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आरम्भिक बातें – 6
मरे हुए कामों से मन फिराना – 2
पिछले लेख में हमने इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरंभिक बातों में से पहली, अर्थात मरे हुए कामों से मन फिराना को देखना आरम्भ किया था। हमने सीखा था कि “मरे हुए काम” वे भले और धार्मिक दिखने वाले काम हैं जो मसीही करते तो हैं, और अकसर बहुत श्रद्धा और भक्ति के साथ करते हैं, किन्तु उन के करने से उन मसीहियों के आत्मिक जीवनों में कोई उन्नति नहीं होती है, कोई परिपक्वता नहीं आती है। यद्यपि इस प्रकार के कार्य इस धारणा के साथ किए जाते हैं कि उन से मसीहियों को परमेश्वर से प्रशंसा और आशीष प्राप्त होगी, किन्तु मसीहियों के जीवन में वे व्यर्थ और निष्फल ही रहते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये उन के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित किए हुए कार्य नहीं हैं, बल्कि वे कार्य हैं जो उन मसीहियों ने अपनी ही कल्पना के अनुसार अपने लिए निर्धारित कर लिए हैं, और वे उन्हें अपनी ही बुद्धि और समझ के अनुसार करते हैं, न कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता में, और फिर उन कार्यों को परमेश्वर पर थोप देते हैं कि उन्हें उन के लिए प्रतिफल दिए जाएँ।
अधिकांशतः ये कार्य शैतानी युक्तियाँ होते हैं जो मसीही को परमेश्वर के वचन का अध्ययन और पालन करने से, तथा उनके लिए परमेश्वर की इच्छा को समझने और जानने से दूर रखते हैं। बल्कि मसीहियों को बहका और भरमा कर उन्हें, परमेश्वर की आज्ञाओं के भेष में सिखाई जाने वाली मनुष्यों की आज्ञाओं तथा मनुष्यों द्वारा बनाए गए रीति-रिवाजों और परम्पराओं का पालन करने में डाल देते हैं। बाइबल हमें सिखाती है कि जो एकमात्र बात परमेश्वर को प्रसन्न करती है वह है उसकी तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता (व्यवस्थाविवरण 5:29; 1 शमूएल 15:22; यिर्मयाह 7:22-23)। परमेश्वर के नाम में किन्तु अपनी ही कल्पनाओं के अनुसार परन्तु की गई बातों से परमेश्वर बिल्कुल प्रसन्न नहीं होता है, चाहे वे धार्मिक, भक्तिपूर्ण, और भली ही क्यों न हों, और लोग उन्हें कितना भी क्यों ना सराहें। परमेश्वर ऐसे कामों के लिए कोई आशीष अथवा प्रतिफल नहीं देता है, वरन ऐसे काम, उन के करने वालों के लिए बहुत हानि उत्पन्न कर सकते हैं; और इसीलिए पहली आरंभिक बात है इस प्रकार के सभी कार्यों के करने से मन फिराना। आज से हम इसे बाइबल के कुछ उदाहरणों द्वारा देखना आरंभ करेंगे।
इस प्रकार के अपनी ही कल्पना से किए गए, और न केवल व्यर्थ और निष्फल, वरन अनन्तकाल के लिए हानिकारक और विनाशक कामों का एक उदाहरण लोगों द्वारा स्वयं ही निर्धारित की गई वे सेवकाइयाँ हैं जिन्हें वे प्रभु के नाम में बड़े जोर-शोर और उत्साह से करते हैं (मत्ती 7:21-23)। प्रभु के “पहाड़ी उपदेश” से लिए गए इस खण्ड के लेख पर ध्यान कीजिए, प्रभु यीशु के स्वयं के शब्दों में, उन लोगों द्वारा की जा रही सेवकाइयाँ, अर्थात भविष्यवाणी करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और अचम्भे के काम करना, ये सभी वास्तव में हुए थे। ये लोग प्रभु से यह नहीं कह रहे हैं कि उन्होंने उसके नाम में यह करने के प्रयास किये थे, बल्कि वे एक निश्चित कथन कह रहे हैं कि उन्होंने यह सब उसके नाम में किया, अर्थात वे यह सब करने में सफल रहे थे। साथ ही, उन्होंने यह सब प्रभु ही के नाम में किया था, न कि किसी अन्य देवी-देवता अथवा किसी व्यक्ति के नाम में, अपने नाम भी नहीं। लेकिन फिर भी उनके लिए प्रभु का उत्तर है “तब मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करने वालों, मेरे पास से चले जाओ” (मत्ती 7:23)। इतना सब करने के बाद भी प्रभु का उन से यह कहने का कारण मत्ती 7:21 में दिया गया है – ये काम पिता परमेश्वर की इच्छा में और उसके अनुसार नहीं किये गए थे। केवल वे ही जो परमेश्वर पिता की इच्छा के अनुसार चलते हैं, स्वर्ग में जाने पाएँगे; अन्य कोई नहीं, और अपने कामों के आधार पर तो कोई भी प्रवेश नहीं करेगा।
यहाँ पर एक असमंजस हो सकता है कि प्रभु के नाम में इन लोगों के द्वारा ये कार्य करना कैसे संभव हुआ, और फिर भी उन्हें करने के लिए प्रभु ने उनकी सराहना नहीं की? उत्तर है कि शैतान के पास भी बड़े और सामर्थी काम करने की शक्ति है (2 थिस्सलुनीकियों 2:4, 9-10; प्रकाशितवाक्य 13:13-15)। शैतान ज्योतिर्मय स्वर्गदूत का रूप धारण कर के, और उसके लोग मसीह के झूठे प्रेरितों, छल से काम करने वाले, और धर्म के सेवक बनकर आते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। इन अपनी ही इच्छा और समझ के अनुसार काम करने वाले लोगों की सहायता शैतान और उसके लोग करते हैं कि वे आश्चर्यकर्म प्रतीत होने वाले ये कार्य इस गलतफहमी में रहते हुए करें कि वे परमेश्वर के लिए और परमेश्वर की सामर्थ्य से ये काम कर रहे हैं। इस परिस्थिति से बचने का एकमात्र मार्ग है परमेश्वर के साथ एक निकट का संपर्क और वार्तालाप बनाए रखना, उसकी इच्छा को जानना और पहचानना (रोमियों 12:1-2), और परमेश्वर से जानना कि उसने उन के लिए कौन सा काम निर्धारित किया है (इफिसियों 2:10)। यह तब ही संभव है जब परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने को प्राथमिकता दी जाए। जब लोग परमेश्वर के वचन के अध्ययन में समय लगाते हैं, उसके वचन में होकर परमेश्वर के साथ वार्तालाप करते हैं, तब परमेश्वर पिता और प्रभु उनके साथ संगति करते हैं (यूहन्ना 14:21, 23)। प्रभु यीशु के सच्चे शिष्यों की यह प्रवृत्ति होती है कि वे उसके वचन में बने रहते हैं (1 यूहन्ना 2:3-5), और इससे वे सत्य को जान लेते हैं शैतान की युक्तियों से स्वतंत्र रहते हैं (यूहन्ना 8:31-32)। प्रभु के साथ संगति में बने रहने और परमेश्वर के वचन से भली-भाँति अवगत रहने के द्वारा मसीही न केवल शैतान द्वारा उन से वह करवाने से सुरक्षित रहेंगे जो परमेश्वर ने उन से करने के लिए नहीं कहा है, बल्कि यह भी जान लेंगे कि परमेश्वर क्या चाहता है कि वे करें, और क्या न करें। जो भी परमेश्वर की इच्छा में और उसके द्वारा निर्धारित तरीके से किया जाएगा, उस पर हमेशा परमेश्वर की आशीष होगी; शेष सब कुछ तिरस्कार कर के फेंक दिया जाएगा।
यह एक प्रकार के “मरे हुए काम” हैं जिनसे सभी मसीहियों को मन फिराना है – अपनी ही इच्छा से स्वयं के लिए निर्धारित किये हुए कार्य, न कि परमेश्वर से पूछने, उसकी इच्छा पता पड़ने की प्रतीक्षा करने, और फिर वह करने के जो परमेश्वर करने को कहे। जो भी स्वयं को सही लगे उसे ही अपनी समझ के अनुसार करना, परमेश्वर को उसकी आज्ञाकारिता के द्वारा नहीं बल्कि अपने कार्यों से प्रभावित करने का प्रयास करना, और उसके वचन का अध्ययन करने तथा परमेश्वर की इच्छा जानने में उसके साथ समय न बिताना, असफलताओं और मुसीबतों को दावत देने की अचूक विधि है। अगले लेख में हम एक अन्य प्रकार के मरे हुए काम को देखेंगे जिस से मन फिराना है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 6
Repentance From Dead Works - 2
In the previous article we began considering the first of the elementary principles given in Hebrews 6:1-2, i.e., repentance from dead works. We learnt that “dead works” are those seemingly religious and good works that a Christian Believer does, often very reverently and piously, but they do not in any manner contribute to his spiritual growth and maturity. Though these kinds of works are done trusting that they will gain the Believer the favor and blessings of God, but they remain vain and infructuous in the Christian Believers life. This is because these works are not God assigned for him, but are those that the Believer has presumptively decided for himself, and does them according to his own wisdom and understanding, instead of in obedience to God; and then imposes them upon God for rewards.
More often than not, these are satanic ploys to keep the Believer involved in things that keep him away from studying and obeying God’s Word, and knowing God’s will for him. Instead, the Believer is beguiled into learning and obeying the commandments of men, following man-ordained religious rites and rituals, in the garb of God’s commandments. The Bible teaches us that the only thing that pleases God is obedience to Him and His Word (Deuteronomy 5:29; 1 Samuel 15:22; Jeremiah 7:22-23). God is not pleased with things done presumptively in His name, even though they may be religious, pious, and good works, and may even be well appreciated by the people. Such works and practices do not bring any blessings and rewards from God, but may cause great harm to those who do them; and hence the first elementary principle is to repent from all such works. We will see this illustrated through some Biblical examples from today.
One category of such presumptive, and not just vain and fruitless but eternally harmful and destructive works are the various kinds of self-determined ministries carried out by many people with great fan-fare and enthusiasm in the name of the Lord (Matthew 7:21-23). Notice from the text of this passage, in the Lord Jesus’s own words, from the “Sermon on the Mount” that these ministries carried out by these people, i.e., prophesying, casting out demons, and doing many wonders, all of them did happen. These people are not saying to the Lord that “we tried or attempted to do them in your name;” rather they make a categorical statement that they carried them out in His name, were successful in doing all that they claimed. Moreover, they did them all in the name of the Lord, not in the name of any other deity or person, not even their own names, but in the name of the Lord Jesus. Yet, the Lord’s reply to them is, “I never knew you; depart from Me, you who practice lawlessness!” (Matthew 7:23; KJV translates it as ‘ye that work iniquity’ and NIV translates it as ‘you evildoers!’). The reason for the Lord’s saying this to them despite their doing these great things in His name is given in Matthew 7:21 – they were not done in and according to God’s will. Only those who do the will of God the Father shall enter heaven; no one else, and none will enter because of their works of any kind.
There can be a confusion here, that how did these people manage to do such great works in the Lord name, and yet were not acknowledged by the Lord for doing them? The answer is because Satan too has powers to work great and mighty works (2 Thessalonians 2:4, 9-10; Revelation 13:13-15). Satan can come as an angel of light, and his people as false apostles of Christ, deceitful workers, ministers of righteousness, to beguile God’s people (2 Corinthians 11:13-15). Satan and his people help the presumptuous people in doing these miraculous works, while people think and believe that they are doing the works with the power of God, for God. The only way to avoid this situation is to have a close fellowship and communication with God, to be able to learn His will (Romans 12:1-2), and learn from God, which of the works that He has kept for them (Ephesians 2:10) should they be doing. This can only happen by giving priority to studying God’s Word. When people spend time studying God’s Word, communing with God through His Word, then God the Father and the Lord will fellowship with them (John 14:21, 23). The true disciples of Lord Jesus make it a point to abide in His Word (1 John 2:3-5), and thereby the know the truth and be free (John 8:31-32) from the ploys of the devil. Because of his fellowship with the Lord and being well versed in God’s Word, the Believer will not only remain safe from being misled by Satan into presumptively doing things which God never asked them to do, but will also know what God wants him to do and what not to do. Whatever is done in God’s will, in the manner ordained by God, will always have God’s blessings; all the rest will be rejected and cast away.
This is one category of “dead works” that all Believers need to repent from – working presumptuously instead of waiting upon God to find out what God has in mind for them, and then do that. Doing whatever seems appropriate to them by their own thinking, trying to impress God by their works instead of by their obedience to Him, and not spending proper time in studying God’s Word to know His will for them is a sure-shot way to disaster and failures. In the next article we will take up another kind of “dead work” to be repented from.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.