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सोमवार, 20 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 26

 

पाप का समाधान - उद्धार - 22

पिछले तीन सप्ताह से हम मनुष्य के पाप के समाधान और निवारण, और इस कार्य में प्रभु यीशु मसीह की भूमिका के विषय में देखते और सीखते हुए आ रहे हैं। आज से हम इस विषय का निष्कर्ष, प्रभु यीशु मसीह ने यह कार्य किस प्रकार किया को देखना आरंभ करेंगे। अभी तक जो हमने देखा है, आज उसका एक संक्षिप्त पुनः अवलोकन कर लेते हैं; कल प्रभु के द्वारा मनुष्यों के उद्धार के लिए किए गए कार्य को परमेश्वर के वचन बाइबल के पदों के साथ देखेंगे और समझेंगे। 

अभी तक के विवरण का सार इस प्रकार से है:

हमने परमेश्वर के वचन बाइबल की पहली पुस्तक के आरंभिक तीन अध्यायों में से देखा है कि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में सृजा और अपनी ही श्वास से उसे जीवन प्रदान किया। उसके सृजे जाने के समय मनुष्य निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष, और पवित्र था। उन प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा, के लिए परमेश्वर ने एक आशीष का स्थान - अदन की वाटिका को लगा कर दिया था, जहाँ पर परमेश्वर उनसे संगति रखता था, उनसे मिला करता था। परमेश्वर ने केवल एक को छोड़, अदन की वाटिका के अन्य सभी फलों को मनुष्य के खाने के लिए उपलब्ध करवाया था; और मनुष्य को चेतावनी दी थी कि जिस दिन उसने वह वर्जित फल खाया, उसी दिन उसकी मृत्यु हो जाएगी। किन्तु शैतान के बहकावे में आकर मनुष्य ने परमेश्वर की बात पर, और उनके प्रति परमेश्वर की भली मनसा पर संदेह किया, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की, और उस वर्जित फल को कहा लिया। इसी अनाज्ञाकारिता के कारण पाप का संसार में प्रवेश हुआ, जिसका दुष्प्रभाव सारी सृष्टि में फैल गया और मनुष्य में पाप करने की प्रवृत्ति आ गई, और फिर वंशागत रीति से एक से दूसरी पीढ़ी में चलती चली गई। परिणाम स्वरूप, स्वाभाविक रीति से गर्भ में आने और जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य में पाप का दोष और पाप करने की प्रवृत्ति उसके गर्भ में आने, जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक बनी रहती है। 

मृत्यु का अर्थ है एक अपरिवर्तनीय पृथक हो जाना, ऐसा जिसे कोई भी मनुष्य अपने किसी भी प्रयास से पलट कर पहले की स्थिति को बहाल नहीं कर सकता है। मृत्यु दो प्रकार की है - आत्मिक और शारीरिक। आत्मिक मृत्यु अर्थात पाप के कारण परमेश्वर से अलग हो जाना, क्योंकि परमेश्वर पाप के साथ समझौता और संगति नहीं कर सकता है - जिस दिन मनुष्य ने पाप किया, उसी दिन वह परमेश्वर की संगति से पृथक हो गया। शारीरिक मृत्यु, अर्थात शरीर का क्षय होते चले जाना, और अंततः वापस मिट्टी में मिल जाना - यह प्रक्रिया भी पाप करते ही मनुष्य में आरंभ हो गई, और अंततः सभी मनुष्य देर-सवेर मर जाते हैं; मनुष्य के जन्म लेते ही उसकी शारीरिक मृत्यु की ओर निरंतर बढ़ते जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है; तथा वह जन्म से ही पाप के प्रभाव के अंतर्गत होने के कारण परमेश्वर से पृथक, अर्थात आत्मिक मृत्यु की दशा में होता है।

मनुष्य के पाप ने परमेश्वर को एक असंभव प्रतीत होने वाली विडंबना में डाल दिया। मनुष्य के प्रति उसका प्रेम, उसे मनुष्य को नाश होते हुए नहीं देखने देता; और परमेश्वर का निष्पक्ष न्यायी और धर्मी होना, उसे पाप को दण्ड दिए बिना नहीं छोड़ने देता। परमेश्वर कभी झूठ नहीं बोलता, उसकी कही बात सदा पूरी होती है, इसलिए पाप का दण्ड मृत्यु को भी पापी पर लागू किया जाना अनिवार्य था। अब इस विडंबना, इस असंभव प्रतीत होने वाली स्थिति का समाधान और निवारण क्या हो सकता था। जो मनुष्य के लिए असंभव था, परमेश्वर ने ही उसके लिए मार्ग बनाया। एक ऐसा मनुष्य जो निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष, पवित्र, परमेश्वर तथा उसके प्रति परमेश्वर की योजनाओं पर कभी संदेह न करने वाला, परमेश्वर का पूर्ण आज्ञाकारी हो, उसे पाप का दण्ड, परमेश्वर से दूरी और मृत्यु - आत्मिक एवं शारीरिक सहने की कोई आवश्यकता नहीं थी। यह सिद्ध मनुष्य यदि स्वेच्छा से मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनके स्थान पर स्वयं उन पापों का दण्ड अर्थात मृत्यु को सह ले, और मृत्यु को पराजित कर के वापस सदेह जीवित हो उठे, और फिर अपने इस बलिदान तथा पुनरुत्थान के लाभ को सेंत-मेंत सभी मनुष्यों को उपलब्ध करवा दे, तो इस समस्या का समाधान और निवारण हो जाएगा। परमेश्वर की बात भी पूरी हो जाएगी, उसके न्याय के माँग भी पूरी हो जाएगी, मृत्यु का प्रभाव भी जाता रहेगा, और फिर पापों के परिणाम से बचाया गया मनुष्य परमेश्वर की संगति में भी बहाल हो सकता है। 

किन्तु मनुष्य तो पाप के दोष और प्रवृत्ति में आ चुका था, स्वाभाविक रीति से जन्म लेने वाला हर मनुष्य पाप के दोष और प्रवृत्ति के साथ ही जन्म लेता। इसलिए वह तो कभी निष्पाप, निष्कलंक, और निर्दोष हो नहीं सकता था। इसलिए इस समाधान और निवारण को कार्यान्वित करने के लिए एक ऐसे मनुष्य की आवश्यकता थी जिसमें पाप का दोष और प्रवृत्ति भी न हो, और वह उपरोक्त सभी आवश्यकताओं को भी पूरा करता हो। इसलिए परमेश्वर स्वयं एक विशिष्ट रीति से मनुष्य बनकर, प्रभु यीशु मसीह के नाम से संसार में आ गया। परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से प्रभु यीशु ने संसार में एक विशेष रीति से तैयार की गई देह में होकर, जो इस कार्य के लिए समर्पित और आज्ञाकारी कुँवारी, मरियम की कोख में एक भ्रूण के समान रखी गई थी, प्रवेश किया। एक सामान्य मनुष्य के समान वह देह भ्रूण से लेकर मानव शिशु स्वरूप तक उस कोख में विकसित हुई, और उसने जन्म लेने के सारे अनुभव, अन्य किसी भी मनुष्य के समान सहे। फिर एक सामान्य, साधारण मनुष्य के समान दुख-सुख सभी कुछ अनुभव करते हुए प्रभु यीशु शिशु अवस्था से वयस्क हुए, किन्तु उन्होंने कभी भी मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में कोई पाप नहीं किया। लगभग तीस वर्ष की आयु में उन्होंने पृथ्वी की अपनी निर्धारित सेवकाई आरंभ की; लोगों को परमेश्वर के राज्य के आगमन के बारे में सिखाने और सचेत करने, तथा पापों से पश्चाताप करने का आह्वान किया, और सभी की भलाई करते रहे। 

लगभग साढ़े तीन वर्ष की सेवकाई के बाद, उन्हें तब के धर्म के अगुवों ने उनकी स्पष्टवादिता, खराई, और उन धर्म के अगुवों के दोगलेपन को प्रकट करते रहने के कारण उनके प्रति द्वेष और बैर के कारण पकड़ कर उस समय की सबसे क्रूर, पीड़ादायक और वीभत्स मृत्यु, जो समाज के सबसे निकृष्ट और जघन्य अपराध करने वालों को दी जाती थी - क्रूस की मृत्यु, उस समय के उनके शासक, रोमी गवर्नर, के हाथों दिलवाई। प्रभु यीशु मसीह क्रूस पर मारे गए, उन्हें कब्र में कफन में लपेट कर दफनाया गया, और कब्र के मुँह पर पत्थर लगा कर उसे मोहर-बंद कर दिया गया, किन्तु तीसरे दिन वे अपने कहे के अनुसार जीवित हो उठे, सार्वजनिक रीति से लोगों से मिलते रहे, दिखाई देते रहे, लोगों से बात करते रहे, उन्हें सिखाते-समझाते रहे, और फिर अपने शिष्यों की आँखों के सामने स्वर्ग पर उठा लिए गए। अपने स्वर्गारोहण से पहले उन्होंने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि वे सारे संसार में जाकर उनके द्वारा समस्त संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध करवाए गए पापों की क्षमा और उद्धार के मार्ग के बारे में उन्हें बताऐं और उन्हें प्रभु यीशु के शिष्य बनाएं, प्रभु की बातें सिखाएं। जो स्वेच्छा से प्रभु के द्वारा किए गए कार्य को स्वीकार करेगा, अपने पापों से पश्चाताप करेगा, और अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करेगा, वह पापों की क्षमा अर्थात उद्धार या नया जन्म पाकर अनन्तकाल के लिए परमेश्वर की संतान, उसके राज्य का वारिस बन जाएगा, और परमेश्वर की संगति में बहाल हो जाएगा।

प्रभु यीशु ने न तो कभी कोई धर्म दिया, न किसी धर्म को बनाने की शिक्षा अथवा आज्ञा दी, न किसी धर्म-विशेष को मानने-मनवाने, और न ही किसी का भी धर्म परिवर्तन करने की कोई बात अपने शिष्यों से कही। उन्होंने तो सभी मनुष्यों के पाप की प्रवृत्ति और दोष से मन परिवर्तन करने और पाप से क्षमा प्राप्त करने, तथा उनकी शिष्यता एवं आज्ञाकारिता में पापी मनुष्यों को पवित्र जीवन जीने के लिए सक्षम करे जाने की शिक्षा लोगों को बताने, और इसे स्वीकार करने का निर्णय उन लोगों के हाथों में ही छोड़ देने की आज्ञा दी।

प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है। यदि अभी भी आपने प्रभु यीशु के बलिदान के कार्य को स्वीकार नहीं किया है, तो  अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।   


बाइबल पाठ: 1 कुरिन्थियों 15:1-11 

1 कुरिन्थियों 15:1 हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो।

1 कुरिन्थियों 15:2 उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ।

1 कुरिन्थियों 15:3 इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया।

1 कुरिन्थियों 15:4 ओर गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा।

1 कुरिन्थियों 15:5 और कैफा को तब बारहों को दिखाई दिया।

1 कुरिन्थियों 15:6 फिर पांच सौ से अधिक भाइयों को एक साथ दिखाई दिया, जिन में से बहुतेरे अब तक वर्तमान हैं पर कितने सो गए।

1 कुरिन्थियों 15:7 फिर याकूब को दिखाई दिया तब सब प्रेरितों को दिखाई दिया।

1 कुरिन्थियों 15:8 और सब के बाद मुझ को भी दिखाई दिया, जो मानो अधूरे दिनों का जन्मा हूं।

1 कुरिन्थियों 15:9 क्योंकि मैं प्रेरितों में सब से छोटा हूं, वरन प्रेरित कहलाने के योग्य भी नहीं, क्योंकि मैं ने परमेश्वर की कलीसिया को सताया था।

1 कुरिन्थियों 15:10 परन्तु मैं जो कुछ भी हूं, परमेश्वर के अनुग्रह से हूं: और उसका अनुग्रह जो मुझ पर हुआ, वह व्यर्थ नहीं हुआ परन्तु मैं ने उन सब से बढ़कर परिश्रम भी किया: तौभी यह मेरी ओर से नहीं हुआ परन्तु परमेश्वर के अनुग्रह से जो मुझ पर था।

1 कुरिन्थियों 15:11 सो चाहे मैं हूं, चाहे वे हों, हम यही प्रचार करते हैं, और इसी पर तुम ने विश्वास भी किया।

एक साल में बाइबल:

·      सभोपदेशक 4-6

·      2 कुरिन्थियों 12