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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

मित्रता


   सोशल नेटवर्किंग वेबसाईट फेसबुक को सन २००४ में कॉलेज के छात्रों के आपस में इन्टरनैट द्वारा संपर्क बनाए रखने के लिए आरंभ किया गया था। अब यह सभी के लिए खुली है, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसके करोड़ों सद्स्य हैं और केवल व्यक्ति ही नहीं संस्थाएं, पत्रिकाएं, व्यवसाय इत्यादि सभी इस के द्वारा अपनी मौजूदगी को बताते हैं और संपर्क बढ़ाते हैं। फेसबुक के प्रत्येक सद्स्य का अपना पृष्ठ होता है जिसपर वह अपने बारे में विवरण, अपनी फोटो, अपनी पसन्द-नापसन्द इत्यादि लिख कर प्रदर्षित कर सकता है; यह जानकारी केवल उसके ’मित्र’ ही देख सकते हैं। यहाँ पर ’मित्र’ बनाने का अर्थ है उसे अपने पृष्ठ पर दी गई जानकारी को देखने की अनुमति देना और उसके साथ संपर्क तथा संवाद के लिए द्वार खोलना। फेसबुक की यह ’मित्रता’ अनौपचारिक तथा सतही, अथवा प्रगाढ़ हो सकती है; मित्रता चाहे जैसी भी हो, लेकिन सदा ही होती है मित्रता का निमंत्रण देने और स्वीकार करने के द्वारा ही।

   प्रभु यीशु ने, अपने क्रूस पर चढ़ाए जाने से थोड़े से समय पहले ही अपने शिष्यों से कहा था, "जो कुछ मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, यदि उसे करो, तो तुम मेरे मित्र हो। अब से मैं तुम्हें दास न कहूंगा, क्योंकि दास नहीं जानता, कि उसका स्‍वामी क्या करता है: परन्तु मैं ने तुम्हें मित्र कहा है, क्योंकि मैं ने जो बातें अपने पिता से सुनीं, वे सब तुम्हें बता दीं" (यूहन्ना १५:१४-१५)।

   सच्ची मित्रता की पहचान उसके निस्वार्थ, एकमन और पूर्णतः भरोसेमन्द होने से होती है। प्रभु यीशु ने मित्रता के यह गुण निभा कर दिखाए, न केवल तत्कालीन चेलों के प्रति, वरन तब से अब तक अपने ऊपर विश्वास करने वाले प्रत्येक जन के प्रति भी। उसने संसार के हर जन के लिए अपने प्राण बलिदान किए जिससे कि उन्हें पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग मिल जाए। तब से लेकर अब तक उसका निमंत्रण संसार के हर जन के लिए खुला है। जो उसके निमंत्रण को स्वीकार करता है और उससे पापों की क्षमा माँग कर अपने जीवन को उसे समर्पित करता है, वह उसके मन में बसता है, उसके पाप के दोष को मिटा देता है, उसके मन की मलिनता को स्वच्छ करता है, सदा उस के साथ बना रहता है, उसे शांति और सामर्थ देता है, जीवन के निर्णयों और समस्याओं में उसका मार्गदर्शन और उसकी सहायता करता है और परमेश्वर के स्वर्गीय परिवार का सदस्य बना देता है। 

   पिछले लगभग दो हज़ार वर्षों से संसार के करोड़ों करोड़ लोगों ने प्रभु यीशु के निमंत्रण को स्वीकार करके अनन्त और आशीषित जीवन पाया है और परमेश्वर के स्वर्गीय परिवार का अंग, मसीह यीशु के साथ परमेश्वर के राज्य के संगी वारिस बन गए हैं - क्या आप भी उन में से एक हैं? यदि नहीं, तो प्रभु यीशु का निमंत्रण आपके लिए अभी भी खुला है; इस सन्देश के द्वारा उसने एक बार फिर अपना हाथ आपकी ओर बढ़ाया है; अब उसके इस बढ़े हुए हाथ को थामना या उसे ठुकरा देना यह आपका निर्णय है। - डेविड मैक्कैसलैंड


प्रभु यीशु हमारी मित्रता का अभिलाषी रहता है।

जो कुछ मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, यदि उसे करो, तो तुम मेरे मित्र हो। - यूहन्ना १५:१४

बाइबल पाठ: यूहन्ना १५:९-१७
John 15:9 जैसा पिता ने मुझ से प्रेम रखा, वैसा ही मैं ने तुम से प्रेम रखा, मेरे प्रेम में बने रहो।
John 15:10 यदि तुम मेरी आज्ञाओं को मानोगे, तो मेरे प्रेम में बने रहोगे: जैसा कि मैं ने अपने पिता की आज्ञाओं को माना है, और उसके प्रेम में बना रहता हूं।
John 15:11 मैं ने ये बातें तुम से इसलिये कही हैं, कि मेरा आनन्द तुम में बना रहे, और तुम्हारा आनन्द पूरा हो जाए।
John 15:12 मेरी आज्ञा यह है, कि जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो।
John 15:13 इस से बड़ा प्रेम किसी का नहीं, कि कोई अपने मित्रों के लिये अपना प्राण दे।
John 15:14 जो कुछ मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, यदि उसे करो, तो तुम मेरे मित्र हो।
John 15:15 अब से मैं तुम्हें दास न कहूंगा, क्योंकि दास नहीं जानता, कि उसका स्‍वामी क्या करता है: परन्तु मैं ने तुम्हें मित्र कहा है, क्योंकि मैं ने जो बातें अपने पिता से सुनीं, वे सब तुम्हें बता दीं।
John 15:16 तुम ने मुझे नहीं चुना परन्तु मैं ने तुम्हें चुना है और तुम्हें ठहराया ताकि तुम जा कर फल लाओ; और तुम्हारा फल बना रहे, कि तुम मेरे नाम से जो कुछ पिता से मांगो, वह तुम्हें दे।
John 15:17 इन बातें की आज्ञा मैं तुम्हें इसलिये देता हूं, कि तुम एक दूसरे से प्रेम रखो।

एक साल में बाइबल: 
  • लैव्यवस्था १५-१६ 
  • मत्ती २७:१-२६