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परिचय – प्राप्त करना और उद्देश्य
हमारे मसीही जीवन के लिए परमेश्वर द्वारा किए गए प्रावधानों में से पहले – उस के वचन, के प्रति योग्य भण्डारी होने को पिछले लेखों में देखने के बाद, आज से हम परमेश्वर द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए किए गए दूसरे प्रावधान – परमेश्वर पवित्र आत्मा का मंदिर होने (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19) के लिए योग्य भण्डारी होने के बारे में देखना आरम्भ करेंगे।
मसीही समाज में एक असमंजस व्याप्त है कि एक मसीही विश्वासी में निवास करने के लिए परमेश्वर का पवित्र आत्मा उसे कब और कैसे प्राप्त होता है। यह असमंजस परमेश्वर पवित्र आत्मा के बारे में प्रचलित बहुत सारी गलत शिक्षाओं के कारण और भी बढ़ जाता है। परमेश्वर के वचन की सीधी और स्पष्ट शिक्षा है कि जैसे ही कोई व्यक्ति अपने पापों से पश्चाताप करता है, प्रभु से उसके पापों को क्षमा करने का आग्रह करता है, कलवरी के क्रूस पर प्रभु यीशु द्वारा किए गए छुटकारे के कार्य को स्वीकार कर लेता है, और अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर के उसकी आज्ञाकारिता में जीने आ निर्णय कर लेता है, उसी क्षण से ही वह परमेश्वर की संतान (यूहन्ना 1:12-13), उसके परिवार का सदस्य बन जाता है, और परमेश्वर पवित्र आत्मा आ कर उसमें उसके पृथ्वी के जीवन भर के लिए निवास करने लगता है।
किसी भी वास्तव में नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रतीक्षा की अथवा कोई विशेष प्रयास अथवा कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पवित्र आत्मा परमेश्वर द्वारा विश्वास के आधार पर दिया जाता है, न कि किसी प्रकार के कार्यों के कारण (2 कुरिन्थियों 1:22; 5:5; गलातियों 3:14)। उसका आ कर विश्वासी में निवास करना, प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने के साथ ही, उसी पल से होता है (प्रेरितों 19:2; गलातियों 3:2; इफिसियों 1:13-14)। सच तो यह है कि पवित्र आत्मा के बिना कोई यीशु को प्रभु कह ही नहीं सकता है (1 कुरिन्थियों 12:3)। दूसरे शब्दों में, जब तक कि उद्धार पाने के पल से उस में पवित्र आत्मा आ कर निवास न करने लग जाए, कोई मसीही विश्वासी यीशु को प्रभु नहीं कह सकेगा। इसलिए उसके नया जन्म पाने के समय से ही पवित्र आत्मा की उसमें उपस्थिति न केवल बाइबल का एक तथ्य है, बल्कि उस नए जन्मे आत्मिक शिशु के लिए अनिवार्य भी है, उसे शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के लिए।
प्रभु यीशु मसीह ने क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले शिष्यों के साथ जो अन्तिम चर्चा की थी, उस में, यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में, उन्होंने शिष्यों से कहा था कि वे उनके साथ रहने के लिए पवित्र आत्मा को भेजेंगे। इसलिए इस ईश्वरीय वरदान के योग्य भण्डारी होने के लिए, हमें यह सीखना और समझना आवश्यक है कि परमेश्वर ने उसे हमें क्यों दिया है, और उसके हम में निवास करने का हम कैसे सदुपयोग कर सकते हैं, क्योंकि वह कभी भी उन उद्देश्यों से बाहर कुछ नहीं करेगा, जिनके लिए उसे हमें प्रदान किया गया है। यूहन्ना रचित सुसमाचार के इन अध्यायों में प्रभु यीशु मसीह ने उसे हमारा सहायक, साथी, शिक्षक, हमें कायल करने वाला कहा है। वह हमें प्रभु यीशु मसीह के वचनों को स्मरण करवाता है, और यह करते समय वह परमेश्वर द्वारा दे दिए गए वचन से बाहर कभी नहीं जाता है, और न ही कभी किसी को कोई नए दर्शन अथवा सिद्धांत देता है, न ही अपनी ओर से, प्रभु यीशु ने जो कहा, सिखाया, और करा है, उसके अतिरिक्त कुछ करता है। हम उसे अपने हाथों की कठपुतली नहीं बना सकते हैं, और न ही अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए उससे अपने लिए कुछ नया करवा सकते है। यदि हम उसके अनाज्ञाकारी रहेंगे, या उसके निर्देशों का पालन नहीं करेंगे, तो हम उसकी सामर्थ्य का भी अनुभव नहीं करने पाएँगे, और न ही वह हम में होकर अथवा हमारे लिए हमारी सेवकाई में, हमारे मसीही जीवन में कार्य करेगा। जब तक कि हम उसे हमें दिए जाने के उद्देश्यों को सीखेंगे और जानेंगे नहीं, तब तक हम उसे उचित आदर और उसकी सहायता का योग्य रीति से उपयोग नहीं करने पाएँगे।
अगले लेख से हम इन बातों के बारे में देखना आरम्भ करेंगे, पवित्र आत्मा को मसीही विश्वासियों में निवास करने के लिए क्यों दिया गया है। हम यह यूहन्ना के इन अध्यायों में दिए गए क्रम के अनुसार देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Introduction – Receiving & Purposes
Having seen about the stewardship of the first provision made by God for our Christian life – His Word, the Bible, in the previous articles, from today we will begin to consider our stewardship about the second provision made by God for every Christian Believer – to be the Temple of God the Holy Spirit (1 Corinthians 3:16; 6:19).
There is a confusion in the Christian community, about when and how a Christian Believer receives the Holy Spirit of God to dwell in him. This confusion is compounded by the many wrong teachings prevalent about God the Holy Spirit. The plain and simple teaching of God’s Word is that as soon as a person repents of his sins, asks the Lord God to forgive his sins, accepts the redeeming work of the Lord Jesus on the Cross of Calvary, and submits his life to the Lord to live in obedience to Him, from that very moment of believing he becomes a child of God (John 1:12-13), a member of God’s family, and God the Holy Spirit comes to reside in him for his lifetime on earth.
No truly Born-Again Christian Believer needs to wait, or make any special efforts, or do any works of any kind to receive the Holy Spirit, since He is God given, because of our faith, and not given because of any works of any kind by any person (2 Corinthians 1:22; 5:5; Galatians 3:14). His coming to reside within the Believer happens the moment we believe, we come to faith in the Lord Jesus (Acts 19:2; Galatians 3:2; Ephesians 1:13-14). In fact, no one can call Jesus as Lord, except by the Holy Spirit (1 Corinthians 12:3). In other words, unless God the Holy Spirit is residing in him since the time of his being saved, no Christian Believer would ever be able to call Jesus as Lord. Hence the presence of the Holy Spirit in the Believer since the moment of his being Born Again is not only a Biblical fact, but is also a necessity for that new-born infant in Christ, to keep him safe and secure from the wiles and attacks of the devil.
The Lord Jesus Christ, in His last discourse with the disciples before His crucifixion, told them that He will be sending the Holy Spirit to be with them. The Lord also told them about the purpose of His sending God the Holy Spirit to be with the disciples, in John chapters 14 to 16. Therefore, to be proper Stewards of this divine gift, we are to learn and understand why God has given Him to us, and how to utilize His residing in us, since He will never go outside of the purposes for which He has been made available. The Lord Jesus, in these chapters of John’s Gospel has called Him: our helper, companion, teacher, one who convicts us. He is there to remind us of Lord Jesus's Words, and in doing so He neither goes beyond God's given Word, nor does He give any new revelations or doctrines to anyone, nor does He do anything new from His own side, over and above what the Lord Jesus has already done, said, and taught. We cannot manipulate or get Him to do anything new just for us, or simply to satisfy our whims. If we are disobedient to Him, or do not follow His instructions, then we cannot experience His power, or have Him working in and through us in our ministry and Christian living. Unless we know and learn these purposes of His being given to us, we will not be able to duly honor Him, nor utilize His help worthily.
From the next article we will look about these things, the purposes of the Holy Spirit residing in and being with Christian Believers, in the sequence that the Lord Jesus said about them in these chapters from John.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.