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मसीही विश्वासी - प्रभु के आज्ञाकारी
मसीही विश्वास एवं शिष्यता के अंतर्गत हम मरकुस 3:14-15 से प्रभु द्वारा अपने शिष्यों के लिए रखे गए प्रयोजनों पर मनन कर रहे हैं। पिछली बार हमने प्रभु के दूसरे प्रयोजन “वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें” के पहले भाग को, कि प्रभु के शिष्य जब और जहाँ प्रभु कहे तब और वहाँ जाने के लिए तैयार हों को देखा था। आज हम इस दूसरे प्रयोजन के दूसरे भाग जब “वह उन्हें” भेजे तब ही जाएं को देखेंगे। प्रभु की आज्ञाकारिता में होकर कार्य करना बहुत आवश्यक है, अन्यथा शैतान हमें बहका कर गिरा देगा या किसी हानि अथवा बुराई में फंसा देगा और हमारी सेवकाई को व्यर्थ कर देगा। प्रभु की आज्ञाकारिता ही हमारी सुरक्षा है। हम आते समय और परिस्थितियों को नहीं जानते हैं, किन्तु प्रभु जानता है; इसीलिए वह हमें तब ही कहीं आगे बढ़ने के लिए कहता है जब वह निश्चिंत होता है कि अब आगे बढ़ने में कोई खतरा नहीं है। इसका एक उदाहरण और स्वरूप हम इस्राएलियों की मिस्र से कनान की यात्रा में देखते हैं। गिनती 9:18-23 में लिखा है कि जब तक यहोवा की उपस्थिति का बादल उन पर छाया रहता था, इस्राएली छावनी डाले रहते थे। वे तब ही कूच करते थे जब यहोवा की उपस्थिति का बादल उन पर से ऊपर उठता था; चाहे वह रात भर तक ही छाया रहे, अथवा कुछ दिन, या महीने, या वर्ष भर तक। उनकी यात्रा परमेश्वर के कहने पर ही होती थी, और कब कहाँ छावनी डालनी है, वह स्थान भी यहोवा ही निर्धारित करता था (व्यवस्थाविवरण 1:32-33)।
गिनती 13 और 14 अध्याय में हम देखते हैं कि कनान के किनारे पर पहुँच कर, यह जानते हुए भी कि परमेश्वर उनको एक उत्तम देश दे रहा है, मनुष्यों की बातों में आकर पहले तो इस्राएलियों ने कनान में प्रवेश करने से मना किया। फिर जब यहोवा उनके इस अविश्वास से क्रोधित हुआ, तो फिर से उसकी इच्छा और आज्ञा के विरुद्ध, उन्होंने अपने ही निर्णय के अनुसार कनान में प्रवेश करना चाहा; और दोनों ही परिस्थितियों में उन्हें भारी हानि उठानी पड़ी - उनकी कुछ दिन की यात्रा 40 वर्ष की यात्रा बन गई, जिसमें बलवा करनी वाली सारी पीढ़ी के लोग मारे गए, उन बलवाइयों में से एक भी कनान में प्रवेश नहीं करने पाया। कनान में प्रवेश करने के बाद यहोशू ने परमेश्वर की आज्ञाकारिता में असंभव प्रतीत होने वाली विधि से, यरीहो पर एक महान विजय प्राप्त की। इसके तुरंत बाद हम यहोशू 6 और 7 अध्याय में देखते हैं कि एक छोटे से स्थान ऐ पर जब यहोशू ने अपनी बुद्धि और लोगों की सलाह के अनुसार चढ़ाई की, तो मुँह की खाई, उसे भारी पराजय मिली; अंततः उन्हें ऐ पर विजय परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार करने से ही मिली। नए नियम में भी पौलुस की सुसमाचार प्रचार सेवकाई में हम ऐसे ही उदाहरण देखते हैं। पौलुस, परमेश्वर की ओर से अन्यजातियों में सुसमाचार प्रचार के लिए नियुक्त किया गया था (गलातीयों 2:7-9)। हम प्रेरितों 16:6-10 से देखते हैं कि अपनी इसी सेवकाई को करने के प्रयास में दो बार पवित्र आत्मा ने उसे उसके गंतव्य में जाने से रोका; और फिर अंततः उसे मकिदुनिया जा कर प्रचार करने का दर्शन दिया, और तब पौलुस वहाँ इस निश्चय के साथ गया परमेश्वर ने उसे वहाँ भेजा है।
प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने पुनरुत्थान के बाद शिष्यों से कहा कि वे यरूशलेम में प्रतीक्षा करें और जब पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त कर लें, तब ही सुसमाचार प्रचार की सेवकाई पर निकलें (प्रेरितों 1:4, 8)। वे शिष्य इससे पहले भी प्रभु के कहे के अनुसार इसी सेवकाई के लिए जा चुके थे और सेवकाई के दौरान उन्होंने बहुत से आश्चर्यकर्म भी किए थे (मरकुस 6:7-13; लूका 10:1-17)। किन्तु अब, प्रभु ने उन्हें प्रतीक्षा करने और निर्धारित सामर्थ्य प्राप्त करने के बाद ही सेवकाई पर निकलने के लिए कहा। प्रभु के कहे के अनुसार, वे शिष्य उस प्रतीक्षा में रहे और अपना समय प्रार्थना में और परमेश्वर की स्तुति करने में बिताते रहे (लूका 24:50-53; प्रेरितों 1:12-14)। जो लोग चाहे प्रभु के नाम से, किन्तु अपनी ही इच्छा के अनुसार प्रचार और कार्य करते हैं, प्रभु उसे ‘कुकर्म’ कहता है, और उन लोगों को ग्रहण नहीं करता है “जो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे; हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यवाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत अचम्भे के काम नहीं किए? तब मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करने वालों, मेरे पास से चले जाओ” (मत्ती 7:21-23)।
प्रभु हमें अपने लिए प्रयोग करना चाहता है; उसने अपने प्रत्येक शिष्य के लिए पहले से ही कार्य निर्धारित कर के रखे हैं (इफिसियों 2:10); किन्तु साथ ही वह यह भी चाहता है कि हम उन कार्यों को उसके कहे के अनुसार करें। प्रभु के शिष्यों को न केवल प्रभु के लिए जाने के लिए तैयार रहना चाहिए, वरन जब और जहाँ प्रभु कहे जाने, तब और वहाँ जाने वाला होना चाहिए। शिष्यों के प्रार्थना और वचन के अध्ययन में बने रहने के द्वारा प्रभु अपनी सेवकाई के लिए मार्गदर्शन करता है। हमें हर निर्णय प्रभु के कहे के अनुसार लेने वाली मनसा रखनी चाहिए।
यदि आप प्रभु के शिष्य हैं, तो क्या आप ने अपने आप को प्रभु को उपलब्ध करवाया है कि वह आपको अपनी सेवकाई में प्रयोग करे और आशीषित करे? यदि आप प्रभु के लिए उपयोगी, और उससे आशीषित होना चाहते हैं, तो क्या आप प्रभु के प्रयोजनों के अनुसार निर्णय तथा कार्य कर रहे हैं, या अपनी ही इच्छा अथवा किसी अन्य मनुष्य के कहे अथवा निर्देशों के अनुसार कर रहे हैं। प्रभु को स्वीकार्य कार्य वही है जो प्रभु के कहे पर, उसकी इच्छा के अनुसार किया जाए; अन्यथा प्रभु के नाम से किन्तु उसकी इच्छा और निर्देश के बाहर किया गया हर कार्य व्यर्थ और ‘कुकर्म’ है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- अय्यूब 38-40
- प्रेरितों 16:1-21
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Christian Disciple – Obedient to the Lord
Under the heading of Christian Faith and Discipleship, we are studying the purposes that the Lord Jesus had stated for His disciples in Mark 3:13-15, at the time of choosing them. In the previous article we have seen from the second purpose of the Lord, “that He might send them out to preach” (vs. 14), its first part, i.e., the disciple of the Lord should be willing and available to go whenever and wherever the Lord asks him to go. Today we will look into the second part “He might send”, of this second purpose. It is absolutely necessary for a disciple of the Lord to carry out his ministry in complete obedience to the Lord, otherwise Satan will lead him astray, make him fall into errors, or entangle him in something harmful or bad, and render the ministry vain. The obedience of the Lord is the security of the disciple. We do not know the coming times or the situations, but the Lord knows them all; that is why He never asks His people to move in any direction unless He is sure about their security and well-being in it. We see an example of this in the journey of the Israelites from Egypt to Canaan. It is written in Numbers 9:18-23 that the Israelites continued to camp as long as the cloud of the Lord’s presence covered their camp. They would only move when the cloud of the Lord’s presence would move from their camp; and this cloud could remain only for a night, or a few days, or months, or even a year. Their journey was only at the behest of God, and it was God who determined when and where they had to camp (Deuteronomy 1:32-33), and for how long.
We see in Numbers chapters 13 and 14, on reaching the boundaries of Canaan, despite knowing that God was giving them a good land to settle in, the Israelites, influenced by the opinion of some men, first refused to enter Canaan. When God was angry with them because of this, then despite God’s command to not do so, based on their own will and decision, they decided to go contrary to God’s instructions and enter Canaan; and because of both of these things, they had to suffer a heavy loss - their few days journey turned into an arduous trek of forty years, in which all those who had rebelled against God died, and none of those rebellious Israelites could enter Canaan. Similarly, we see that on entering Canaan, through his obedience to the instructions of the Lord, Joshua gained a tremendous victory over a seemingly impossible situation of conquering Jericho. But immediately after this, we see in Joshua chapters 6 and 7 that when Joshua tried to attack and win over a small place Ai, through his own wisdom and people’s and guidance, he had to face a terrible defeat; and eventually they could gain victory over Ai only by being obedient to the Lord God. Paul was appointed by the Lord to preach the gospel to the Gentiles (Galatians 2:7-9). We see from Acts 16:6-10 that when he tried to fulfill this ministry in the places of his choosing, twice the Holy Spirit prevented him from doing so. Eventually Paul, through a vision, was sent to Macedonia, confident that he was being sent there by the Lord God.
The Lord Jesus too, after His resurrection, told His disciples to wait in Jerusalem till they receive the power of the Holy Spirit, and only then should they go out to preach the gospel all over the world (Acts 1:4, 8). Those disciples had been sent by the Lord for the same ministry earlier as well and they had done many miraculous works in that ministry (Mark 6:7-13; Luke 10:1-17). But now, the Lord had asked them to wait, and go for their appointed ministry only after receiving the required power. According to the instructions of the Lord, they waited to receive that power, spending their time in prayers and praising God (Acts 1:12-24; Luke 24:50-53). Those people who do preaching and ministry, though in the name of the Lord, but on their own understanding, according to their own will, the Lord Jesus calls their work and ministry “practicing lawlessness” and totally rejects it “"Not everyone who says to Me, 'Lord, Lord,' shall enter the kingdom of heaven, but he who does the will of My Father in heaven. Many will say to Me in that day, 'Lord, Lord, have we not prophesied in Your name, cast out demons in Your name, and done many wonders in Your name?' And then I will declare to them, 'I never knew you; depart from Me, you who practice lawlessness!'” (Matthew 7:21-23).
The Lord Jesus wants to use His people for His work; He has already determined things to be done by each of His people (Ephesians 2:10); but He also wants that we do those things according to His instructions. The Lord’s disciples should not only be willing and ready to go, but also always be prepared to go whenever and wherever the Lord asks them to go. The Lord guides His disciples as they spend their time in prayer and studying His Word. We should take our every decision in and according to the will of God.
If you are a disciple of the Lord, then have you made yourself available to the Lord for Him to use you, as He wants, and thereby to bless you? If you want to be useful for the Lord and be blessed by Him, then are you taking decisions according to the Lord’s purposes for you; or, are you doing things according to your own will or on the advice of others? Only that which is done in the will of the Lord and according to His instructions, is acceptable to the Lord; else, everything else even if it is done in His name but outside His will and instructions, no matter how impressive and howsoever pleasing to the people it may be, it is vain and “lawlessness” or “iniquity”.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Job 38-40
Acts 16:1-21