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बुधवार, 26 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - दूसरा स्तंभ; संगति रखना


प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का दूसरा स्तंभ, संगति में साथ      

       अपने पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु पर लाए गए विश्वास द्वारा पापों की क्षमा तथा उद्धार प्राप्त करने पर प्रभु व्यक्ति को अपनी कलीसिया, अपने लोगों के समूह के साथ जोड़ देता है। प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ दिए जाने वाले व्यक्तियों के जीवनों में आरंभ से ही सात बातें भी देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में बताया गया है। इन सात में से चार बातें, प्रेरितों 2:42 में लिखी गई हैं, और उनके लिए यह भी कहा गया है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग उन मेंलौलीन रहे। इन चार बातों को मसीही जीवन तथा कलीसिया को स्थिर और दृढ़ बनाए रखने वाले चार स्तंभ भी कहा जाता है। पिछले लेखों में हम सात में से चार बातें देख चुके हैं। आज हम पाँचवीं बात, जो 2:42 की दूसरी बात, और कलीसिया तथा मसीही जीवन का दूसरा स्तंभ है, ‘संगति रखनाके बारे में देखेंगे। 

       सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य का अकेले रहना परमेश्वर को पसंद नहीं था; वह आदम को एक ऐसा सहायक देना चाहता था जो उससे मेल खाता हो (उत्पत्ति 2:18)। इसलिए परमेश्वर पहले पृथ्वी के सभी जीव-जंतुओं को आदम के पास लाया, आदम ने उन सभी के नाम रखे, किन्तु उनमें से कोई भी आदम से मेल रखने वाला, उसका सहायक बन सकने वाला नहीं मिला (उत्पत्ति 2:19-20)। आदम को यह एहसास दिलाने के बाद कि वह सारी सृष्टि के सभी जीवों से भिन्न है, परमेश्वर ने उसके समान एक सहायक की रचना करके उसे आदम के साथ रख दिया (उत्पत्ति 2:21-22)। अर्थात, सृष्टि के आरंभ से ही न केवल मनुष्य परस्पर संगति में रहते थे, वरन परमेश्वर भी उनके साथ संगति करता था, उनसे मिलने आता था (उत्पत्ति 3:8)। साथ ही, शैतान हव्वा को तब ही बहका कर पाप में गिराने पाया जब वह अकेली थी (उत्पत्ति 3:1-2); अकेली स्त्री पाप में गिरी, फिर उसने आदम को भी पाप गिराया (उत्पत्ति 3:6), और उस पाप के कारण वे दोनों परमेश्वर की संगति से भी दूर हो गए। परस्पर संगति में तथा परमेश्वर के साथ संगति में बने रहने में बहुत सामर्थ्य है; पाप में पतित और पाप के कारण भ्रष्ट बुद्धि वाले हम मनुष्य इसे नहीं समझते हैं, किन्तु शैतान इस जानता और समझता है; इसीलिए वह हमें भी एक-दूसरे से दूर रखने तथा हमें परमेश्वर से दूर रखने के विभिन्न उपाय कार्यान्वित करता रहता है, कि कहीं हम परस्पर और परमेश्वर के साथ संगति की सामर्थ्य को पहचान कर, एक-मनता के साथ रहें और उसके लिए परेशानी का कारण न बन जाएं। 

राजा सुलैमान ने लिखा, “एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है। क्योंकि यदि उन में से एक गिरे, तो दूसरा उसको उठाएगा; परन्तु हाय उस पर जो अकेला हो कर गिरे और उसका कोई उठाने वाला न हो। फिर यदि दो जन एक संग सोए तो वे गर्म रहेंगे, परन्तु कोई अकेला क्योंकर गर्म हो सकता है? यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका सामना कर सकेंगे। जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती” (सभोपदेशक 4:9-12)। प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने शिष्यों से उनकी एक-मनता की सामर्थ्य के विषय में कहा, “फिर मैं तुम से कहता हूं, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिये जिसे वे मांगें, एक मन के हों, तो वह मेरे पिता की ओर से स्वर्ग में है उन के लिये हो जाएगी। क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं वहां मैं उन के बीच में होता हूं” (मत्ती 18:19-20)। अर्थात, जहाँ भी प्रभु के लोग एक मन होकर साथ हैं, सहमत हैं, वहाँ प्रभु परमेश्वर भी उनके साथ उस बात में सहमत है, उनके साथ विद्यमान है; वे चाहे संख्या में दो या तीन ही क्यों न हों! प्रभु यीशु ने हमारे पापों की क्षमा और उद्धार के लिए किए गए कार्य के द्वारा न केवल हमारे बीच के विभाजनों की दीवार को हटा दिया और हम सभी मनुष्यों को एक साथ जोड़ दिया, वरन साथ ही हमें एक साथ मिलाकर परमेश्वर का निवास-स्थान भी बना दिया, और परमेश्वर के साथ संगति में भी बहाल कर दिया (इफिसियों 2:11-22), हमारा मेल-मिलाप पिता परमेश्वर के साथ भी करवा दिया (रोमियों 5:1, 10-11) 

क्योंकि हमारा यह साथ मिलकर रहना और परमेश्वर की संगति में रहना हमारे व्यक्तिगत मसीही जीवन और कलीसिया की सामर्थ्य के लिए, तथा प्रभु के लिए उपयोगी एवं प्रभावी होने का कारगर उपाय है, इसीलिए शैतान हमें परस्पर एक-मनता में नहीं रहने देता है, और परमेश्वर के साथ भी हमारी संगति को बाधित करता रहता है। उसने विभाजित रखने का यह षड्यंत्र कलीसिया के आरंभ से कार्यान्वित कर दिया था (रोमियों 15:5-6; 1 कुरिन्थियों 1:10-13; 11:18; 2 कुरिन्थियों 12:20; गलातियों 5:15; याकूब 4:1-2; आदि), और आज भी प्रभु के लोगों को एक मन होकर साथ रहने से रोकने के उपाय करता रहता है। यह एक दुख भरा कटु सत्य है कि आज हम प्रभु के लोग, एक ही प्रभु, एक ही कलीसिया के सदस्य होते हुए भी, साथ मिलकर रहने और कार्य करने के उपाय नहीं ढूँढ़ते हैं, वरन एक दूसरे से अलग रहने, अलग-अलग रहकर कार्य करने के कारण और तरीके ढूँढ़ते, और निभाते रहते हैं। जबकि होना इसका विपरीत चाहिए (इफिसियों 4:1-6)। इसीलिए हमारे व्यक्तिगत मसीही जीवन और हमारी कलीसिया के जीवनों और गवाहियों में इतनी दुर्बलता है; शैतान इतनी सरलता से संसार में हमें प्रभु के लिए निष्क्रिय, निष्फल, और जगत में उपहास का विषय बनाए रखता है। आरंभिक कलीसिया के लोग परस्पर संगति रखने में भी लौलीन रहते थे, इसीलिए परमेश्वर की सामर्थ्य उनमें रहती थी, उनके द्वारा कार्य करती थी, “निदान, हे भाइयो, आनन्दित रहो; सिद्ध बनते जाओ; ढाढ़स रखो; एक ही मन रखो; मेल से रहो, और प्रेम और शान्ति का दाता परमेश्वर तुम्हारे साथ होगा” (2 कुरिन्थियों 13:11)

यदि हम मसीही विश्वासियों को, प्रभु की कलीसिया के सदस्यों को, इन अंत के दिनों में अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ रहना है, और प्रभु के लिए उपयोगी एवं प्रभावी होना है, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस प्रेरित में होकर फिलिप्पी की कलीसिया को लिखे गए आग्रह को पूरा करना होगा, “सो यदि मसीह में कुछ शान्ति और प्रेम से ढाढ़स और आत्मा की सहभागिता, और कुछ करुणा और दया है। तो मेरा यह आनन्द पूरा करो कि एक मन रहो और एक ही प्रेम, एक ही चित्त, और एक ही मनसा रखो। विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपनी ही हित की नहीं, वरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे। जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो” (फिलिप्पियों 2:1-5)। इसलिए, यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु के भय में होकर इस आग्रह के निर्वाह का प्रयास करते रहें; कलीसिया में कभी मतभेद और विभाजनों का नहीं, अपितु प्रेम और मेल-मिलाप का कारण बनें, तब ही आप परमेश्वर की संतान कहलाएंगे (मत्ती 5:9)  

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 14-15     
  • मत्ती 17