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निर्गमन 12:3-4 - प्रभु की मेज़ और मण्डली में एकता
हमने पिछले लेखों में देखा है कि किस प्रकार से शैतान ने प्रभु भोज को, परमेश्वर के वचन में लिखी हुई उससे संबंधित बातों और निर्देशों को तोड़-मरोड़ के बताने और उनका दुरुपयोग करने के द्वारा, बिगाड़ करके भ्रष्ट कर दिया है, उसे एक व्यर्थ और अर्थहीन परंपरा में परिवर्तित कर दिया है। शैतान ऐसा मुख्यतः दो बातों के कारण करने पाया है। पहली यह कि अधिकांश ईसाइयों या मसीहियों को स्वयं परमेश्वर का वचन पढ़ने और सीखने की कोई परवाह नहीं है; जो भी परमेश्वर के नाम में पुल्पिट से उन्हें बता दिया जाता है, वे उसी से संतुष्ट रहते हैं और उसे ही स्वीकार कर लेते हैं, उसे ही वास्तविकता और सत्य समझ लेते हैं; कभी उन बातों की जांच और पुष्टि परमेश्वर के वचन बाइबल से नहीं करते हैं। और दूसरी यह कि अधिकांश ईसाइयों या मसीहियों को बाइबल की बातों और निर्देशों के स्थान पर केवल अपने मत, समुदाय, डिनॉमिनेशन की परंपराओं एवं शिक्षाओं का पालन करने में रुचि रहती है। उनकी प्राथमिकता परमेश्वर को प्रसन्न करना और उसके वचन की आज्ञाकारिता नहीं, वरन उनके धार्मिक अगुवों की बातों को मानने, और उन्हें प्रसन्न रखने की रहती है। इसीलिए, यद्यपि संपूर्ण मसीही समाज के विभिन्न मत और समुदायों में प्रभु भोज में भाग लेने की विधि में विविधाताएं हैं, लेकिन फिर भी परंपरा के रूप में उसमें भाग लेते रहने के द्वारा, ईसाई या मसीही लोग इसी गलतफहमी का निर्वाह करते रहते हैं कि ऐसा करने से वे परमेश्वर को स्वीकार्य और स्वर्ग में प्रवेश पाने के लिये योग्य हो गए हैं - जो कि बाइबल के अनुसार कदापि सत्य नहीं है; शैतान और उसके दूतों द्वारा फैलाया गया भ्रम है।
हमने पिछले लेखों में फसह तथा प्रभु भोज से संबंधित कुछ प्रतीकों को भी देखा था, और यह भी देखा था कि आम धारणा के विपरीत, कि प्रभु भोज का आरंभ नए नियम में प्रभु यीशु द्वारा किया गया, इसमें भाग लेने के प्ररूप पुराने नियम में फसह के भोज में भी पाए जाते हैं, और प्रभु यीशु ने इसी फसह के भोज को मनाते हुए इस ‘प्रभु भोज’ की स्थापना की थी। हमने पिछले लेख में इसी प्रथम प्ररूप, निर्गमन 12 की बातों के तात्पर्यों और प्रभु की मेज़ में भाग लेने के लिये उससे मिलने वाली शिक्षाओं को भी देखना आरंभ किया था। हमने इस अध्याय के पद 1 और 2 से देखा था कि जिस प्रकार से फसह का भोज केवल परमेश्वर के चुने हुए लोगों, इस्राएल ही के लिये था, जिनके लिये यह एक नई शुरुआत को भी दिखाता था; उसी प्रकार से प्रभु की मेज़ या प्रभु भोज भी केवल उनके लिये ही है जो “एक नई सृष्टि” हो गए हैं, किसी मत या समुदाय की रीतियों, परंपराओं, अनुष्ठानों के पालन के द्वारा नहीं, अपितु अपने पापों के लिये पश्चाताप करने और प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करने तथा प्रभु को अपना जीवन समर्पित कर देने के द्वारा; अर्थात वे नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी बन गए हैं।
आज से हम फसह के लिये बलि किये जाने वाले मेमने के बारे में देखना आरंभ करेंगे, और देखेंगे कि उस बलि के मेमने के गुण किस प्रकार से प्रभु यीशु के साथ, जो "...परमेश्वर का मेम्ना है, जो जगत के पाप उठा ले जाता है” (यूहन्ना 1:29), और जो कि जगत की उत्पत्ति के समय से बलिदान हुआ है (प्रकाशितवाक्य 13:8), मेल रखते हैं।
निर्गमन 12:3-4 - पद 3 के आरंभिक वाक्य से हम देखते हैं कि यहाँ फिर से दोहराया गया है कि फसह से संबंधित परमेश्वर के निर्देश सभी के लिये नहीं किन्तु “इस्राएल की सारी मण्डली से इस प्रकार कहो”, अर्थात फसह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिये था, जैसा कि हम पिछले लेख में भी देख चुके हैं। पद 4 में हम देखते हैं कि एक घराने के लिये एक ही मेमना बलिदान किया जाना था; और यदि घराना छोटा हो तो पड़ौस के घराने के साथ मिलकर एक घराने के समान उस एक मेमने का उपयोग किया जाना था। दूसरे शब्दों में, बलिदान का एक मेमना एक घराने के लिये पर्याप्त था, बल्कि आवश्यकता से भी अधिक था, क्योंकि आगे चलकर पद 10 में लिखा है कि भोज खा लेने के बाद मेमने का जो भाग बच जाए उसे आग में जला दिया जाए। हम इफिसियों 2:19-22 से देखते हैं कि नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, वे चाहे यहूदियों में से थे या अन्य-जातियों में से, वे सभी मसीह यीशु में विश्वास के द्वारा एक घराना, प्रभु की एक देह बना दिए गए हैं; और साथ मिलकर अब ‘परमेश्वर का घराना’ (पद 19), ‘परमेश्वर का निवास-स्थान’ (पद 22) बनाए गए हैं। देश के आकार और जनसंख्या के आधार पर यदि देखें तो यहूदी या इस्राएली, अपने सभी, सामूहिक अन्य-जाति पड़ौसियों की तुलना में, एक छोटा राष्ट्र थे और हैं। किन्तु अब मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा एक-दूसरे के पड़ौस में रहने वाले ये एक छोटे और एक बड़े घराने के लोग मसीह में एक घराना कर दिये गए हैं जिससे कि वे एक फसह के भोज में, एक प्रभु भोज में भाग ले सकें। यहाँ पर इफिसियों के इस खण्ड में प्रयुक्त एक वचन शब्दों पर ध्यान कीजिए - ‘घराना’ (पद 19), और ‘निवास-स्थान’ (पद 22)। यहूदी और अन्य-जाति विश्वासियों के एक किये जाने की प्रक्रिया को इससे पहले के पदों में, इफिसियों 2:11-18 में समझाया गया है। इस एकता की इच्छा की गई है और आशा रखी गई है (इफिसियों 4:13), और अन्ततः एक ही “कलीसिया” होगी जिसे मसीह की देह (इफिसियों 5:23), और मसीह की दुलहन (इफिसियों 5:25-26) कहा गया है - पुनः एक वचन का प्रयोग किया गया है।
फसह के भोज के लिये परमेश्वर द्वारा एक घराने के लिये एक ही मेमना ठहराया गया था - चाहे वह संयुक्त घराना ही क्यों न हो। पापों के दासत्व के छुटकारे के लिये भी “एक संयुक्त घराने” के लिये परमेश्वर की ओर से एक ही बलि का मेमना - प्रभु यीशु मसीह ठहराया गया है, जो आवश्यकता से भी अधिक है। प्रभु यीशु के अतिरिक्त और कोई भी व्यक्ति, वस्तु, या विधि शैतान के चंगुल से छुड़ाने के लिए उपयुक्त अथवा आवश्यक नहीं है, और न ही किसी की इच्छा की जानी चाहिए, और न ही कोई या कुछ और यह छुटकारा देने पाएगा (1 थिस्सलुनीकियों 1:6-10)।
फसह परमेश्वर के लोगों को प्रोत्साहित करता था कि वे दासत्व से छुटकारे के लिये केवल परमेश्वर के प्रावधान एवं विधि पर भरोसा रखें, चाहे परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई बात उन्हें समझ में आए या न आए। परमेश्वर द्वारा दी गई यह विधि दासत्व से बचाए जाने और छुटकारा पाने के लिये एक साथ एक घराने के समान जुड़कर परमेश्वर के इंतज़ाम में सम्मिलित होने के लिये भी प्रोत्साहित करती थी। इसी प्रकार से, प्रभु की मेज़ या प्रभु भोज भी उन्हीं के लिये है जो अन्य किसी पर भरोसा नहीं करते हैं, केवल प्रभु यीशु, कलवरी के क्रूस पर उन के बलिदान, उन की मृत्यु और पुनरुत्थान पर, पापों तथा उनके दुष्परिणामों से छुड़ाए जाने के लिए विश्वास रखते हैं, चाहे परमेश्वर द्वारा दिया गया यह इंतज़ाम उनकी समझ में आए या न आए। किन्तु वे लोग जो प्रभु के साथ भी निभाना चाहते हैं और संसार तथा सांसारिकता को भी प्रसन्न रखना चाहते हैं, उन्हें प्रभु की मेज़ से कोई लाभ नहीं होगा, परन्तु वे ऐसा करने के द्वारा परमेश्वर को रिस दिलाते हैं (1 कुरिन्थियों 10:21-22)। इस प्रकार से हम सीखते हैं कि प्रभु भोज यानि कि प्रभु की मेज़ केवल प्रभु के लोगों के लिये है, जो साथ मिलकर एकता में परमेश्वर की एक ही कलीसिया, उसका घराना, उसका निवास-स्थान होकर रहने और एकता को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति और लालसा रखते हैं। जो लोग कलीसिया में विभाजन और गुट-बाज़ी करते हैं, उसे बढ़ावा देते हैं, मसीही विश्वासियों में विभाजन और गुटों को बनाए रखते हैं, प्रभु की मेज़ के संदर्भ में पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा उनकी तीव्र भर्त्सना की है (1 कुरिन्थियों 11:17-22), एक प्रकार से उनके प्रभु भोज में भाग लेने को व्यर्थ और निष्फल कहा है।
अगले लेख में हम निर्गमन में से यहीं से आगे देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा प्रभु में एक नई सृष्टि बन गए हैं, तथा आप कलीसिया में विभाजनों और गुटों में बांटने में नहीं किन्तु एकता के साथ रहने में प्रयासरत रहते हैं। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहेजकेल 45-46
1 यूहन्ना 2
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Exodus 12:3-4 - Lord’s Table & Unity in the Church
We have seen in the previous articles how Satan has corrupted the Holy Communion by manipulating and misusing the things and instructions written about it in the Word of God, and turned it into a vain, meaningless ritual. Satan has been allowed to get away with all his devious machinations, due to two main reasons; firstly, because the majority of “Christians” do not bother to study and learn God’s Word for themselves, they are content with receiving and accepting as truth whatever is dished out to them from the pulpit in the name of God, never bothering to cross-check and verify the teachings from the Bible before accepting them; and, secondly because the majority of “Christians” want to follow the rituals and practices of their sect, group, and denomination, instead of what is written in the Bible. They are more concerned about obeying their religious leaders, than about obeying God and His Word. Therefore, although there is a lot of variation in the method of observance of the Holy Communion across various sects and denominations in Christendom; yet all those participating in the Lord’s Table ritualistically, believe, though erroneously, that by partaking of the Communion, they become acceptable to God and qualified to enter heaven - a patently unBiblical notion foisted upon them by Satan and his minions.
We had also understood some symbolisms related to the Passover and the Holy Communion, and saw that contrary to the popular belief that the Holy Communion was started in the New Testament by the Lord Jesus, antecedents of the Communion are present in the Old Testament, as the Passover meal, from which it was derived by the Lord Jesus. In the last article we had started to consider from the first antecedent, Exodus 12, the implications of and applications related to participating in the Lord’s Table. We had seen from verse 1 and 2 of this chapter that just as the Passover meal was meant only for God’s chosen people Israel, for whom it denoted a new beginning, the Holy Communion, or, the Lord’s Table is meant only for those who have ‘become a new creation’ in the Lord, not by virtue of fulfilling any denominational rituals and ceremonies, but by repenting of their sins and accepting the Lord Jesus as their personal savior, have submitted themselves to the Lord; i.e., are Born-Again Christian Believers.
Today we will start considering about the sacrificial lamb of the Passover, and see how the characteristics of this sacrificial lamb corelate with the Lord Jesus, who is “...The Lamb of God who takes away the sin of the world!” (John 1:29), and was slain from the foundation of the world (Revelation 13:8).
Exodus 12:3-4 - From the opening sentence of verse 3 we see it reiterated that God’s instruction related to the Passover, were meant not for everyone but “for the congregation of Israel”, i.e., the Passover was meant only for God’s chosen people as we have also seen in the previous article. From verse 4 we see that one lamb was to be sacrificed for one household; and if the household was small, they were to join with their neighbors and partake of that one lamb as one household. In other words, one sacrificial lamb was sufficient for one household, rather more than sufficient, since subsequently verse 10 talks of burning in fire any part of the lamb that remained after the meal. We see from Ephesians 2:19-22 that the Born-Again Christian Believers, from the Jews or the Gentiles have been joined together into one household or one body by faith in Lord Jesus, and together have been made the ‘household of God’ (v. 19), to be a ‘dwelling place of God’ (v.22). Going by the size of the nation and their population size, the Jews, or Israel, has been a small nation compared to their neighbors the Gentiles all around, who collectively were a much larger group than the Israelites, i.e., the small and large neighboring families, have been joined together by faith in the Lord into one household, to partake of one Passover meal - the Lord’s Table. Notice the use of singular words, ‘household’ in v.19 and ‘dwelling place’ in v.22 in this passage from Ephesians. This unification of Jews and Gentiles into one body, one household has been explained in the preceding verses - Ephesians 2:11-18. It is desired and looked forward to (Ephesians 4:13), and eventually there will be one “Church” which has been called the Body of Christ (Ephesians 5:23), and the Bride of Christ (Ephesians 5:25-26) - singular terms again.
For the Passover, one lamb for one household - even if it were to be a combined household had been ordained by God. For the deliverance from the bondage of sin of the spiritual household of the Lord, the “one combined household” of God, the one sacrificial Lamb of God - the Lord Jesus is more than sufficient. No one other than the Lord Jesus, nothing besides the Lord Jesus is to be desired or attempted to be used for being set free from the clutches of Satan; nor will anyone or anything else ever serve the purpose (1 Thessalonians 1:6-10).
The Passover encouraged the people of God to trust solely in God’s provision and prescribed method for their deliverance from bondage, whether or not they understood what God had ordained. God’s method, also fostered coming together as one household to partake of God’s provision and be saved and delivered from bondage. Similarly, the Lord’s Table, or the Holy Communion is meant for those who trust in no one else, nothing else, but the Lord Jesus and His sacrifice on the Cross of Calvary, His death and resurrection, for being delivered from their sins and its consequences, whether or not one understands God’s doing so. But those who try to live with the Lord, and also appease the world and the systems of the world, do not gain any benefit from the Lord’s Table, instead they provoke the Lord to jealousy (1 Corinthians 10:21-22). So, we learn that the Lord’s Table is meant only for the Lord’s people, who are to live in unity, and foster unity as the one Church of God, His household, His dwelling place. Those who create divisions in the Church or promote and maintain segregation and factionalism amongst the Christian Believers have been severely reprimanded by the Holy Spirit through Paul in context of participating in the Lord’s Table (1 Corinthians 11:17-22), in a way calling their participation vain and inconsequential.
In the next article we will carry on from here and see the subsequent verses from Exodus in the coming articles. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually redeemed from your sins, are a new creation for the Lord, and strive for unity, not divisions and factionalism in the Church. It is also necessary for you to be spiritually mature, learn the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Ezekiel 45-46
1 John 2