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प्रभु के लोगों के साथ प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होने का महत्व एवं अनिवार्यता
प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा जोड़ दिए लोगों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ के समय से ही सात बातें देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में दिया गया है। इनमें से अंतिम चार, एक साथ, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और इन्हें मसीही जीवन तथा कलीसिया की स्थिरता के लिए चार स्तंभ भी कहा जाता है; तथा इनके लिए इसी पद में यह भी लिखा है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग इन बातों का पालन करने में “लौलीन रहे”। हमने इन चारों में से तीसरी, और सातों में से छठी बात, “रोटी तोड़ना” या प्रभु के मेज़ में सम्मिलित होने के बारे में, पिछले लेख से देखना आरंभ किया है। पिछले लेख में हमने अपने शिष्यों के साथ फसह के पर्व का भोज खाने के दौरान प्रभु द्वारा अपनी इस मेज़ की स्थापना किए जाने के बारे में कुछ बातें और मसीही जीवन के लिए उनके अभिप्राय को देखा था। आज इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए प्रभु की मेज़ के महत्व के बारे में कुछ बातों को देखते हैं।
प्रभु की मेज़ में भाग लेने के विषय पवित्र आत्मा द्वारा 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में, प्रेरित पौलुस में होकर लिखवाया गया है, क्योंकि उस मण्डली में प्रभु की मेज़ का निरादर हो रहा था, वे लोग उस मेज़ में भाग लेने की गंभीरता और महत्व को अनदेखा करने लग गए थे। इस खंड के 23 पद में पौलुस यह स्पष्ट बता देता है कि प्रभु की मेज़ का यह दर्शन उसे प्रभु से ही प्राप्त हुआ, और उसने उन्हें भी पहुँचा दिया। इस खंड में प्रभु की मेज़ के विषय जो अनुचित बातें उन में देखी जा रही थीं, संक्षिप्त में, वे हैं:
अनुचित रीति से भाग लेने के कारण प्रभु की मेज़ उनके लिए हानि का कारण बन गई थी (पद 17, 27-32)
उन लोगों में परस्पर फूट और मतभेद थे, और विधर्मी लोग भी थे जो उस मेज़ में सम्मिलित होते थे (पद 18, 19)
प्रभु की मेज़ उनके लिए साथ मिलकर बैठने का नहीं, वरन भेद-भाव का और एक दूसरे को ऊँचा-नीचा दिखाने का माध्यम बन गई थी (पद 20-22, 33-34)
इस अनुचित व्यवहार के कारण उन्हें प्रभु से ताड़ना का सामना करना पड़ रहा था, यहाँ तक कि कुछ कि मृत्यु भी हो गई थी (पद 29-32)
पौलुस के द्वारा, पवित्र आत्मा ने उन्हें गंभीरता के साथ सचेत किया कि प्रभु की मेज़ में भाग लेते समय उन्हें भी, और आज हमें भी, उपरोक्त गलतियों को हटाना है, उचित रीति से भाग लेना है।
साथ ही इस खंड में दी गई मेज़ के उद्देश्य और महत्व की तीन बातों को भी ध्यान रखना है। ये तीन बातें हैं:
प्रभु की मेज़ खाने-पीने का भोज मनाने के लिए नहीं, वरन प्रभु के द्वारा दिए गए अपने बलिदान को स्मरण करने का अवसर है (पद 24-25)। प्रभु ने अपनी देह और लहू का बलिदान क्यों और कैसे दिया, क्या कुछ सहा। उचित गंभीरता, आदर, एवं श्रद्धा के साथ यह स्मरण करना प्रभु के दूसरे आगमन तक चलते रहना चाहिए।
प्रभु के मेज़ में भाग लेना, उसकी मृत्यु को प्रचार करने के लिए है (पद 26); अर्थात प्रभु के बलिदान के बारे में औरों को बताने, उन तक सुसमाचार पहुँचाने के लिए। मेज़ में भाग लेने के द्वारा भाग लेने वाला प्रभु की मृत्यु के प्रचार के प्रति अपने समर्पण और आज्ञाकारिता को स्मरण करता तथा दोहराता है।
प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप को, न किसी अन्य अथवा औरों को, जाँचना है कि वह उचित रीति से भाग ले रहा है कि नहीं; क्योंकि अनुचित रीति से भाग लेने वाला अपने ऊपर दण्ड को लाता है (पद 27-32)। अपने आप को जाँच कर, अपनी गलतियों और पापों को प्रभु के सामने मान कर, उनके लिए पश्चाताप करने और प्रभु से क्षमा माँगने के बाद ही मेज़ में भाग लेना उचित है।
प्रभु के द्वारा उसकी मेज में भाग लेने के औचित्य, उद्देश्य, और महत्व को समझने के द्वारा हम समझ सकते हैं कि प्रभु ने अपने लोगों को शैतान की चालाकियों और उसकी भ्रष्ट बातों से शुद्ध और पवित्र रखने के लिए (यूहन्ना 13:8b, 10a), तथा अपने शिष्यों को उसके सुसमाचार प्रचार के प्रति समर्पित एवं आज्ञाकारी बनाए रखने के लिए इस मेज़ की स्थापना की, और उसमें नियमित भाग लेते रहने के लिए कहा। इससे हम यह भी समझ सकते हैं कि क्यों यहूदा इस्करियोती को मेज़ में भाग नहीं मिला - क्योंकि वह मेज़ के उद्देश्यों को पूरा ही नहीं करता था। साथ ही हम यह भी समझने पाते हैं कि क्यों जो लोग एक रस्म के समान इसमें भाग लेते हैं, वे अपने लिए कितना बड़ा दण्ड मोल ले रहे हैं; क्योंकि मेज़ में भाग लेने से कोई प्रभु की दृष्टि में धर्मी नहीं बनता है - प्रभु ने तो जो उसकी दृष्टि में धर्मी हैं, उन्हीं के लिए मेज़ को स्थापित किया था, अधर्मियों को धर्मी बनाने के लिए नहीं। किन्तु अनुचित रीति से भाग लेने, या किसी को भाग दिलवाने के द्वारा व्यक्ति अपने लिए प्रभु से दण्ड और ताड़ना का भागी अवश्य बन जाता है। उचित रीति से भाग लेना आशीष का कारण है, क्योंकि व्यक्ति अपने आप को जाँच और सुधार कर मसीही जीवन में आगे बढ़ सकता है; और अनुचित रीति से या रस्म के समान भाग लेने और देने से व्यक्ति स्वयं ही अपने लिए दण्ड कमा लेता है।
क्योंकि प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले, व्यक्ति को अपने आप को जाँचना है, अपने पाप और गलतियों को प्रभु के सामने स्वीकार करना है, इसलिए मेज़ में भाग लेना भी एक उचित समय-अवधि के अनुसार होना चाहिए, जिससे अपने पिछले दिनों के जीवन को सहजता से स्मरण और पुनःअवलोकन किया जा सके। आरंभिक कलीसिया के लोग इसमें लौलीन रहते थे, प्रतिदिन, घर-घर में प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होते थे (प्रेरितों 2:46); किन्तु कुछ समय के पश्चात, यह सामूहिक एकत्रित होना, और रोटी तोड़ना या प्रभु के मेज़ में भाग लेना, सप्ताह के पहले दिन की आराधना सभा (1 कुरिन्थियों 16:2) के साथ जुड़ गया (प्रेरितों 20:7)। सप्ताह भर की यह अवधि, मेज़ में भाग लेने से पहले अपने जीवन का पुनः अवलोकन करने और हफते भर में हुई किसी भी गलती, बुराई, या पाप को ध्यान करके प्रभु के सामने मानने के लिए सहज रहती है। महीने में एक बार, या अन्य किसी समय-अवधि के अनुसार मेज़ में भाग लेने का वचन में कोई समर्थन नहीं है। साथ ही यह कोई रस्म भी नहीं है, इसे भी हम देख चुके हैं।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु की मेज़ में भाग लेने के महत्व के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है? ध्यान कीजिए, 1 कुरिन्थियों 11:17-32 के पदों में प्रभु और पवित्र आत्मा ने मेज़ में भाग लेने को वैकल्पिक, या, इच्छानुसार नहीं लिखा है, वरन अनिवार्य किया है। इन पदों में स्पष्ट आया है कि मण्डली के लोगों को भाग लेना था; किन्तु यह भी उतना ही स्पष्ट है कि उचित रीति से भाग लेना था। प्रभु की मेज़ में भाग न लेना, प्रभु की अनाज्ञाकारिता है, दण्डनीय है; और अनुचित रीति से भाग लेना भी दण्डनीय है। अर्थात, प्रभु ने अपने लोगों के लिए एक बहुत संकरा किन्तु बहुत उत्तम मार्ग दिया है, जिससे हम अपनी पिछली बुराइयों, गलतियों, पापों को लिए हुए मसीही जीवन में आगे न बढ़ें, वरन प्रभु से क्षमा और आशीष के साथ मसीही जीवन में उन्नत होते चले जाएं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 47-49
1 थिस्सलुनीकियों 4
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The Importance & Necessity of Breaking of Bread with Lord’s People
In the Church of the Lord Jesus, in the lives of the people joined to the Church by the Lord, since the inception of the Church, seven things have been seen, which are given in Acts 2:38-42. Of these seven the last four have been given together in one sentence, in Acts 2:42; it is also written in the same sentence that the members of the first Church “continued steadfastly” in them. They have also been called the four pillars giving stability and firmness to Christian life and the Church. We had started to consider the third amongst these four, and the sixth of the seven things - “the breaking of bread” in the last article. In that article we had seen the facts related to the Lord celebrating the Passover with His disciples and instituting the Holy Communion, and seen their implication and application in Christian life. Today, continuing forward with the same theme, we will look at the importance of breaking of bread with the Lord’s people.
God the Holy Spirit has had it written in some detail about participating in the Lord’s Table in 1 Corinthians 11:17-34, since the people of that Church had started to take it lightly, ignore its importance and necessity, and the Holy Communion was being dishonored. In verse 23 of this passage, Paul clearly states that he has received these instructions about the Lord’s Table from the Lord, and as he received them, he is passing them on to the Church.
In this passage from 1 Corinthians, in brief, the inappropriate and wrong things related to the Lord’s Table that were being seen amongst them, were:
Because of partaking in it in a wrong manner, the Lord’s Table had become a cause for harm for them (verses 17, 27-32).
They were taking part with divisions and dissensions amongst them, and even factions on doctrinal matters existed (verses 18, 19).
The Lord’s Table, instead of being a place for fellowship and sitting together, had become a place to show discrimination and being superior or better than others (verses 20-22, 33-34).
Because of this inappropriate behavior, they were facing the Lord’s Judgement, so-much-so, that some had even died (verses 29-32).
Through Paul, they were admonished by the Holy Spirit that to participate in the Lord’s Table, they had to remove these wrong things from amongst them. The same holds true for us today as well; we too need to make sure that none of these wrong practices are seen amongst us Christian Believers.
Along with the above three things about the purpose and importance of the Lord’s Table have been given here, which they, as well as us today, need to adhere to. These three things are:
The Lord’s Table is not a place for feasting and showing off, but for remembering the Lord’s sacrificing Himself (verses 24-25). While partaking of the Holy Communion one should ponder over why and how the Lord gave His body to be broken and blood to be shed; what all He suffered undergoing this sacrifice. This has to be done and continued with due reverence, honor, and seriousness, till the Lord comes again.
Partaking of the Holy Communion is to preach the death of the Lord (verse 26); i.e., to tell others about the Lord’s sacrifice, and to take the gospel to them. By participating in the Lord’s Table, the participant reminds himself about his committing himself to be obedient to the Lord and propagating the Lord’s sacrifice; and renews his surrender and commitment.
Before partaking in the Lord’s Table, the person has to examine himself, not anyone else or others, to ascertain that he is participating worthily, in the proper manner. Since, the one participating unworthily or in an inappropriate manner brings judgement upon himself (verses 27-32). After examining oneself, acknowledging and accepting the wrongs, sins, and shortcomings before the Lord, repenting of them and asking the Lord’s forgiveness for them, only then should a person partake in the Holy Communion.
It is only after understanding and learning about the rational, purpose, and importance of the “Breaking of Bread” can we realize and know why the Lord instituted this for His true and committed disciples, and asked them to regularly take part in it till He comes again - so that they may remain safe and secure from the wiles of the devil, remain pure and clean from the corruption Satan brings upon them (John 13:8b, 10a), and to keep His disciples committed to propagating the gospel and remain obedient to Him and His Word. With this understanding we can also see why Judas Iscariot was not made a partaker of the Holy Communion - since he did not fulfill the purposes of the Lord’s Table. This also shows us that those who partake in the Lord’s Table as a ritual, without understanding its importance and being committed to its purposes, what terrible retribution they are bringing upon themselves. We all need to understand and be very clear in our minds that no one becomes righteous in God’s eyes by participating in the “Breaking of Bread”; rather, the Lord established this Table for those to partake, who already are righteous and holy in His sight, and not to make the unrighteous into righteous people. On the other hand, a person’s partaking in an unworthy manner, or getting someone else to partake in an unworthy manner makes him liable for Lord’s judgement and retribution. Participating worthily is a source of blessings, since the Christian Believer examines and corrects himself and grows in his Christian life and nearness to the Lord; whereas by participating unworthily or as a mere ritual, a person invites the Lord’s punishment upon himself.
Since, before participating in the Holy Communion, a person has to examine himself, has to accept and acknowledge his wrongs and mistakes before the Lord, therefore, the participation too must be within an appropriate time-period, so that the doings of the past days can be easily recalled and evaluated. The members of the initial Church “continued steadfastly” in it, gathering from house to house, and breaking bread daily (Acts 2:46). But after sometime, this gathering together and Breaking of Bread, got joined with gathering together on the first day of the week for worship (1 Corinthians 16:2; Acts 20:7). This time period of one week is a convenient period to recall and recollect what a person may have done or said, and then bring before the Lord wherever he may have erred or fallen short. There is no support or affirmation in God’s Word of the practice of participating in the Lord’s Table once a month, or according to any other time period. We have also already seen that participating in it is not a ritual or a formality that has to be carried out.
If you are a Christian Believer, then what is your understanding and perspective about partaking in the Breaking of Bread instituted by the Lord. Take careful note that in 1 Corinthians 11:17-32, the Lord and the Holy Spirit have not made this participation a matter of choice, or according to one’s convenience; rather it has been made mandatory for the Christian Believers. It has been clearly stated in this passage that the members of the Church had to participate in the Breaking of Bread. But it has also been equally clearly stated that they had to do it in an appropriate manner, worthily. Not to partake of the Lord’s Table is disobeying the Lord, and therefore, renders a person accountable to the Lord for this disobedience; and, participating unworthily or in an inappropriate manner too invites the Lord’s retribution. In other words, the Lord has given a very narrow, but a very beneficial and blessed way for the Christian Believer, so that no one moves forward in life carrying the burden of past mistakes, wrongs, and unforgiven sins; rather having obtained Lord’s forgiveness, His people should move forwards with blessings and be edified in their Christian life.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Isaiah 47-49
1 Thessalonians 4