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आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता - भविष्यद्वक्ता
हम परमेश्वर के वचन से मसीही जीवन और सेवकाई के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा दिए जाने वाले वरदानों के बारे में देख रहे हैं। यद्यपि पवित्र आत्मा के द्वारा दिए गए सभी आत्मिक वरदान और परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई सभी सेवकाइयां समान स्तर की हैं, और कोई किसी अन्य से छोटी या बड़ी अथवा कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं है; किन्तु मण्डली में उनके अधिकांशतः या कभी-कभी उपयोग करने के अनुसार, 1 कुरिन्थियों 12:28 में कुछ वरदानों को उपयोगिता के अनुसार वरीयता क्रम में रखा गया है। इस क्रम में सबसे अधिक उपयोगी वचन की सेवकाई से संबंधित वरदान हैं; और सबसे कम उपयोग में आने वाले अन्य भाषाएं बोलने और अनुवाद करने के वरदान हैं। अन्य भाषाएं बोलने से संबंधित वरदानों के बारे में हम पहले देख चुके हैं। वचन की सेवकाई से संबंधित वरदानों में सबसे पहले प्रेरित होने का वरदान है, जिसके बारे में हम पिछले दो लेखों में देख चुके हैं। आज हम वचन की सेवकाई से संबंधित दूसरे वरदान, भविष्यद्वक्ता होने के बारे में परमेश्वर के वचन से देखेंगे।
सामान्यतः जब शब्द भविष्यद्वक्ता या भविष्यवाणी करना हमारे सामने आते हैं, तो हम यही समझते हैं कि इसका अर्थ है भविष्य की बातें बताने वाला व्यक्ति, अथवा भविष्य की बातें बताना। किन्तु बाइबल की मूल भाषाओं में प्रयोग किए गए शब्दों का केवल यही अनुवाद अथवा अर्थ नहीं है। नए नियम की मूल यूनानी भाषा में प्रयोग किए गए शब्दों का अर्थ है “सामने या समक्ष, अथवा आगे, बोलने वाला”, और “सामने या समक्ष, अथवा आगे, बोला गया”; और इसके समान पुराने नियम की मूल इब्रानी भाषा के शब्दों का भी यही अर्थ और अभिप्राय होता है। इस शब्दार्थ से यह प्रकट है कि मूल भाषा के शब्दों के अनुसार, न केवल भविष्य की बातें बताने वाला और भविष्य की बातों को बताना भविष्यद्वक्ता और भविष्यवाणी है, वरन यदि कोई लोगों के सामने या समक्ष आकर परमेश्वर की ओर से बोले, वर्तमान की ही किसी बात के लिए सन्देश अथवा शिक्षा दे, तो वह भी भविष्यद्वक्ता है, और उसकी कही बात भी भविष्यवाणी है।
इस संदर्भ में बाइबल की एक और बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा का भी ध्यान कीजिए - यद्यपि परमेश्वर ने ऐसे लोगों को खड़ा किया जो उसकी ओर से दर्शन और संदेश पाकर उसके लोगों को उनका भविष्य, उन पर आने वाले दण्ड अथवा आशीषें, और संसार के अंत एवं न्याय आदि के बारे में बताएं, और परमेश्वर की ओर से नियुक्त किए गए इन लोगों को बाइबल में नबी या भविष्यद्वक्ता, और उनकी बातों और संदेशों को भविष्यवाणी कहा गया, किन्तु यह बात न तो पुराने नियम में परमेश्वर के लोगों, इस्राएल पर सामान्यतः, और न ही नए नियम में मसीही विश्वासियों पर सामान्य रीति से, परमेश्वर के नाम से बोलने वाले सभी व्यक्तियों के लिए लागू और वैध कही गई है। बाइबल में सामान्यतः, दोनों पुराने और नए नियमों में, भविष्य की बातों को बताने वालों के विरुद्ध लिखा गया है, उन्हें परमेश्वर और उसकी शिक्षाओं के विमुख एवं दण्डनीय बताया गया है, दुष्टात्माओं के प्रभाव में आकर कार्य करने वाले शैतान के लोग दिखाया गया है (व्यवस्थाविवरण 18:9-14; प्रेरितों 16:16-18)। तात्पर्य यह कि हर वह जन जो परमेश्वर के नाम में बोलने और भविष्य की बातें बताने का दावा करता है, वह निश्चित ही परमेश्वर की ओर से नहीं है; शैतान भी अपने लोगों को इन्हीं शक्तियों के साथ खड़ा कर सकता है। और वास्तविकता यही है कि परमेश्वर के कार्यों में बाधा तथा लोगों भ्रम उत्पन्न करने के लिए शैतान ऐसा करता भी है। साथ ही हम बाइबल में यह भी देखते हैं कि अपने आप को भविष्यद्वक्ता कहने वाले और भविष्यवाणी करने वाले के लिए यह भी बाध्य था कि उसकी कही बात पूरी भी हो; अन्यथा परमेश्वर ने अपनी व्यवस्था में ऐसे नबियों/लोगों को मार डालने की आज्ञा दी थी (व्यवस्थाविवरण 18:20-22); जिससे लोग परमेश्वर के भविष्यद्वक्ता होने और उसके नाम में व्यर्थ भविष्यवाणी करके उसके लोगों न बहकाएं, न ही परमेश्वर के लोगों से कोई अनुचित लाभ ले सकें। और नए नियम में झूठे भविष्यद्वक्ताओं की पहचान करके उनसे सचेत रहने के लिए कहा गया है (1 यूहन्ना 4:1-6)।
परमेश्वर की ओर से नियुक्त भविष्यद्वक्ता होने, और परमेश्वर की ओर से उसके लोगों तक परमेश्वर के संदेश पहुँचाने वालों के लिए एक और संबंधित एवं महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि यदि वह अपनी समझ और इच्छा से परमेश्वर के नाम से कुछ कह दे, तो परमेश्वर उसकी ऐसी बात को अस्वीकार कर देता था। उस नबी की केवल वही बात परमेश्वर को स्वीकार्य होती थी, जो परमेश्वर उसे कहने के लिए कहता था, यदि वह अपनी ओर से परमेश्वर के नाम में कुछ कहता था, तो परमेश्वर उसे उसकी गलती बता देता था, और सही करने के लिए कहता था, जैसे नातान द्वारा परमेश्वर के नाम में दाऊद के साथ परमेश्वर का मंदिर बनवाने के लिए सहमत होना, और फिर परमेश्वर द्वारा उसे गलती सुधार कर सही बात दाऊद से कहने के लिए भेजना (2 शमूएल 7:1-5)। इसके विपरीत, यदि परमेश्वर द्वारा नियुक्त कोई नबी, परमेश्वर की बात कहने में आनाकानी करता था, परमेश्वर की बात को नहीं बताता था, तो भी वह परमेश्वर के सत्य को कहने की ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता था। ऐसे नबियों के अन्दर परमेश्वर ऐसी बेचैनी उत्पन्न करता था कि अन्ततः उन्हें बोलना ही पड़ता था (यिर्मयाह 20:9), या उनके चारों ओर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता था कि उन्हें परमेश्वर के कहे के अनुसार करना ही पड़ता था, जैसे योना नबी द्वारा नीनवे में प्रचार करने से बचने के प्रयास करना और फिर जाकर वहाँ प्रचार करना।
परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, परमेश्वर का नबी या भविष्यद्वक्ता, अर्थात परमेश्वर का संदेशवाहक होना, और परमेश्वर के नाम में भविष्यवाणी करना, अर्थात, परमेश्वर की बात को लोगों के सामने बोलना - यह चाहे भविष्य की बात बताना हो अथवा वर्तमान के किसी विषय पर कोई संदेश या शिक्षा देना हो, कोई हल्के में लिए जाने वाली बात न तो कभी थी, और न ही है। परमेश्वर का भविष्यद्वक्ता कहलाना कोई पदवी या उपाधि प्राप्त करना और फिर उसके द्वारा लोगों से प्रशंसा, आदर, और महत्व पाने की कामना रखने का तरीका नहीं था, वरन परमेश्वर द्वारा दी गई कड़ी मेहनत की सेवकाई और ज़िम्मेदारी थी, परमेश्वर के प्रति उत्तरदायी होने की स्थिति थी, और अभी भी है। यदि हम बाइबल के भविष्यद्वक्ताओं को देखें, वे चाहे पुराने नियम के हों या नए नियम के, उन सभी का जीवन कठिन था, लोगों द्वारा उन्हें कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता था, और बहुत कम लोग उनकी बातों पर ध्यान देते थे या उनकी बातों को पसंद करते थे। परमेश्वर का भविष्यद्वक्ता होना और परमेश्वर की ओर से भविष्यवाणी करना समाज में बुरा बनना और लोगों से बैर मोल लेना होता था, क्योंकि वे भविष्यद्वक्ता अधिकारियों, लोगों और समाज से संबंधित परमेश्वर के कटु सत्य; उनके समय-काल के समाज, अधिकारियों और लोगों की बुराइयाँ, और उनका परमेश्वर से विमुख होने को, समाज से तिरस्कृत होकर, और अपनी जान पर खेल कर भी प्रकट करते थे, अपने समय के लोगों से इसके लिए सताव और उत्पीड़न को झेलते थे।
किन्तु इसके विपरीत, आज “भविष्यद्वक्ता” कहलाना, और “भविष्यवाणी” करना, समाज और लोगों से उनकी पसंद के अनुसार बातें कहने, लोगों से उनकी संपन्नता, प्रसन्नता, और सांसारिक लाभ की प्रतिज्ञाएं करने के लिए प्रयोग किया जाता है। आज लोग इस आत्मिक वरदान को समाज तथा लोगों में व्याप्त बुराइयों को प्रकट करने और उन पर परमेश्वर के सत्य प्रकट करने के लिए नहीं, वरन, अपने आप को विशिष्ट और आदरणीय दिखाने के लिए एक उपाधि, या पदवी के समान प्रयोग करते हैं, जो बाइबल के अनुरूप नहीं है। हम अगले लेख में देखेंगे कि परमेश्वर के वचन में “भविष्यवाणी” शब्द किन विभिन्न अभिप्रायों में प्रयोग किया गया है, और उसके द्वारा इन शब्दों के बाइबल के अनुसार अर्थ को और गहराई से समझेंगे।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आपको भी परमेश्वर के वचन के अनुसार वचन में लिखी बातों को देखना, जानना, और समझना चाहिए। सेवकाई के आत्मिक वरदान को परमेश्वर के सत्य के स्थान पर लुभावनी बातें कहने और शारीरिक या सांसारिक महत्व एवं स्थान प्राप्त करने के लिए प्रयोग करने वालों से बच कर रहना चाहिए, और वचन की वास्तविकता के अनुसार देख-परख कर ही लोगों द्वारा कही जाने वाली बातों को मानना चाहिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 146-147
1 कुरिन्थियों 15:1-28
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Users of the Gifts of the Holy Spirit - Prophets
We have been learning about the gifts of the Holy Spirit in Christian life and Ministry. Although all the gifts given by the Holy Spirit and all the works and ministries assigned by God for His Believers are equal, none is lesser, or of lesser importance than any other, but according to the frequency of use in the Church - often or occasionally, some gifts have been placed in a serial order in 1 Corinthians 12:28. In this serial listing, the most often used and placed up in the list are related to the ministry of God’s Word; and the least often used are the gifts related to speaking in other ‘tongues’ or languages - about which we have already seen. The first gift related to the Word Ministry, is of being an Apostles, about which we have seen in the previous two articles. Today, from the Word of God the Bible, we will look about the next gift and ministry, being a Prophet.
Generally speaking, whenever the word prophet or to prophesy or prophecy comes before us, we think of a person who can foretell the future and the things that are going to happen in the future. But the words translated in English as prophets or prophesy, do not have only this meaning in their original languages, in the Bible. The word used in the original language of the New Testament, Greek, means “one who can foretell” i.e. speak ahead. This can be both, speak beforehand in terms of time, i.e. tell about the future; as well speak ahead of or in front of others, e.g. a speaker or an orator. So, if anyone were to stand before people and give a message or teaching from God, then that person would be a ‘prophet’ and his message would be a ‘prophecy.’
In this context, there is a very important Biblical fact to be taken note of and kept in mind - although God did raise up people who received visions and messages from Him to tell to His people, to tell them their coming blessings or punishments from God, to tell the world about the coming end of the world and judgment, and these God appointed people are called “Prophets” and their messages are called “prophecies” in the Bible; but neither in the Old, nor in the New Testament, all the people speaking on behalf of God have always been labeled and accepted as “Prophets” nor have whatever message they gave been taken as “prophecy.” Also, both in the Old as well as the New Testaments, God has spoken against those who try to predict the future, especially as ‘professionals’ of this field, other than when it has been at the behest of God. These professional predictors of the future have been condemned in the Bible as being against God and His Word, and have been shown as people working under the influence of demons (Deuteronomy 18:9-14; Acts 16:16-18). The implication is that not everyone who claims to speak in the name of God and predict the future, is necessarily been sent by God; even Satan can send his people with similar powers. And, this is also a fact that to obstruct the work of God and to beguile people away from God, Satan does do this. We also see from the Bible that whoever would claim to be a “Prophet” and prophesy, it was necessary that whatever he had said is also fulfilled; else, God’s commandment was to kill such false prophets and fortune tellers (Deuteronomy 18:20-22); so that people would be cautious about claiming to be “Prophets”, and not make false prophecies in the name of God to use this for gaining personal benefits. In the New Testament too we have been cautioned about discerning false prophets and beware of them (1 John 4:1-6).
There is a very important fact associated with being a Prophet from God and carrying God’s message to His people; if the Prophet would say anything on his own, or add to what God has said through his own understanding, God would reject all such additions; He is under no compulsion to comply with them. Only that which God has said to that Prophet would be acceptable to God; if he assumed something or said anything from his side in the name of God, God would caution that Prophet and ask him to correct himself. We see this well illustrated in the Prophet Nathan’s concurring in God’s name with King David to build the Temple of God, and then God correcting Nathan and sending him back to tell God’s will to David (2 Samuel 7:1-5). Also, if any God appointed Prophet would hesitate to deliver God’s message, not speak up on behalf of God, and tried to evade his God given responsibility, even then he would not escape his duty of speaking up God’s truth. God would create such a restlessness in them, that eventually they had to speak up for Him (Jeremiah 20:9); or create such circumstance around them, that they would have to do what God had told them to do, as was the case with the Prophet Jonah, assigned to preach in Nineveh, tried to evade it, but eventually had to go and do it.
According to the Word of God, the Bible, to be a messenger of God, i.e., a Prophet, and to speak God’s messages to the people on behalf of God, whether it was about the future or about the current happenings, was never ever something to be taken lightly, nor can it be taken lightly or frivolously even today by anyone. To be called a Prophet of God is not to take up a title or acquire a status, and then use it to gain name, fame, and worldly prosperity. Rather, then, as well as now, it has always been a very demanding position of great responsibility, and accountability to God. When we see the Prophets of God in the Bible, whether in the Old or in the New Testament, they all had a very difficult life, the people of their times did not give them any importance, hardly anyone paid any heed to what they had to say, and practically no one liked their messages. To be a Prophet of God and to ‘prophesy’ on God’s behalf would tantamount to being treated harshly, with contempt, and asking to be opposed by the society. Because God’s Prophets would speak the bitter and unpalatable truths of God to the officials, leaders, and the general public, about their lives and the sins in their lives. The Prophets of God were usually engaged in telling the people, officials, leaders etc. why and how God was against them, and what He was going to do about this unacceptable state; the Prophets often had to suffer persecution and rejection, even be in danger of losing their lives for the bitter and unpalatable truths of God that they were sent to speak on behalf of God.
But in stark contrast to this evident harsh life and working of God’s Prophets delivering God’s messages from the Bible, our current, modern-day “Prophets” are living and working in a very comfortable and luxurious manner. The “Prophets” of today “prophesy” about what people like to hear, they loudly and dramatically talk about and glibly promise a life of worldly prosperity, physical enjoyments, and temporal benefits, instead of speaking to people about their sin, repentance and forgiveness from sin, being submitted to the Lord Jesus and obedient to His Word, preparing for the coming judgment of God, etc. Today people are using this responsibility and Spiritual gift as a title and status symbol, not to speak up about the truths of God and His Word, but to show themselves as special and commendable, which is quite unlike what the Bible says and shows. In the next article we will see in how many different ways and with varying meanings the term “prophecy” has been used in the Bible, and understand the meaning of these words in greater depth from that.
If you are a Christian Believer, then you should strive to learn God’s Word and to see, learn, and understand what the Bible says about these things. Beware and stay away, stay safe from those who use the Spiritual ministry and gifts to speak populistic things of worldly and physical benefits, instead of God’s truth factually - however harsh it may be for the hearers. Make it a habit to first check and confirm, and only then believe and accept what people are saying, especially if it is of temporal value.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 146-147
1 Corinthians 15:1-28