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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 11
मसीही विश्वासी, अर्थात वह जिसने वास्तव में सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप किया है और अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह को समर्पित कर दिया है, की आत्मिक उन्नति, तथा कलीसिया की बढ़ोतरी के लिए, अनिवार्य बाइबल की शिक्षाओं में से एक है सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएँ। सुसमाचार, लोगों के पश्चाताप करने और सुसमाचार में विश्वास करने के द्वारा प्रभावी होता है। सच्चा पश्चाताप जीवन में आए परिवर्तनों, परमेश्वर के वचन के प्रति प्रेम, और दूसरों को पश्चाताप के लिए प्रोत्साहित करने की लालसा रखने के द्वारा प्रमाणित होता है। वर्तमान में, इस श्रृंखला में, हम पश्चाताप से सम्बन्धित शिक्षाओं पर, तथा जीवन में आने वाले परिवर्तन से सम्बन्धित विभिन्न बातों पर, जिन्हें विश्वासी को अपने जीवन में दिखाना चाहिए, विचार कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने एक प्रकार की आशीष और प्रतिफल को देखा था जो परमेश्वर ने उनके लिए रख छोड़ी है जो उसकी आज्ञाकारिता में बने रहते हैं और अपने जीवन से उसे महिमा देते हैं; कि वह उनके साथ पिता के समान रहेगा, और वे कभी भी, किसी भी बात के लिए निःसंकोच उसके पास आ सकते हैं, उससे अपने मन की हर बात कह सकते हैं। आज से हम दूसरी आशीष और प्रतिफल पर विचार करना आरम्भ करेंगे, जो परमेश्वर ने अपने आज्ञाकारी बच्चों के लिए तैयार कर रखी है – कि अपने वचन के द्वारा वह उन्हें सम्पूर्ण, प्रत्येक भले कार्य के लिए पूर्णतः तैयार, और परिपक्व बनाएगा ताकि वे मनुष्यों की चालाकियों द्वारा किसी धोखे में न पड़ें।
परमेश्वर अपने लोगों के जीवनों में, मुख्यतः अपने वचन, बाइबल, के माध्यम से कार्य करता है (1 थिस्सलुनीकियों 1:5-10)। परमेश्वर ने अपने पवित्र आत्मा के द्वारा, अपने पवित्र लोगों को प्रेरित किया कि वे पवित्र शास्त्र को लिखें (2 पतरस 1:21)। जैसा कि हम इससे पूर्व की, पवित्र आत्मा के तथा परमेश्वर के वचन के भण्डारी होने की श्रृंखला में देख चुके हैं, प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसके नया-जन्म पाने के पल से ही पवित्र आत्मा दे दिया जाता है कि उस में बना रहे, उसका सहायक हो, और उसे परमेश्वर का वचन सिखाए (यूहन्ना 14:16, 26)। लेकिन परमेश्वर द्वारा प्रदान किये गए इस ईश्वरीय प्रावधान का सदुपयोग करने के लिए पर्याप्त उचित प्रयास करना, यह प्रत्येक विश्वासी की अपनी ज़िम्मेदारी है, और उसके द्वारा इसके लिए किये गए प्रयास पर निर्भर करता है।
पवित्र आत्मा ने केवल प्रतिबद्ध और आज्ञाकारी विश्वासियों को स्वयं सिखाता है, वरन साथ ही, जैसा इफिसियों 4:11-15 में लिखा है, “और उसने कुछ को प्रेरित, कितनों को भविष्यद्वक्ता नियुक्त कर के, और कितनों को सुसमाचार सुनाने वाले नियुक्त कर के, और कितनों को रखवाले और उपदेशक नियुक्त कर के दे दिया। जिस से पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं, और सेवा का काम किया जाए, और मसीह की देह उन्नति पाए। जब तक कि हम सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक न हो जाएं, और एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं और मसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएं। ताकि हम आगे को बालक न रहें, जो मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते हों। वरन प्रेम में सच्चाई से चलते हुए, सब बातों में उस में जो सिर है, अर्थात मसीह में बढ़ते जाएं” परमेश्वर विश्वासियों को, कलीसिया को, तथा औरों को अपने वचन की सेवकाई करने वाले पाँच भिन्न प्रकार के सेवकों के द्वारा भी सिखाता है, जो उनमें कार्य करने वाले पवित्र आत्मा की सहायता से यह करते हैं। परमेश्वर के वचन की सेवकाई के लिए ठहराए गए ये पाँच प्रकार के सेवक हैं, प्रेरित, भविष्यद्वक्ता, सुसमाचार प्रचारक, रखवाले, और उपदेशक। परिश्रम के साथ की गई उनकी खरी सेवकाई के द्वारा, परमेश्वर के लोग अपनी-अपनी सेवा के काम को भली-भान्ति करने के लिए तैयार हों; मसीही विश्वासी और कलीसिया उन्नति पाए और बढ़े तथा परिपक्व हो; विश्वास में एकता को प्रोत्साहन और बढ़ावा मिले; विश्वासी प्रभु यीशु की पहचान में सिद्ध हो जाएँ और मसीह के डील-डौल तक बढें; अपरिपक्व बालक न रहें कि मनुष्यों की चतुराई की विभिन्न शिक्षाओं में इधर-उधर न भटकाए जाएँ; वरन ऐसे लोग बनें जो प्रेम से सत्य पर चलते हैं।
इन परिवर्तनों के होने के लिए, परमेश्वर के वचन को विश्वासियों और कलीसिया में उस प्रकार से सिखाया और उपयोग किया जाना है, जैसा उसके लिए निर्धारित किया गया है, अर्थात उस तरह से जैसे पौलुस ने तीमुथियुस को वचन का उपयोग करने के लिए लिखा, “हर एक पवित्र शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्पर हो जाए” (2 तीमुथियुस 3:16-17)। यहाँ पर हम चार प्रकार से परमेश्वर के उपयोग किये जाने के लिए निर्देश को देखते हैं, जिससे विश्वासी उन्नति पाएं और कलीसिया बढ़े। ये चार तरीके हैं – सही शिक्षा सीखने के लिए; समझाने, अर्थात जो परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं को लेकर गलती में हैं उन्हें सही करने, आलोचना करने, और उलाहना देने के लिए; सुधारने के लिए, अर्थात झूठे और विधर्मी प्रचारकों द्वारा लाई गई गलतफहमियों, गलत व्याख्याओं, गलत सिद्धांतों, और झूठी शिक्षाओं को सही करने के लिए; और धर्म की सही शिक्षा देने के लिए। इस प्रकार, उपरोक्त पाँच प्रकार के वचन के सेवकों की यह ज़िम्मेदारी है कि वे परमेश्वर के वचन को इन चार प्रकार से, परमेश्वर के भय में होकर उपयोग करें; न कि मनुष्यों से डर कर वचन को दबाए रखें (प्रेरितों 20:20, 27; गलतियों 1:10)। और यह विश्वासियों और कलीसिया की ज़िम्मेदारी है कि वे उन्हें सुधारने और उन्नत करने के इन प्रयासों को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें (भजन 141:5; गलतियों 4:16), न कि उनके कारण विरोध करें और परमेश्वर के वचन को परमेश्वर की आज्ञाकारिता में उन्हें सुधारने और बढ़ाने के लिए सिखाने वालों के विरुद्ध बोलें।
अगले लेख में हम मसीही विश्वासी के जीवन में परमेश्वर के वचन के द्वारा आने वाले कुछ प्रभावों को देखेंगे, यदि उसे सही तरह से स्वीकार किया जाए और उसका पालन किया जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 11
One type of the essential Biblical teachings for the spiritual edification of the Christian Believer, i.e., of those who have truly repented of their sins and have submitted their lives to the Lord Jesus, and the growth of the Church are the teachings related to the gospel. The gospel is made effective by people repenting and believing in the gospel. True heartfelt repentance is evidenced by a changed life, a love for God’s Word, and a desire for encouraging others to repent. Presently, in this series we are considering teachings about repentance and the various aspects of the changed life of the Christian Believers, are expected to live by. In the previous article we have seen one of the blessings and rewards God has kept for those who glorify Him through their changed lives and obedience to Him; that God lives with them as their loving Father, and they have an ever-available access to Him for anything they want to share with Him. Today we will start considering the second blessing and reward that God has kept ready for His obedient children – that through His Word He will make them complete, thoroughly prepared for every good work; and mature so that they cannot be deceived by the trickeries of men.
God works in the lives of His people mainly through His Word, the Bible (1 Thessalonians 1:5-10). God, through His Holy Spirit, inspired His holy men to write the Scriptures (2 Peter 1:21). As we have seen in the earlier series about the stewardship of the Holy Spirit and of God’s Word, the Holy Spirit has been given to every Christian Believer since the moment of his being Born-Again, to remain in him, to be his Helper, and to teach God’s Word to him (John 14:16, 26). But to make sincere efforts to utilize this God given divine provision, and utilize worthily, is every Christian Believer’s own responsibility, dependent upon the efforts they out in for this.
The Holy Spirit not only teaches the committed and obedient Believers directly, but as is written in Ephesians 4:11-15, “And He Himself gave some to be apostles, some prophets, some evangelists, and some pastors and teachers, for the equipping of the saints for the work of ministry, for the edifying of the body of Christ, till we all come to the unity of the faith and of the knowledge of the Son of God, to a perfect man, to the measure of the stature of the fullness of Christ; that we should no longer be children, tossed to and fro and carried about with every wind of doctrine, by the trickery of men, in the cunning craftiness of deceitful plotting, but, speaking the truth in love, may grow up in all things into Him who is the head—Christ” God also teaches the Believers, the Church, and the others through the ministries of five different kinds of ministers of His Word functioning in the power of the Holy Spirit operative in their live. These five kinds of ministers of God’s Word are the Apostles, Prophets, Evangelists, Pastors, and Teachers. Through their diligent ministry, God’s people are equipped for their ministries; the Christian Believers and God’s Church are edified, i.e., grow and mature; unity in faith is promoted and encouraged; the Believers are perfected in the knowledge of the Lord Jesus and grow to the stature of the fullness of Christ; no longer remain immature children, misled here and there by various deceitful doctrines and teachings of men; but become those who speak the truth in love.
For these changes to happen in the Christian Believer’s lives, God’s Word has to be taught and used amongst the Believers and the Church, in its prescribed manner, i.e., in the same manner as Paul wrote to Timothy to use the Scriptures in the congregation; Paul, under the guidance of the Holy Spirit wrote, “All Scripture is given by inspiration of God, and is profitable for doctrine, for reproof, for correction, for instruction in righteousness, that the man of God may be complete, thoroughly equipped for every good work” (2 Timothy 3:16-17). Here we see the four ways in which the Scriptures are to be used to ensure the growth and edification of the Believers and the Church – for learning correct doctrine; for reproof, i.e., for criticizing, censuring, and reprimanding those in errors about the teachings of God’s Word; for correcting the misconceptions, misinterpretations, wrong doctrines and false teachings brought in by heretic preachers and teachers; and for instructing about the correct teachings that God wants delivered amongst His people. So, it is the responsibility of the five kinds of ministers of God’s Word mentioned above to use God’s Word for these functions, in the fear of God (Acts 20:20, 27; Galatians 1:10), instead of holding back in the fear of man. And it is the responsibility of the Believers and the Church to receive these corrective admonitions in a positive attitude (Psalm 141:5; Galatians 4:16), instead of protesting about them or speaking against those who obey God’s Word to teach, correct, and edify them.
In the next article we will see some of the effects of God’s Word in the Christian Believer’s life, when the Word is rightly received and obeyed.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.