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गुरुवार, 26 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 61 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 47

परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 15

 

    पिछले लेख से हमने यह देखने और सीखने के लिए कि लोग और प्रचारक क्यों और कैसे परमेश्वर के लिखित वचन से बाहर चले जाते हैं, 2 कुरिन्थियों 2:17 से देखना आरम्भ किया है। हमने पिछले लेख में देखा था कि परमेश्वर के वचन के बाहर जाने का मुख्य कारण है स्वार्थ-सिद्धि और भौतिक लाभ की वस्तुओं को अर्जित करना। हमने पौलुस की और उन “बहुतों”, झूठे प्रचारकों और शिक्षकों की सेवकाई में विरोधाभास को भी देखा था। जबकि पौलुस परमेश्वर के भय में होकर, परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए, परमेश्वर के वास्तविक वचन का खराई से प्रचार करता था; ये “बहुत से” झूठे प्रचारक और शिक्षक अपनी ही बातें, अपने ही सिद्धान्त प्रचार करते और सिखाते थे, मुख्यतः वे बातें जो श्रोता सुनना चाहते थे, न कि खराई से परमेश्वर का वास्तविक वचन।


    कोई यह तर्क दे सकता है कि हो सकता है कि पौलुस को एक प्रकार की सेवकाई और परमेश्वर के वचन का एक पक्ष सौंपा गया था, और इन लोगों को एक भिन्न सेवकाई और प्रचार करने के लिए वचन का भिन्न पक्ष सौंपा गया हो। अब, क्योंकि वे पौलुस की शैली और बातों के समान प्रचार नहीं करते थे, इसलिए केवल इसी आधार पर उन्हें गलत क्यों माना जाए और उनका अनुसरण करना मना क्यों किया जाए? परमेश्वर ने हमें इसके बारे में किसी संदेह अथवा दुविधा में नहीं छोड़ा है; परमेश्वर का वचन हमें दिखता है कि उसके वचन के गुण और उद्देश्य क्या हैं, और जब उसे उचित रीति से उपयोग किया जाता है तो वह कैसे कार्य करता है। तात्पर्य यह कि जिस भी प्रचार और शिक्षा में, तथा, प्रचारक और शिक्षक में, बाइबल में उल्लेखित वचन के ये गुण और उद्देश्य नहीं हैं, वह बाइबल के अनुसार सही और अनुसरण करने योग्य भी नहीं है। हम इन गुणों और उद्देश्यों को संक्षेप में तीन स्थानों से देख और समझ सकते हैं:

·        पौलुस ने तिमुथियुस को लिखा कि परमेश्वर के वचन को उसके निर्धारित उद्देश्यों “उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये” उपयोग करे। परमेश्वर द्वारा उसके विषय में निर्धारित इन चार उद्देश्यों में से कम से दो (समझाना और सुधारना – हिन्दी में कुछ हलके शब्द लिखे गए हैं, मूल भाषा और अंग्रेज़ी अनुवादों में प्रयोग किए गए शब्द अधिक कठोर हैं), नहीं तो तीन (धर्म की शिक्षा), ऐसे उद्देश्य हैं जिन्हें लोग उन पर लागू किया जाना पसंद नहीं करते हैं; और परमेश्वर के अधिकांश सेवक ये करने में बहुत संकोच भी करते हैं। शेष बचे हुए उद्देश्य “धर्म की शिक्षा” के लिए भी अधिकांशतः परमेश्वर के वचन की अवहेलना की जाती है, और उसे बदला जाता है, या उसके स्थान पर मनुष्यों की बनाई हुई बातें सिद्धांतों के समान सिखाई और लागू की जाती है। ये सभी परमेश्वर के वचन से आगे बढ़कर करने के उदाहरण हैं। जी शिक्षा और शिक्षक में ये गुण और उद्देश्य नहीं हैं, वह परमेश्वर के वचन के अनुसार खरी और सही भी नहीं है।

·        पौलुस ने 2 तिमुथियुस 4:2-5 में तिमुथियुस को ज़ोर देकर कहा कि वह दुःख उठाकर भी परमेश्वर के वचन का प्रचार करे, और अपनी सेवकाई को पूरा करने के लिए जहाँ आवश्यक हो वहाँ लोगों को समझाने और सिखाने के लिए डाँटने और उलाहना देने से पीछे न हटे। गलत शिक्षाएं देने वाले शैतान के जन, परमेश्वर के वचन की सही और खरी शिक्षा देने के लिए यह कभी नहीं करेंगे, क्योंकि उनका उद्देश्य ही लोगों को सही से दूर और गलत में फँसाए रखना है।

·        नए नियम में, परमेश्वर के वचन को दो-धारी तलवार से भी अधिक तेज़ और चोखा कहा गया है (इब्रानियों 4:12), जो मनुष्य के भीतर तक जाकर “मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है।” जिस प्रकार से तलवार का शरीर में घुसना और काटना पीड़ादायक होता है, उसी प्रकार से जब परमेश्वर का वचन पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य में प्रचार किया जाता है, तो वह मनुष्य के हृदय को छेदता है, उसमें छिपे हुए पापमय विचारों और बातों को खोल देता है। हृदय या विवेक का यह छेदा जाना एक पीड़ादायक और उजागर कर देने वाला अनुभव होता है, जो केवल सही वचन के खराई से प्रचार किए जाने के साथ ही देखा जाता है, अन्यथा नहीं।

 

    अब यदि किसी को परमेश्वर के वचन को “बेचना” या अपने लाभ के लिए उपयोग करना है, तो फिर उन्हें उसे आकर्षक और मनुष्यों को भावता हुआ बना कर प्रस्तुत करना होगा, जिस से कि प्रचारक को प्रशंसा भी मिले और उसकी अच्छी कमाई भी हो। इसके लिए उसे परमेश्वर के वचन में “उपयुक्त” फेर-बदल भी करने होंगे ताकि वह फिर तलवार के समान गहराई से छेदने और उजागर करने वाला न रहे; और न ही वह प्रचारक लोगों को सत्य का अनुसरण करने के लिए डाँटने, उलाहना देने, गलतियों को सुधारने की बातें करेगा। इसके बारे में हम अगले लेख में देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Appropriately Handling God’s Word – 15

 

    Since the previous article have started looking at 2 Corinthians 2:17, to learn how and people and preachers go beyond what is written in God’s Word. We saw in the previous article that the main reason for going beyond God’s Word is selfish gain and gathering material possessions. We also saw the contrast between the ministry of Paul and these “many” false preachers and teachers. While Paul preached in the fear of God, to please God, and the actual Word of God; these “many” false preachers and teachers preached and taught their own doctrines and things, mainly what the audience wanted to hear, and not the actual Word of God.


    One can argue that while Paul may have been given one kind of ministry and aspect of God’s Word, these people may have been given a different ministry and a different aspect of God’s Word to preach. Just because they did not follow Paul’s style and content of preaching, does not mean that they were wrong, and not to be followed. God has not left us in any doubt or ambiguity about this; God’s Word shows us its purposes and characteristics, and how it acts when used the way it is meant to be used. The implication is that in whichever preaching and teaching or preacher and teacher these characteristics and purposes mentioned in the Bible are not present, Biblically, that is neither correct, nor to be followed. We can briefly see and understand these characteristics and purposes from three places in the Bible:

·        Paul wrote to Timothy about using God’s Word for its God intended purposes, “for doctrine, for reproof, for correction, for instruction in righteousness” (2 Timothy 3:16-17). Of these four God intended purposes for His Word, at least two (reproof and correction), if not three (instruction in righteousness), are purposes that people do not like being applied upon them; and most ministers of God are quite reluctant to exercise them. Even for the remaining purpose, “for doctrine”, God’s Word is often ignored or modified, and decisions of men are taught and implemented as doctrines from God. These are all examples of going beyond God’s Word. If any preacher or preaching does not have these characteristics and purposes, then according to God’s Word, it is not honest and correct either.

·        Paul exhorted Timothy in 2 Timothy 4:2-5, endure afflictions and preach God’s Word, even rebuking and exhorting people if it is so required, in fulfilling the ministry. The agents of Satan, engaged in preaching and teaching wrong doctrines will never do this, since their purpose is to keep people away from the correct and honest teachings, and entangled in the wrong and false doctrines.

·        In the New Testament, God’s Word has been likened to being even sharper than a two-edged sword (Hebrews 4:12), that can penetrate deep within a man and is a “discerner of the thoughts and intents of the heart” of persons. As the penetrating and cutting of the sword into the body is painful, similarly, when the Word of God is presented with the guidance and power of the Holy Spirit, it penetrates into the heart of man and lays open the sinful thoughts and intents of the heart. This pricking of the heart or of the conscience is a painful and exposing process, that is seen only with the right Word being preached correctly, not otherwise.

 

    Now, if someone has to “peddle” the Word of God, they will have to make it sound attractive and pleasing to men, so that the preacher receives a good appreciation, and therefore a good remuneration from the audience. For this, he will have to ‘suitably’ alter the Word of God, so that it no longer serves as a ‘sword’ that cuts deep and lays open the hidden things, nor will he resort to correcting wrongs, rebuking people, and exhort them for following the truth. We will see about this in the next article.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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