व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 18
व्यवस्था की क्षमताएँ और अक्षमताएँ (भाग 1)
पिछले लेख में हमने देखा और समझा था कि प्रेरितों 17:30 के अनुसार, परमेश्वर क्यों मनुष्यों के पापों के लिए उन्हें दण्ड देने में आनाकानी करता है, उन पापों को अज्ञानता के समय में की गई बातें मानने के लिए तैयार है। हमने यह भी देखा था कि चाहे मसीही विश्वासी हो अथवा सांसारिक अविश्वासी, चाहे प्रभु का जन हो या न हो, दोनों के पापों के समाधान के लिए परमेश्वर के मानक और उपाय एक ही हैं - वे पापों से पश्चाताप करें, उन्हें मान लें, और प्रभु परमेश्वर से उनके लिए क्षमा माँग लें, प्रभु को अपना उद्धारकर्ता मान कर उसे समर्पित हो जाएं। साथ ही हमने एक और बहुत महत्वपूर्ण बात भी देखी थी, पापों के समाधान के लिए परमेश्वर ने न तो से किसी को भी व्यवस्था का पालन करने के लिए कहा; और न ही प्रभु के लोगों पर दिन-रात दोष लगाते रहने वाले शैतान ने कभी उन पर व्यवस्था का पालन न करने के कारण पापी होने का दोष लगाया। अर्थात, पाप के समाधान में व्यवस्था के पालन का कोई स्थान ही नहीं है।
हमारे सामने अब यह असमंजस में डालने वाला प्रश्न है कि जब पापों के समाधान और परमेश्वर को स्वीकार्य होने में व्यवस्था के पालन की कोई भूमिका ही नहीं है, तो फिर परमेश्वर ने अपनी वह व्यवस्था दी ही क्यों, और उसके पालन के लिए क्यों कहा, उसे इतना महत्व क्यों दिया? आज से हम इन प्रश्नों पर विचार आरंभ करेंगे। इन बातों को समझने के लिए हमें यह समझना और ध्यान में रखना होगा कि व्यवस्था की कुछ सीमाएं – कुछ क्षमताएँ और अक्षमताएँ हैं, व्यवस्था की कुछ माँगें हैं, और व्यवस्था का एक उद्देश्य था। आज पहले हम परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा पौलुस प्रेरित में होकर, रोमियों 7 अध्याय में व्यवस्था की सीमाओं - क्षमताओं और अक्षमताओं के बारे में जो बातें लिखवाई गई हैं, उन पर विचार करना और समझना आरम्भ करेंगे।
रोमियों 7 अध्याय से व्यवस्था के बारे में जो पहली सीमा हमारे सामने आती है, वह पहले पद में ही है - “हे भाइयो, क्या तुम नहीं जानते मैं व्यवस्था के जानने वालों से कहता हूं, कि जब तक मनुष्य जीवित रहता है, तक उस पर व्यवस्था की प्रभुता रहती है?” (रोमियों 7:1)। व्यवस्था प्रभुता करती है - आज्ञा देती है, निर्धारित कार्य करवाती है, न करने पर दोषी ठहराती है, और दोषी होने के दण्ड को लागू करवाती है। किन्तु व्यवस्था में दया, करुणा, व्यक्ति की परिस्थितियों और मजबूरियों आदि का ध्यान करने और तब व्यक्ति के दोष और दण्ड को निर्धारित करने का कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत, जैसा हम पिछले लेखों में प्रेरितों 17:30 से देख चुके हैं, परमेश्वर मनुष्य की परिस्थितियों और दुर्बलताओं को समझते हुए, पापों को अज्ञानता के समय के कार्य मानने, उनके लिए दण्ड देने में आनाकानी करने, दण्ड से बचने का पर्याप्त अवसर और समाधान देने, आदि बातों के लिए तैयार है। हम देखते हैं कि प्रभु यीशु ने हमेशा पापियों के प्रति दया, करुणा, और धीरज से काम लिया। जबकि व्यवस्था के अनुसार दोष लगाने वाले बिना किसी अन्य बात को ध्यान में रखे, तुरंत कठोर दण्ड दिए जाने की माँग करते थे। यदि पाप किए जाने से संबंधित बातों का ध्यान रखे बिना, केवल दोष के अनुसार दण्ड दे दिया जाएगा, तो क्या वह न्याय खरा और उचित न्याय समझा जाएगा? प्रभु यीशु मसीह में परमेश्वर हमारे साथ हमारी रचना, व्यक्तिगत सीमाओं, और परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए व्यवहार करता है, जो व्यवस्था में संभव नहीं है।
अगले लेख में हम व्यवस्था की अन्य सीमाओं को देखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 18
Law’s Capabilities & Incapabilities (Part 1)
In the previous article we saw and understood why God, according to Acts 17:30, refuses to immediately punish men for their sins, and is willing to consider those sins as things done in times of ignorance. We have also seen that whether a Christian Believer or a worldly unbeliever, whether one believes in the Lord or not, God's standards and ways for the remission of sins remain the same - that men repent of their sins, confess them, and ask for the Lord God to forgive them, accept the Lord as their Savior, and submit to Him. We also saw another very important thing, God never asked anyone to obey the Law in order to resolve the problem of their sins; Nor did Satan, who keeps accusing the Lord's people day and night, ever accused them of being guilty of not keeping the Law. This implies that keeping the Law has no role in the remission of sins.
We now have this perplexing question before us that when the observance of the Law has no role in the solution of sins and being made acceptable to God, then why did God give that Law, why did He ask for its observance, and why has He given so much importance to it? From today we will start considering these questions. To understand these things, we have to understand and keep in mind that the Law has certain limitations - some capabilities and some incapabilities, the Law makes some demands, and the Law also has a purpose. From today, we will begin to consider and understand what is written about the limitations - the capabilities and incapabilities of the Law in Romans 7 by the apostle Paul through God's Holy Spirit.
The first limitation that comes before us about the Law from Romans 7 is in the first verse itself - "Or do you not know, brethren (for I speak to those who know the law), that the law has dominion over a man as long as he lives?" (Romans 7:1). The law rules i.e., it commands, demands and compels that the prescribed things be done; it declares guilty or transgressor for not obeying, and then enforces the punishment after declaring the person to be guilty. But there is no place in the Law for mercy, compassion, consideration of an individual's circumstances and compulsions etc. and then to determine the individual's guilt and punishment accordingly. On the contrary, as we have seen from Acts 17:30 in the preceding articles, God, understanding and considering man's circumstances and weaknesses, is willing to consider the sins to be acts of ignorance, remains reluctant to punish them, gives sinners ample opportunity to avoid punishment, and has provided His solutions to man’s problem of sins. Similarly, we see that the Lord Jesus always showed mercy, compassion, and patience toward sinners. While according to the Law, the accusers, regardless of anything else, demanded immediate merciless punishment. If punishment is given only according to the guilt, regardless of the various circumstances and factors involved in the committing of the sin, will that justice be deemed to be true and just? In the Lord Jesus Christ, God treats us with due consideration of our creation, one’s personal limitations, and prevailing circumstances, etc., none of which are possible in the Law
We will look at the other limitations of the Law in the next article. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.