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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 34
मसीही विश्वासी अपने आत्मिक जीवनों में, परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को सीखने और लागू करने के द्वारा ही उन्नति और बढ़ोतरी कर सकते हैं; और इसके लिए परमेश्वर के वचन से तीन प्रकार की मौलिक शिक्षाएँ आधारभूत हैं – सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएँ, आरंभिक बातों की शिक्षाएँ, प्रतिदिन के व्यवहारिक जीवन से सम्बन्धित शिक्षाएँ। हमने सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के अध्ययन के साथ आरम्भ किया है, और देखा है कि पश्चाताप या मन-फिराव और सुसमाचार पर विश्वास करना सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के अनिवार्य भाग हैं। पश्चाताप के बारे में सीखने के बाद, अब हम सुसमाचार पर विश्वास करने से सम्बन्धित बाइबल की शिक्षाओं को देख रहे हैं, और हमने देखा है कि किस प्रकार से शैतान सुसमाचार को बिगाड़ कर उसे व्यर्थ कर देने के प्रयास करता है; और लोगों को बहका भरमा कर उनके मनों में यह डाल देता है कि वे मसीही विश्वासी हैं, जबकि वास्तव में वे विश्वासी नहीं हैं। वर्तमान में हम बाइबल से उन लोगों के उदाहरणों को देख रहे हैं जो मसीह के विश्वासी प्रतीत होते थे, अपने आप को मसीही विश्वासी समझते थे, जब तक कि उनकी वास्तविकता उजागर नहीं हो गई और अन्ततः वे प्रभु तथा उसके लोगों से हट कर दूर चले गए। इस सन्दर्भ में, पिछले लेख में हमने उन ‘बहुतेरे चेलों’ के बारे में देखा था जो प्रभु को छोड़ कर पलट कर चले गए, क्योंकि वे प्रभु की कुछ शिक्षाओं को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। इस परिस्थिति के लिए पतरस के प्रत्युत्तर से हमने सच्चे मसीही विश्वासी की पहचान करने के तीन मापदण्ड देखे थे। आज हम एक अन्य उदाहरण को देखेंगे, एक ऐसा व्यक्ति जो प्रभु यीशु के साथ निकटता में बना रहा, किन्तु कभी भी प्रभु का सच्चा शिष्य नहीं बना, और अन्त में उसकी सच्चाई प्रकट हो गई – यहूदा इस्करियोती।
हम लूका 6:12-13 से देखते हैं कि प्रभु ने सारी रात परमेश्वर के साथ प्रार्थना में बिताने के बाद अपने शिष्यों में से, अर्थात उनमें से जो उसके पीछे हो लिए थे, बारह को चुना और नियुक्त किया, और उन्हें प्रेरित कहा। प्रभु ने इन प्रेरितों को “फिर उसने अपने बारह चेलों को पास बुलाकर, उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया, कि उन्हें निकालें और सब प्रकार की बीमारियों और सब प्रकार की दुर्बलताओं को दूर करें” (मत्ती 10:1)। प्रभु के पीछे चलने वाले इन शिष्यों में से एक यहूदा इस्करियोती भी था (लूका 6:16); इसलिए उसे भी वही सामर्थ्य और अधिकार मिले जो अन्य शिष्यों को दिए गए। हम लूका 9:10 से देखते हैं कि एक सेवकाई से लौटने के बाद, जो कुछ उन्होंने किया था, प्रेरितों ने प्रभु को उसके बारे में बताया; और ऐसा कोई संकेत नहीं है कि यहूदा में होकर इस सामर्थ्य और अधिकार ने काम नहीं किया – यदि उसने इनका उपयोग किया था, तो। इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यहूदा के साथ कोई भेद-भाव नहीं किया गया था, और उसके साथ भी वही व्यवहार किया गया जो किसी भी अन्य शिष्य अथवा प्रेरित के साथ हुआ; जो इससे भी प्रकट है कि वह उन सभी स्थानों को जानता था जहाँ प्रभु अपने शिष्यों के साथ जाया करता था (यूहन्ना 18:1-2)। अन्त तक, जब वह प्रभु यीशु को धोखा देकर पकड़वाने के लिए गया, प्रभु ने उसके साथ प्रेम का ही व्यवहार किया, औरों के समान उसके भी पाँव धोए, और उसे पश्चाताप करने के लिए समय तथा अवसर प्रदान किया (यूहन्ना 13:5, 12, 14, 18, 21, 26-31)। साथ ही, सुसमाचारों के सभी वृतांतों में, हम कभी भी, कहीं भी प्रभु यीशु के द्वारा अन्य शिष्यों से यहूदा के विरुद्ध कुछ कहने को नहीं देखते हैं, और न ही प्रभु ने कभी उसे शेष सामने कभी अपमानित किया या नीचा दिखाया। वरन, इन शिष्यों में से यहूदा को ही “खजांची” बनाया गया था, और जो पैसा उनके पास आता था उसका दायित्व उसे ही सौंपा गया था; किन्तु वह चोर था और उसे सौंपे गए पैसे को चुरा लेता था (यूहन्ना 12:6; 13:29)।
हम यूहन्ना 12:6 से उसके एक अन्य लक्षण को देखते हैं – वह कंगालों की चिन्ता नहीं करता था, जो उस व्यक्ति के गुणों से बिलकुल भिन्न था, जिसका अनुयायी होने का वह दावा करता था। जब यहूदा प्रभु यीशु को पकड़ने वाले लोगों की अगुवाई करता हुआ आया (मत्ती 26:47-50), तब उसका एक अन्य लक्षण उजागर हो गया, वह पाखण्डी था। यद्यपि वह एक बुरे उद्देश्य से आया था, लेकिन फिर भी, उसने प्रभु यीशु को “हे रब्बी” कह कर संबोधित किया, और प्रभु को ऐसे चूमा जैसे किसी निकट और प्रिय जन को चूमते हैं, मानों औरों के सामने प्रभु को आदर दे रहा हो। लेकिन यहाँ पर भी, यद्यपि प्रभु यहूदा के उद्देश्य को जानता था, तब भी प्रभु ने उसे “हे मित्र” कहकर संबोधित किया; तब भी उसे न तो डांटा और न ही किसी भी रीति से अपमानित किया। यहाँ पर यहूदा द्वारा प्रभु के संबोधन में और जब बहुत से चेले प्रभु को छोड़कर चले गए थे, उस समय पतरस द्वारा प्रभु के संबोधन (यूहन्ना 6:68-69) में, जिसे हम पिछले लेख में देख चुके हैं, तुलनात्मक अन्तर पर ध्यान कीजिए। यहूदा प्रभु यीशु को “हे रब्बी” कहता है, किन्तु पतरस, उन लोगों की ओर से जो प्रभु के साथ बने रहे थे, यीशु को “प्रभु” कहता है। यहूदा के लिए, यीशु केवल एक गुरु, एक शिक्षक था, परन्तु यीशु के सच्चे अनुयायियों के लिए, वह उनका प्रभु था, जिसके पास अनन्त जीवन की बातें थीं, जिसे वे जान गए थे कि यही जीवते परमेश्वर का पुत्र है। प्रभु प्रत्येक की वास्तविक दशा को जानता है (यूहन्ना 2:24-25; 6:64; 2 तीमुथियुस 2:19), और अपने कामों तथा धार्मिकता के व्यवहार से कोई उसका मूर्ख नहीं बना सकता है।
पिछले लेख में हमने यूहन्ना 6:60, 66 से उनके जो प्रभु यीशु के सच्चे नहीं बल्कि केवल नाम के अनुयायी हैं, तीन लक्षण देखे थे। आज यहूदा इस्करियोती के जीवन से हम ऐसे लोगों के कुछ और लक्षण देखते हैं:
वे चुपके से मसीही विश्वासियों में घुस आते हैं, यहाँ तक कि वरिष्ठ और अनुभवी के बीच में भी (गलतियों 2:4); वे विश्वासियों के समान ही जीवन जीते हैं, काम करते हैं, व्यवहार करते हैं। चाहे विश्वासी उन्हें पहचान नहीं पाएँ, किन्तु वे कभी भी प्रभु का मूर्ख नहीं बना सकते हैं, जो उन्हें आरम्भ से ही पहचानता है।
वे लालची और धन का लोभ रखने वाले होते हैं, और उन्हें जो सौंपा गया है, कलीसिया का, कलीसिया के लोगों का, इन सभी का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करने में; और अपनी लालसाओं की पूर्ति के लिए कोई गलत अथवा अनुचित काम करने में, कोई संकोच नहीं करते हैं।
उनमें प्रभु यीशु, जिन का अनुसरण करने का वे दावा करते हैं, के समान गुण नहीं पाए जाते हैं; और जैसा प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं ही कहा है, यह पहचान का एक प्रमुख बिन्दु है (मत्ती 10:24-25), क्योंकि पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है (लूका 6:44)।
उनके मन बहुत कठोर होते हैं; उनके साथ जितना चाहे प्रेम, आदर, देख-रेख, परमेश्वर के वचन से प्रचार और शिक्षा, प्रभु के लोगों के साथ संगति का व्यवहार रख लें, किन्तु उनमें कोई परिवर्तन नहीं आता है।
वे पाखण्डी होते हैं, बाहरी रीति से प्रेम और आदर दिखाते हैं, जब कि अन्दर से, साँसारिक लाभ और धन के लिए, मसीही विश्वासियों को गिराने और हानि पहुँचाने के लिए कार्य कर रहे होते हैं।
अगले लेख में हम मसीही विश्वासियों के भेष में अविश्वासियों के अन्य उदाहरणों को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 34
The Christian Believers can only grow in their spiritual lives through the learning and applying all of God’s Word to their lives; for which three kinds of teachings from God’s Word are fundamental – teachings related to the gospel, teachings about the elementary principles of Christ, and teachings related to practical daily living. We started by studying the teachings related to the gospel, and had seen that repentance and believing in the gospel are essential components of the teachings related to the gospel. Having studied about repentance, we are now studying Biblical teachings about believing the gospel, and have seen how Satan tries to subvert the gospel to render it vain; and misleads the people into believing they are followers of Christ, when they actually are not. Presently, we are looking at Biblical examples of those who appeared to be, and thought themselves to the followers of Christ, till their actual condition was exposed and they walked away from the Lord and His people. In this context, in the last article we had seen about ‘many disciples’ who were unwilling to accept certain teachings of the Lord, and therefore, turned back and walked away from the Lord. From Peter’s response to this situation, we had seen three criteria that characterize a true follower of Christ. Today we will consider another example of a person who stayed closely with the Lord Jesus, but was never a true follower of the Lord, and at the end his reality became evident – Judas Iscariot.
We see from Luke 6:12-13 that the Lord Jesus, after spending the night in prayer with God, from amongst His disciples, i.e., who were following Him, chose and appointed twelve, and called them Apostles. To these twelve Apostles, the Lord gave “power over unclean spirits, to cast them out, and to heal all kinds of sickness and all kinds of disease” (Matthew 10:1). Amongst these disciples who followed the Lord, and the twelve Apostles, one was Judas Iscariot (Luke 6:16); therefore, he too received the same powers and authority, as the others had received. From Luke 9:10 we see that on return from a mission, the Apostles gave a report to the Lord of all that they had done, and there is nothing to suggest that the powers given by the Lord had not worked through Judas – if he had exercised them. So, we can surmise that Judas had not been discriminated against, he was treated just the same as any other disciple or Apostle was; this is also affirmed by his knowing all the places where the Lord Jesus went with His disciples (John 18:1-2). Till the end when he went out to betray the Lord Jesus, the Lord treated him with love, along with the others washed his feet too, giving him time and opportunity to repent (John 13:5, 12, 14, 18, 21, 26-31). Also, throughout the Gospel accounts, we never ever find the Lord Jesus back-biting against Judas, or in any way pulling him down before the others. Rather, Judas was the “treasurer” amongst these disciples, and was entrusted with the money that came to them; but he was a thief and used to take the money entrusted to him (John 12:6; 13:29).
From John 12:6 we also see another trait in him – he did not care for the poor, which was quite unlike the traits of the person he was following. When Judas came leading the group that had come to arrest the Lord Jesus (Matthew 26:47-50), another of his traits has been exposed – he was a hypocrite. Though he had come with an ulterior motive, but even then, he addressed the Lord Jesus as “Rabbi” and kissed Him as one would kiss a near and dear one, as if he was honoring Him before the others. But even here, though He knew Judas’s motive, the Lord still addresses him as “friend;” still not rebuking him or insulting him in any way. Notice the contrast between Judas addressing the Lord Jesus here, and Peter addressing the Lord in his answer to the Lord (John 6:68-69), when many disciples left the Lord and went away, which we have seen in the previous article. Judas addresses the Lord as “Rabbi,” but Peter, in speaking for those who had stayed with the Lord, calls Him “Lord.” For Judas, Jesus was only a “teacher” but for the true followers of Jesus, He was their Lord, the one having the words of eternal life, whom they had come to know as the Son of the living God. The Lord knows the actual condition of everyone (John 2:24-25; 6:64; 2 Timothy 2:19), and no one can fool Him through their works or religiosity.
In the last article, from John 6:60, 66 we had seen three characteristics of those who are not truly the followers of the Lord, but followers only in name. Today from Judas Iscariot’s life we see some more characteristics:
They secretly creep in amongst the Christian Believers, even amongst the senior and experienced ones (Galatians 2:4); they live, behave, and work like the Believers. Though the Believers may not be able to identify them, but they can never fool the Lord, who knows about them from the beginning.
They are covetous, money-minded, and have no hesitation in using what has been entrusted to them, the Church, and the congregation for their own selfish purposes; or indulging in wrong or improper ways to fulfil their desires.
They do not exhibit the qualities of the Lord Jesus, whom they profess to follow; and as stated by the Lord Jesus, this is a major differentiating feature (Matthew 10:24-25), since a tree is known by its fruits (Luke 6:44).
They are very hard-hearted; no amount of love, respect, care, preaching and teaching from God’s Word, fellowship with God’s people can change them.
They are hypocrites, outwardly expressing love and honor, but inwardly plotting and working for the downfall of the Believers, for the sake of worldly gains and money.
In the next article, we will continue to look at other examples of nonbelievers moving around as Christian Believers.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.