कर तुम्हारी बात मानें। क्योंकि यह तो हम से हो नहीं सकता, कि जो हम ने देखा और सुना है, वह न कहें” (प्रेरितों 4:18-20)।

  • जब उनसे फिर भी प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार करते रहने के विषय पूछा गया, तो उनका उत्तर: “क्या हम ने तुम्हें चिताकर आज्ञा न दी थी, कि तुम इस नाम से उपदेश न करना? तौभी देखो, तुम ने सारे यरूशलेम को अपने उपदेश से भर दिया है और उस व्यक्ति का लहू हमारी गर्दन पर लाना चाहते हो। तब पतरस और, और प्रेरितों ने उत्तर दिया, कि मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना ही कर्तव्य कर्म है” (प्रेरितों 5:28-29)।

  • और जब अपने इस उत्तर के लिए वे पीटे गए, तो उनकी प्रतिक्रिया: “तब उन्होंने उस की बात मान ली; और प्रेरितों को बुलाकर पिटवाया; और यह आज्ञा देकर छोड़ दिया, कि यीशु के नाम से फिर बातें न करना। वे इस बात से आनन्‍दित हो कर महासभा के सामने से चले गए, कि हम उसके नाम के लिये निरादर होने के योग्य तो ठहरे। और प्रति दिन मन्दिर में और घर घर में उपदेश करने, और इस बात का सुसमाचार सुनाने से, कि यीशु ही मसीह है न रुके” (प्रेरितों 5:40-42)।

  • स्तिफनुस के मारे जाने के बाद उस प्रथम कलीसिया पर भारी क्लेश आया, और उन सताए गए मसीही विश्वासियों की प्रतिक्रिया थी, “उसी दिन यरूशलेम की कलीसिया पर बड़ा उपद्रव होने लगा और प्रेरितों को छोड़ सब के सब यहूदिया और सामरिया देशों में तित्तर बित्तर हो गए।” “जो तित्तर बित्तर हुए थे, वे सुसमाचार सुनाते हुए फिरे।” (प्रेरितों 8:1, 4) - जिस बात के लिए वे सताए और बेघर किए गए, तित्तर बित्तर हो गए, वे उस बात से - अपने मसीही विश्वास और उसके दायित्व से पीछे नहीं हटे, वरन जहाँ भी गए, सुसमाचार सुनाते हुए ही गए।


हम उपरोक्त उदाहरणों से देखते हैं कि उन प्राथमिक मसीही विश्वासियों के अन्दर तुरंत ही कितना भारी परिवर्तन, और अपने मसीही विश्वास के दायित्व के प्रति कितना गहरा समर्पण आ गया था। वे हर हाल, हर परिस्थिति में, सताव सह कर भी, संसार और संसार के लोगों के साथ समझौते का नहीं, वरन विपरीत हालात में भी प्रभु की आज्ञाकारिता का जीवन जीते थे; उसके लिए सब कुछ सहने के लिए तैयार थे। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इसके विषय मसीही विश्वासियों के लिए लिखवाया है:

  • और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:15)। 

  • तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्‍तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है। क्योंकि जो कुछ संसार में है, अर्थात शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्‍ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है। और संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा” (1 यूहन्ना 2:15-17)।

  • हे व्यभिचारिणयों, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है” (याकूब 4:4)।

इसीलिए प्रभु यीशु मसीह ने कहा था, “उसने सब से कहा, यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप से इनकार करे और प्रति दिन अपना क्रूस उठाए हुए मेरे पीछे हो ले” (लूका 9:23)। आज प्रभु की खेती में शैतान द्वारा बोए गए झूठे ‘मसीही’ तरह-तरह की गलत शिक्षाओं का प्रचार और संसार के साथ समझौते का जीवन जीने की बातों को सिखाते और दिखाते हैं। जैसे जब इस्राएली मिस्र के दासत्व से छुड़ाए गए, तो उनके साथ एक मिली-जुली भीड़ भी निकल आई (निर्गमन 12:38)। ये भीड़ इस्राएलियों के साथ ही रहती और चलती थी; उन्हें भी मन्ना मिलता था, परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा उन पर भी रहती थी। किन्तु यह मिली-जुली भीड़ इस्राएलियों के लिए दुख और पतन का कारण बन गई, उसने इस्राएलियों को परमेश्वर के कोप का भागी बना दिया (गिनती 11:4-6, 10, 33), और अन्ततः कनान में प्रवेश के समय उस मिली-जुली भीड़ का इस्राएलियों के साथ होने का कोई उल्लेख नहीं है; बलवाई इस्राएलियों के साथ वे भी जंगल में नाश हो गए, आशीष की भूमि तक नहीं पहुँच सके।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो हर परिस्थिति में प्रभु और उसके निर्देशों के प्रति सच्चे और आज्ञाकारी बने रहने में ही आपकी आशीष और सुरक्षित भविष्य है। आज के ईसाई या मसीही समाज में शैतान के द्वारा कलीसिया में घुसाए गए झूठे ‘विश्वासियों’ की कमी नहीं है। ये झूठे विश्वासी हमेशा संसार के समान कार्य और व्यवहार करने, संसार के लोगों के साथ समझौते करने, परमेश्वर के वचन की अनदेखी और अनाज्ञाकारिता करने के लिए ही उकसाते रहते हैं, विश्वासियों के मसीही विश्वास और जीवन में अग्रसर होने को बाधित करते रहते हैं। प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के लिए प्रभु का निर्देश है, “अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ” (प्रेरितों 2:40)।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।



एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यशायाह 37-38 

  • कुलुस्सियों 3

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English Translation

The Church of Lord Jesus - Separated from the World & Worldliness


Once a person gets joined to the Church of the Lord Jesus Christ, in the life of that true and actual Christian Believer, the presence of certain things becomes necessary and important. In the life of the person known as a person of the Lord God, the presence of these things demonstrates and proves that he really is a person of God and has been joined into the Church by the Lord. Through these things, that person grows in his Christian life, remains useful for the Church, and through him others too are attracted to the Church. In Acts 2, with the establishing of the first Church, in the lives of those initial Christian Believers, these seven things were seen; and since then, till now, all over the world, in every true and actual member of the Church of the Lord Jesus Christ, these seven things have remained the hallmark of every Born-Again child of God (Acts 2:39). We see these seven things in Acts 2:38-42, and we have seen the first two, given in Acts 2:38 - repentance from sins, and publicly witnessing about coming to faith in Christ Jesus through baptism, in the previous articles.


The third thing is given in Acts 2:40 - “And with many other words he testified and exhorted them, saying, "Be saved from this perverse generation"”; i.e., separate from the evil people and opponents of the Lord, and remain obedient to the Lord God. The life of a true Christian Believer is a life of living in accordance with the Word of God, obedient to the Lord, separated from the world, worldliness, and its temporal things. A Christian Believer is to glorify the Lord God in and through all situations and circumstances of life, and always be involved in propagating the gospel, telling the world about the works of the Lord.


Consider some Bible verses in this context:

  • When the Jewish religious leaders forbade Peter and John to say or preach anything about the Lord Jesus, their response was: “And they called them and commanded them not to speak at all nor teach in the name of Jesus. But Peter and John answered and said to them, "Whether it is right in the sight of God to listen to you more than to God, you judge. For we cannot but speak the things which we have seen and heard"” (Acts 4:18-20).

  • When they were once again brought before them, and were questioned about continuing to preach the Gospel of the Lord Jesus, they answered, “saying, "Did we not strictly command you not to teach in this name? And look, you have filled Jerusalem with your doctrine, and intend to bring this Man's blood on us!" But Peter and the other apostles answered and said: "We ought to obey God rather than men"” (Acts 5:28-29).

  • And, when they were beaten up for this answer, there reaction was: “And they agreed with him, and when they had called for the apostles and beaten them, they commanded that they should not speak in the name of Jesus, and let them go. So, they departed from the presence of the council, rejoicing that they were counted worthy to suffer shame for His name. And daily in the temple, and in every house, they did not cease teaching and preaching Jesus as the Christ” (Acts 5:40-42).

  • After the martyrdom of Stephen, a great persecution came upon the first Church, and the Believers were scattered all over; but even in this persecution and being scattered, their activity was, “At that time a great persecution arose against the church which was at Jerusalem; and they were all scattered throughout the regions of Judea and Samaria, except the apostles. Therefore, those who were scattered went everywhere preaching the word” (Acts 8:1, 4). They did not give up on the very thing for which they were persecuted and scattered, they continued to fulfill their responsibility of propagating the gospel, wherever they went.


We see from these examples that how great a transformation had come in those initial Christian Believers, and how committed they had become to their responsibility to their faith. In every situation, every circumstance, even while suffering persecution, they never compromised with the world, or with the people of the world. Rather, even in adverse situations, they lived in obedience to the Lord Jesus, and were willing to suffer everything for Him. In this context, for the instructing the Christian Believers, the Holy Spirit has got it written:

  • and He died for all, that those who live should live no longer for themselves, but for Him who died for them and rose again” (2 Corinthians 5:15).

  • Do not love the world or the things in the world. If anyone loves the world, the love of the Father is not in him. For all that is in the world--the lust of the flesh, the lust of the eyes, and the pride of life--is not of the Father but is of the world. And the world is passing away, and the lust of it; but he who does the will of God abides forever” (1 John 2:15-17).

  • Adulterers and adulteresses! Do you not know that friendship with the world is enmity with God? Whoever therefore wants to be a friend of the world makes himself an enemy of God” (James 4:4).


That is why the Lord Jesus Christ had said, “If anyone desires to come after Me, let him deny himself, and take up his cross daily, and follow Me” (Luke 9:23). Today in the field of God, the ‘tares’ sown by Satan, masquerading as “Christians” are spreading many false teachings and beguiling people to live a comfortable life, even compromising with the world. When the Israelites were brought out of Egypt, a great ‘mixed-multitude’ also came out with them (Exodus 12:38). This great multitude lived and moved with the Israelites; they too ate of the manna, and enjoyed the safety and care of the Lord God. But this mixed-multitude was a cause for much trouble and suffering for the Israelites, made the Israelites suffer the wrath of God (Numbers 11:4-6, 10, 33); and eventually, at the time of the Israelites entering Canaan, there is no mention of this ‘mixed-multitude;’ probably, along with the rebellious Israelites, they too perished, not being worthy to enter the Promised Land of blessings. The same fate awaits these “tares” who are creating troubles and problems for the Christian Believers presently.


If you are a Christian Believer, then make it point to remain true and obedient to the Lord and His instructions, His commandments; that is the only way to receive and grow in your blessings and safety. In today’s Christendom, there is no dearth of “false believers” infiltrated into the Church by Satan and his angels. These false believers, though living in the name of the Lord, as ‘Christians’, always act and behave like the people of the world, compromise with the world, and for personal benefits and comforts do not hesitate in disobeying the Lord; they not only do this but also provoke and instigate the actual Believers to do the same, and obstruct the spiritual growth and life of the Christian Believers, like the mixed-multitude did with the Israelites. To every true and actual Christian Believer, the commandment of the Lord, since the beginning of the Church is “Be saved from this perverse generation” (Acts 2:40).


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Isaiah 37-38 

  • Colossians 3