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शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 1 – Introduction / परिचय

 

बाइबल में दी गई व्यवस्था और मनुष्य के उद्धार में संबंध

परिचय

    आज से हम एक नई शृंखला का आरंभ कर रहे हैं, एक ऐसे विषय के बारे में जो व्यवहारिक मसीही जीवन के एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू से संबंधित है। मसीही जीवन का यह पहलू कभी-न-कभी सभी को चिंतित करता है, सभी के सामने प्रश्न-चिह्न उठाता है, सभी को इसके वाजिब और स्वीकार्य उत्तर के विषय असमंजस रहता है। साथ ही इसे समझना भी बहुत अनिवार्य है, क्योंकि इसे ठीक से समझे बिना, मसीही विश्वास का जीवन जी पाना कठिन होगा; शैतान बारंबार बहका और भरमा कर कर्मों के द्वारा धार्मिकता होने के फंदे में ले जाता और फँसता रहेगा। किन्तु यदि हम इसकी वास्तविकता को समझ लें, और इसे सही दृष्टिकोण से देखना आरंभ कर दें, तो जिसे शैतान हमारे मसीही विश्वास के जीवन के लिए फंदा बनाना चाहता है, वही हमारे मसीही विश्वास के जीवन के लिए एक दृढ़ता और स्थिरता का कारण हो सकता, हमें शैतान द्वारा बहकाए जाने और अविश्वास तथा अनाज्ञाकारिता में फँसाए जाने से बचने का आधार बन सकता है। जैसा कि इस शृंखला के मुख्य शीर्षक से प्रगट है, यह विषय है परमेश्वर की व्यवस्था, और मसीही विश्वास के जीवन में व्यवस्था का स्थान, महत्व, उपयोगिता और व्यवस्था के प्रति सही दृष्टिकोण रखना; तथा क्यों उद्धार, पाप क्षमा, और परमेश्वर को स्वीकार्य होना, परमेश्वर के साथ हमारा मेल-मिलाप हो जाना, व्यवस्था या कर्मों के द्वारा नहीं हैं।

    बहुत से लोगों के लिए यह एक विरोधाभास की बात है कि जब व्यवस्था भी उसी परमेश्वर के द्वारा दी गई, जो प्रभु यीशु के रूप में देहधारी होकर पृथ्वी पर आया और सभी के उद्धार के लिए बलिदान हुआ; तथा मसीह के बलिदान से पहले परमेश्वर के लोगों, इस्राएलियों, के लिए धार्मिकता का, परमेश्वर के निकट आने का, परमेश्वर को प्रसन्न करने, आदि का आधार व्यवस्था का पालन करना था; तो फिर अब मनुष्य व्यवस्था के पालन के द्वारा धर्मी और परमेश्वर को स्वीकार्य क्यों नहीं माना जा सकता है? मसीह के आने और बलिदान होने के बाद व्यवस्था का क्या महत्व और उपयोगिता है? क्या अब पुराने नियम की धार्मिकता व्यर्थ हो गई है? ऐसे विचार रखना, व्यवस्था और परमेश्वर को स्वीकार्य धार्मिकता की ठीक समझ न रखने के कारण हैं, और शैतान इन विचारों को उकसा के, और बढ़ा के, परमेश्वर के वचन में अविश्वास उत्पन्न करने के प्रयास करता है। किन्तु वास्तविकता यही है कि उद्धार और प्रभु यीशु के बलिदान को ठीक से समझने के लिए परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था को ठीक से समझना और जानना आवश्यक है।

    इस विषय को हम परमेश्वर के वचन बाइबल में से मुख्यतः पाँच शीर्षकों के अन्तर्गत देखेंगे; ये शीर्षक हैं:  (1) “भला” क्या और कौन है; इसके लिए मानक (criteria) क्या हैं? (2) जिस व्यवस्था के पालन की बात की जा रही है, वह क्या है? (3) परमेश्वर द्वारा व्यवस्था को दिए जाने का उद्देश्य क्या था? (4) व्यवस्था का पालन क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकता है? (5) यह उद्धार प्रभु यीशु मसीह ही में क्यों है, और किसी में क्यों नहीं?


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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The Relationship Between the Law and Salvation in the Bible

Introduction

    From today we are beginning a new series about a topic that deals with a very important aspect of practical Christian life. This aspect of the Christian life at some time or the other does worry everyone, raises questions for everyone, and people are often confused about reasonable and acceptable answers regarding the matter. At the same time, it is also very important to understand this, because without understanding it properly, it will be difficult to live the life of the Christian faith. Satan will repeatedly try to deceive us and lead us astray, to make us fall into the trap of becoming righteous through works. But if we understand the reality, and start looking at the issue from the right perspective, then what Satan tries to make a snare for our Christian life, will become the basis of a strong firm standing and stability for our Christian life, will help us avoid being seduced and misled by Satan, and keep us from getting entangled in unbelief and disobedience. As the main title of this series reveals, the topic is The Law of God, and its place, importance, utility in the life of Christian faith, and having a right perspective about the law; why salvation, forgiveness of sins, and becoming acceptable to God, being reconciled with God are not through the law.

    For many people it seems to be a contradiction that when the Law was given by the same God who became flesh and came to earth as Lord Jesus, to sacrifice His life for the salvation of everyone; and when, before the sacrifice of the Lord Jesus, for the people of God, the Israelites, the basis of righteousness, coming near to God, being pleasing and acceptable to God, etc. were all through the observance of the Law; then why is it that now, after the coming of Christ and His sacrificing Himself, one cannot be considered as righteous and acceptable to God through the observance of the Law? After the coming and sacrifice of the Lord Jesus, what is the importance and utility of the Law? Has the Old Testament righteousness become vain? These, and other such thoughts are because of not having a proper understanding of the Law and of being acceptable to God, and Satan promotes and encourages such thinking, to bring doubts and unbelief about the Word of God. But the fact is that salvation and the sacrifice of the Lord Jesus can only be understood by having a correct understanding and knowledge of the Law given by God.

    We'll look at this topic in God's Word, the Bible, under mainly five headings; These headings are: (1) What and who is “good”; What are the criteria for this? (2) What is The Law that is being talked about? (3) What was the purpose of God's giving of The Law? (4) Why can't the keeping of The Law save us? (5) Why is salvation only in the Lord Jesus Christ, and why not in anyone else?


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


 

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