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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 10
सच्चे, वास्तविक पश्चाताप के प्रमाणों में से एक, बदला हुआ जीवन, पर विचार करते हुए, हमने देखा है कि पश्चातापी व्यक्ति को स्वेच्छा से अपने जीवन और व्यवहार में लाए गए इस परिवर्तन को, परमेश्वर द्वारा उसकी बुद्धि के नए किये जाने को, जी कर दिखाना है, उसके द्वारा परमेश्वर की महिमा करनी है। उस मसीही विश्वासी के लिए, जिस ने प्रभु को पूर्ण समर्पण करने तथा उसकी और उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने, और अपने जीवन तथा व्यवहार के द्वारा परमेश्वर को महिमा देने का निर्णय लिया है, उसके इस विश्वास में कदम बढ़ाने तथा परमेश्वर के कहे को करने के लिए परमेश्वर ने तीन बहुत बड़ी आशीषें रख छोड़ी हैं। पहली, परमेश्वर उसके साथ एक प्रेमी पिता के समान रहना चाहता है। दूसरी, परमेश्वर उस व्यक्ति को सिद्ध बनाता और प्रत्येक भले कार्य के लिए भली-भान्ति तैयार करता है; उसे परिपक्व बनाता है कि वह मनुष्यों की चालाकियों द्वारा धोखा न खाने पाए। तीसरी, परमेश्वर उसे अपने पुत्र, प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप और समानता में ढालना चाहता है। आज हम इन में से पहली आशीष के बारे में देखेंगे।
परमेश्वर की पहली आशीष और मनसा है कि वह अपने प्रति समर्पित और आज्ञाकारी विश्वासियों के साथ पिता समान रहे। मसीही विश्वासी द्वारा अपने जीवन में लागू करने के लिए, 2 कुरिन्थियों 6:14-18 में कुछ परिवर्तनों की एक श्रृंखला दी गई है, और इन परिवर्तनों को जीवन में लागू करने का परिणाम परमेश्वर का उस विश्वासी के साथ पिता समान रहना बताया गया है; “अविश्वासियों के साथ असमान जूए में न जुतो, क्योंकि धामिर्कता और अधर्म का क्या मेल जोल? या ज्योति और अन्धकार की क्या संगति? और मसीह का बलियाल के साथ क्या लगाव? या विश्वासी के साथ अविश्वासी का क्या नाता? और मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध? क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर का मन्दिर हैं; जैसा परमेश्वर ने कहा है कि मैं उन में बसूंगा और उन में चला फिरा करूंगा; और मैं उन का परमेश्वर हूंगा, और वे मेरे लोग होंगे। इसलिये प्रभु कहता है, कि उन के बीच में से निकलो और अलग रहो; और अशुद्ध वस्तु को मत छूओ, तो मैं तुम्हें ग्रहण करूंगा। और तुम्हारा पिता हूंगा, और तुम मेरे बेटे और बेटियां होगे: यह सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर का वचन है।” परमेश्वर द्वारा दिए गए इस आश्वासन के आधार पर, फिर पौलुस आग्रह करता है, “सो हे प्यारो जब कि ये प्रतिज्ञाएं हमें मिली हैं, तो आओ, हम अपने आप को शरीर और आत्मा की सब मलिनता से शुद्ध करें, और परमेश्वर का भय रखते हुए पवित्रता को सिद्ध करें” (2 कुरिन्थियों 7:1)।
इस खण्ड से दो बातें प्रकट हैं। पहली, यह खण्ड बहुत स्पष्ट रीति से इस आम, किन्तु बाइबल से असमर्थित धारणा का अन्त कर देता है कि एक मसीही विश्वासी, सँसार और अविश्वासियों के साथ सामाजिक और निकट रिश्तों को बनाए रखने के लिए, मसीही विश्वास की बातों के साथ समझौते कर सकता है। बाइबल कहीं भी यह नहीं कहती है कि मसीहियों को अविश्वासियों के प्रति बैर या विरोध की भावना और व्यवहार रखना चाहिए; हम अविश्वासियों के साथ बिना बैर या विरोध की भावना और व्यवहार रखे हुए, बिना अपने मसीही विश्वास के साथ कोई समझौता किये हुए, सामाजिक और अच्छे सम्बन्ध सदा बनाए रख सकते हैं। यहाँ पर पवित्र आत्मा पौलुस में होकर बारंबार यह आलंकारिक प्रश्न पूछता है कि विश्वासी के अविश्वासियों के साथ निकट सम्बन्ध, जिनके कारण विश्वास में समझौते की संभावना बन जाए, उनका क्या आधार हो सकता है? वह विश्वासियों से आग्रह करता है कि परमेश्वर द्वारा उनके जीवनों में लाए गए परिवर्तन के अनुरूप जीवन को जीएँ; सँसार के साथ किसी भी रीति से कोई समझौता नहीं करें, बल्कि उस से पृथक होकर रहें।
दूसरी, एक बार फिर से हम पौलुस द्वारा 2 कुरिन्थियों 7:1 में विश्वासियों से किये गए आग्रह से देखते हैं कि मसीही विश्वासी को इस बात का एहसास करना है कि परमेश्वर ने उसके लिए और उसके अन्दर क्या कुछ किया है। और फिर उसके अनुसार उसे स्वयं ही पहल करके परमेश्वर जो परिवर्तन उसके जीवन में चाहता है, उन्हें लागू करना है; किन्तु परमेश्वर उन परिवर्तनों को लागू करने के लिए कभी उसे मजबूर या कोई ज़बरदस्ती नहीं करता है। परमेश्वर उसे बता देता है कि वह उस व्यक्ति और उसके जीवन से क्या चाहता है, और यह भी बता देता है कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता, उसकी इच्छा और निर्देशों के अनुसार जीवन जीने के द्वारा उसे क्या लाभ होंगे; और फिर परमेश्वर प्रतीक्षा करता है कि वह विश्वासी उन परिवर्तनों को अपने जीवन में लागू करना आरम्भ करे। परमेश्वर का पवित्र आत्मा हमेशा उपलब्ध और तैयार रहता है कि जैसे ही वह विश्वासी परिवर्तन की इस प्रक्रिया को आरम्भ करे, उसे यह प्रक्रिया चाहे कितनी भी कठिन और भयावह क्यों न प्रतीत हो; किन्तु आरम्भ से लेकर परिवर्तन पूरे होने तक, उन में उस की सहायता और मार्गदर्शन करे। जब विश्वासी आज्ञा पालन करता है, उन परिवर्तनों को लागू करता है, परमेश्वर अपनी अलौकिक आशीषों और प्रतिफलों को उसे प्रदान करने के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रहा होता है।
ज़रा उस निरन्तर, 24 X 7, बिना किसी भी बाधा के, हमेशा सहज ही उपलब्ध, कभी समाप्त न होने वाले परमेश्वर के साथ सहभागिता रखने के आदर के बारे में कल्पना कीजिए, जिसमें आप परमेश्वर से निःसंकोच, बिना घबराए, कुछ भी, और सब कुछ जो आप के मन में है कह सकते हैं, और परमेश्वर एक बहुत लाड़ और प्रेम करने वाले पिता के समान बड़े धैर्य के साथ आप की सब बात ध्यान से सुनता रहता है, और फिर आप ने जो उसके साथ बांटा है उसके अनुसार जो भी करना और देना है उसके प्रावधान कर देता है। क्या यह महान विशेषाधिकार पृथ्वी की उन नाशमान बातों से कहीं अधिक बहुमूल्य नहीं होगा, जिन्हें हमारा स्वर्गीय परमेश्वर पिता चाहता है कि हम उन्हें छोड़ दें, कि इस आशीष को पा सकें?
ज़रा विचार कीजिए कि अपने बदले हुए जीवनों के द्वारा उसे महिमा देने और उसकी आज्ञाकारिता में जीवन जीने के प्रत्युत्तर में परमेश्वर ने हमारे लिए क्या कुछ तैयार कर रखा है; और यह तो केवल पहली आशीष है, इसके अतिरिक्त दो आशीषें और हैं जिन पर हम आने वाले लेखों में विचार करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 10
In considering the changed life being one of the evidences of true heartfelt repentance, we have seen that this voluntarily implemented change in life and behavior of the repentant person should through his actions, reflect the newness of the mind brought in him by God, and should glorify God. For a Christian Believer who has chosen to fully surrender himself to the Lord voluntarily, live in obedience to Him and His Word, and to glorify God through his life and behavior, God has kept three very great blessings for his stepping out in faith to do God’s bidding. Firstly, God wants to live and be with him like a loving Father. Secondly, God wants to make him complete and thoroughly prepared for every good work; make him mature so that he cannot be deceived by the trickeries of men. Thirdly, God wants to bring him into the form and image of His Son, the Lord Jesus Christ. Today we will look at the first of these blessings.
The first blessing and desire of God is to live with the surrendered and obedient Believers as a Father. In 2 Corinthians 6:14-18 is given a series of changes that the Christian Believers should implement in their lives, and the net result of implementing these changes is God living with such Believers as their Father; “Do not be unequally yoked together with unbelievers. For what fellowship has righteousness with lawlessness? And what communion has light with darkness? And what accord has Christ with Belial? Or what part has a believer with an unbeliever? And what agreement has the temple of God with idols? For you are the temple of the living God. As God has said: "I will dwell in them And walk among them. I will be their God, And they shall be My people." Therefore "Come out from among them And be separate, says the Lord. Do not touch what is unclean, And I will receive you." "I will be a Father to you, And you shall be My sons and daughters, Says the Lord Almighty."” On the basis of this assurance from God, Paul then exhorts, “Therefore, having these promises, beloved, let us cleanse ourselves from all filthiness of the flesh and spirit, perfecting holiness in the fear of God” (2 Corinthians 7:1).
There are two things evident from this passage. Firstly, this passage clearly puts and end to a popular but unBiblical notion, that a Christian Believer can mingle and compromise with the world, to maintain civil and cordial relations. Nowhere does the Bible speak of having animosity or antagonism towards the unbelievers; we can always be civil and cordial with the unbelievers without compromising on our faith to please the unbelievers. The Holy Spirit, through Paul here repeatedly asks the rhetorical question, on what grounds can a Believer have such close relationships with unbelievers, that bring up the possibility of compromising in faith? He exhorts the Believers to live according to the change brought by God in their lives; separate out and not compromise with the world and the people of the world in any manner.
Secondly, once again, we see from Paul’s exhortation in 2 Corinthians 7:1, that it is the Christian Believer who has to come to the realization of what God has done in and for him. Then, he has to accordingly take the initiative and implement the changes that God wants done in his life; but God does not coerce or compel the Believer for carrying them out. God tells him what He wants from him and in his life, and also tells him the gains he will get by obeying God, living according to God’s desire and instructions; and then waits for the Believer to step up and start implementing the changes. God’s Holy Spirit is already in the Believer to help and guide him right through this process, from the moment the Believer decides to go through this process, however difficult or daunting or costly it may appear. When the Believer obeys, carries out the required changes, God is ready and waiting with the rewards that literally are ‘out of this world.’
Imagine having a continual, 24 X 7 unhindered, readily available, unending access to God, being able to freely converse with Him for anything and everything on our heart and in our lives, while He, as a doting benevolent Father, patiently listens to all of whatever we have to say, and then makes the necessary arrangements and provisions for all that we have shared with Him. Wouldn’t the access to this heavenly privilege here on earth, be unimaginably more worthwhile than the things of this world that God desires His children to get away from?
Just consider, in return for obeying Him and glorifying Him through our changed life, how much He has kept available for us; and this is just part one, there are two other blessings that we will consider in the next articles.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.