प्रस्तावना – 1
आज से हम एक नई श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं, जो परमेश्वर की सहायता, बुद्धिमता, और मार्गदर्शन में, उसके तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता के द्वारा, एक आशीषित और सफल जीवन जीने के बारे में है। यह जीवन परमेश्वर के पुत्र प्रभु यीशु मसीह में विश्वास लाने और स्वेच्छा से उसे अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करने से नया-जन्म प्राप्त करने, अर्थात उद्धार पाने से मिलता है। उस जीवन को जीने के लिए हमें उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा को दे दिया जाता है, जो हमारा सहायक, मार्गदर्शक, और एक अद्भुत जीवन के लिए सामर्थ्य के स्त्रोत के रूप में प्रत्येक मसीही विश्वासी में हमेशा निवास करता है।
यह श्रृंखला राजा दाऊद द्वारा अपने पुत्र सुलैमान को अपने स्थान पर अपना उत्तराधिकारी राजा नियुक्त करने के बाद दिए गए निर्देशों पर आधारित है। दाऊद द्वारा सुलैमान को दिए गए निर्देशों को हम चार मुख्य शीर्षकों के अंतर्गत देखेंगे। किन्तु प्रत्येक शीर्षक की व्याख्या करते समय, हम विषय-वस्तु को कुछ और उप-शीर्षकों के अंतर्गत भी देखेंगे। विषय-वस्तु की प्रस्तुति और व्याख्या मुख्यतः ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इस्राएल के राजाओं के बारे में नहीं होगी, वरन हमारे वर्तमान के संकटपूर्ण अन्त के दिनों, जिन में हम रह रहे हैं, की आवश्यकताओं और दृष्टिकोण के अनुसार की जाएगी। हम दाऊद द्वारा सुलैमान को दिए गए निर्देशों से संकेत लेंगे, और फिर उनके बारे में परमेश्वर के वचन से सीखेंगे, कि हम नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को परमेश्वर को भावता हुआ जीवन जीने के लिए क्या करना चाहिए, अपना आंकलन करेंगे कि हम इसमें कहाँ चूक गए हैं, जांच कर देखेंगे कि कहीं शैतान ने हमें भरमा कर किसी गलत और बाइबल के विपरीत मार्ग पर बहका तो नहीं दिया है, किसी गलत धारणा अथवा सिद्धान्त में तो नहीं फँसा दिया है, और परमेश्वर के साथ अपने चलने को ठीक कर के सही मार्ग पर लौटेंगे, ताकि सभी समस्याओं और सताव के बावजूद हम अपने जीवनों में आशीषित और सफल हो सकें।
इस श्रृंखला के लिए हमारी अगुवाई करने वाला खंड होगा 1 राजाओं 2:2-4, जहाँ पर राजा दाऊद, अपने देहांत से पहले अपने युवा पुत्र सुलैमान को निर्देश दे रहा है। दाऊद ने सुलैमान को परमेश्वर की इच्छा में होकर राजा बनाया था (1 राजाओं 1:47-48; 1 इतिहास 28:5), और बाद में अन्य-जाति शासकों, जैसे कि हूराम और शीबा की रानी ने भी इस बात को माना (2 इतिहास 2:11-12; 9:8)। दाऊद द्वारा सुलैमान को दिए गए निर्देशों का विषय है किस प्रकार से वह एक परमेश्वर-भक्ति का जीवन जिए जिससे परमेश्वर कि वह परमेश्वर की कृपा में बढ़ता रहे, संपन्न रहे, और इस से आशीषित, सुरक्षित, और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई ज़िम्मेदारी, अर्थात इस्राएल पर शासन करने और उन्हें परमेश्वर के भय में सुरक्षित और समृद्ध बनाए रखने, में सफल बना रहे।
यह हमारे सामने कुछ बहुत महत्वपूर्ण लेकर आता है, जिस पर हम सभी को बहुत गंभीरता और गहराई से मनन करना चाहिए, तथा हमेशा उसे स्मरण रखना चाहिए – कि परमेश्वर द्वारा चुने जाने और नियुक्त किए जाने, उसकी कृपा का पात्र होने, परमेश्वर द्वारा ओहदा और ज़िम्मेदारियाँ मिलना इस बात की निश्चितता नहीं है कि परमेश्वर के जन के लिए जीवन सरल, सुरक्षित, और सकुशल होगा। शैतान हमेशा ही हमारी हानि करने और हमें बहकाने के प्रयास करता रहेगा (2 कुरिन्थियों 11:3; 1 पतरस 5:8)। सभी मसीही विश्वासियों को संसार में समस्याओं और सताव का सामना करना ही पड़ेगा (यूहन्ना 16:33; फिलिप्पियों 1:29; 2 तीमुथियुस 3:12)। मसीही विश्वासी कभी भी जीवन को सहज और हलके में नहीं ले सकते हैं, आराम से बैठकर मज़े नहीं ले सकते हैं। बल्कि उन्हें सदा “अपने अपने उद्धार का कार्य पूरा करते” रहना होगा (फिलिप्पियों 2:12) – इसका तात्पर्य उद्धार के लिए कार्य करना नहीं है; वरन अपने जीवन और कार्यों के द्वारा प्रभु यीशु मसीह के द्वारा उद्धार मिलने को दिखाना है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Introduction – 1
From today we are starting a new series on learning to lead a blessed and successful life with the help, wisdom and guidance of God, through being obedient to Him and His Word, after coming to faith in His Son the Lord Jesus Christ, voluntarily accepting Him as our Savior and Being Born-Again i.e., being saved, and thereby receiving the Holy Spirit as our helper and source of power for this wonderful life – a gift from God.
This series is based upon the instructions given by King David to his son Solomon, after appointing him as his successor, as the king of Israel. We will be considering David’s instructions to Solomon under four main headings. But while expounding upon each heading, we will also have and consider the matter through other sub-headings. The subject matter will mainly be presented and expounded not from an ancient historical perspective of the Kings of Israel, but from our present-day need and perspective of the perilous end-times that we are living through. We will be taking cue from David’s instructions to Solomon, and through that learning from God’s Word the Bible what we, as Born-Again Christian Believers need to do to live a life pleasing to the Lord God, evaluate where we may have faltered in doing this, check if we have been waylaid and misguided by Satan into something wrong, into some unBiblical belief or doctrine, and rectify our walk with God, come back on to the right path, so that even through these problems and persecutions we may be blessed and successful in our lives.
Our lead portion for this series will be 1 Kings 2:2-4, where King David, before his death, is instructing his young son, Solomon. David made Solomon as King of Israel in the will of God (1 Kings 1:47-48; 1 Chronicles 28:5), and even the Gentile rulers like King Hiram and the Queen of Sheba acknowledged this (2 Chronicles 2:11-12; 9:8). The content of David’s instructions to Solomon is about how to live a godly life, to grow and prosper in God's favor, and thereby be blessed, safe and successful in his God given responsibility, i.e., reign over Israel and keep them safe and prosperous in the fear of God.
This brings before us something very important which we should all very seriously ponder over and always bear in mind – being the chosen of God, having God’s favor, receiving a God given status and responsibilities, is no guarantee of life being easy, safe, and secure for God’s people. Satan will always keep trying to mislead and harm us (2 Corinthians 11:3; 1 Peter 5:8). All Christian Believers will always suffer persecution and problems in this world (John 16:33; Philippians 1:29; 2 Timothy 3:12). Christian Believers can never take life for granted, sit back and enjoy. Rather, they have to always be “working out their salvation” (Philippians 2:12) – not working for their salvation, i.e., through their life and works, they should be demonstrating their being saved by the Lord Jesus.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.