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शनिवार, 3 सितंबर 2022

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान / Gifts of The Holy Spirit in Christian Ministry – 14


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आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता - प्रेरित: परमेश्वर द्वारा नियुक्ति


मसीही विश्वासियों की मण्डलियों में आत्मिक वरदानों की उपयोगिता के अनुसार 1 कुरिन्थियों 12:28 में दिए गए क्रम में पहले तीन स्थान उन लोगों के हैं जिन्हें परमेश्वर पवित्र आत्मा ने वचन की सेवकाई से संबंधित वरदान प्रदान किए हैं अर्थात, प्रेरित, भविष्यद्वक्ता, और शिक्षक। जैसे उपयोगिता के इस वरीयता क्रम में दिए गए अंतिम वरदानों, अन्य भाषाएं बोलना और उनका अनुवाद करने के वरदान के साथ हो गया है, वैसे ही आरंभिक दोनों वरदानों - प्रेरित, और भविष्यद्वक्ता होने के वरदान के साथ भी हो गया है। इन्हें वर्तमान में बहुत गलत समझा जाता है, और मण्डली में अपने आप को उच्च एवं प्रभावी दिखाने, अपने आप को औरों से भिन्न तथा बढ़कर महत्व वाला दर्शाने के लिए इन्हें प्रयोग किया जाने लगा है, जबकि यह वचन के अनुसार सही नहीं है। परमेश्वर की दृष्टि में सभी सेवकाई और सभी वरदान समान स्तर के हैं, क्योंकि सभी सेवाकाइयाँ भी परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई हैं, तथा उन सेवकाइयों के लिए उपयुक्त वरदान भी परमेश्वर पवित्र आत्मा ही अपनी इच्छा के अनुसार प्रदान करता है, किसी मनुष्य की इच्छा अथवा लालसा और प्रार्थना के अनुसार नहीं।

 

इन सेवकाइयों और वरदानों तथा उनके प्रयोगकर्ताओं के बारे में गलत धारणाओं और शिक्षाओं से बचने का एक उपाय है, उन्हें उस दृष्टिकोण से समझना, जिस प्रकार से उस आरंभिक मण्डली या कलीसिया के लोगों ने उन्हें समझा था, जब उन वरदानों और सेवकाइयों के बारे में उन्हें सिखाया गया और पत्रियों में लिखा गया था। वही उनका प्राथमिक और वास्तविक अर्थ एवं अभिप्राय है, जो समय, स्थान, सभ्यता, और लोगों के अनुसार कभी नहीं बदल सकता, क्योंकि परमेश्वर का वचन स्थिर, स्थाई, और अटल है और कभी नहीं बदलता है। इस आधार पर उस आरंभिक मण्डली के लिए प्रेरित, भविष्यद्वक्ता, और शिक्षक होने का जो अभिप्राय था, वही आज भी है। आज बहुत से लोग अपने आप लिए इन सेवकाइयों को उपाधियों के समान प्रयोग करते हैं; अपने नाम और प्रचार में अपने महत्व और ओहदे या स्तर को दिखाने के लिए इन सेवकाइयों को उपाधि के समान लगाकर प्रचार करते हैं, यह दिखाना चाहते हैं कि वे कितने विशिष्ट और प्रमुख हैं। किन्तु वास्तविकता तो यह है कि हम सभी, चाहे हमने कोई भी उपाधि क्यों न धारण कर रखी हो, पापी ही हैं, जिन्हें प्रभु यीशु ने हमारे किसी कर्म अथवा योग्यता के कारण नहीं वरन अपने अनुग्रह में होकर क्षमा किया और बचाया है, तथा अपनी इच्छा के अनुसार अपनी मण्डली में सेवकाई सौंपी है; अपने आप को बड़ा या प्रमुख, या विशिष्ट दिखाने के लिए नहीं, और न ही उस सेवकाई को सांसारिक लाभ और संपत्ति जमा करने का साधन बनाने के लिए, वरन सुसमाचार के प्रचार और प्रभु के नाम को महिमा एवं आदर देने के लिए। हम सभी को प्रभु परमेश्वर की महिमा को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रीति से चुराने के प्रयास करने की बजाए, पौलुस प्रेरित के रवैये “परन्तु मैं जो कुछ भी हूं, परमेश्वर के अनुग्रह से हूं: और उसका अनुग्रह जो मुझ पर हुआ, वह व्यर्थ नहीं हुआ परन्तु मैं ने उन सब से बढ़कर परिश्रम भी किया: तौभी यह मेरी ओर से नहीं हुआ परन्तु परमेश्वर के अनुग्रह से जो मुझ पर था” (1 कुरिन्थियों 15:10) का अनुसरण करना चाहिए।

 

इस संदर्भ में आज हम आरंभिक कलीसिया के लिए “प्रेरित” होने के अभिप्राय को परमेश्वर के वचन से देखते और समझते हैं, क्योंकि यह लोगों द्वारा धारण की जाने वाली एक बहुत प्रचलित उपाधि है, जिसे लेकर बहुत गलत शिक्षाएं और समझ फैला दी गई है:

मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “प्रेरित” किया गया है, उसका अर्थ है “विशेष अधिकार के साथ नियुक्त किया हुआ।” यह संज्ञा स्वयं प्रभु ने ही अपने 12 शिष्यों दी थी। प्रभु ने अपने सभी शिष्यों को प्रेरित नहीं कहा, वरन अपने सभी शिष्यों में से जिन बारह को उसने विशेषकर चुना था, उन्हें ही यह संज्ञा दी (लूका 6:12-16)। और यह संज्ञा सुसमाचारों में अन्त तक (पकड़वाए जाने से पहले फसह का पर्व – लूका 22:14; पुनरुत्थान के बाद एकत्रित लोगों को बताना – लूका 24:9-10) उन्हीं बारह के लिए ही प्रयोग की गई। अर्थात, प्रभु का प्रत्येक शिष्य, प्रभु यीशु की ओर से, “प्रेरित” नहीं था; प्रभु के साथ रहने वाले लोगों और शिष्यों में से भी प्रेरित केवल वही कहलाते थे जिन्हें प्रभु यीशु ने प्रेरित कहा था। और इन बारह को चुनने के पीछे, जिन्हें प्रभु ने प्रेरित नियुक्त किया था, उनके लिए प्रभु का विशेष अभिप्राय था, जो मण्डली में पवित्र आत्मा द्वारा दिए गए प्रेरित होने के वरदान के समान है तथा वचन की सेवकाई से संबंधित है।


उन बारह ‘प्रेरितों’ को प्रभु यीशु के अन्य शिष्यों से कुछ भिन्न होना था, जैसा कि मरकुस 3:13-15 में उनके लिए दिया गया है:

  • वे उसके साथ रहें;
  • वे उसके द्वारा भेजे जाने के लिए तैयार रहें – जब और जहाँ प्रभु भेजे;
  • वे प्रभु के कहे के अनुसार प्रचार करें; और दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार रखें।

प्रेरित कहलाने वाले शिष्यों के लिए कही गई इन तीनों बातों के क्रम का भी महत्व है; अकसर लोग अंतिम बात, प्रचार करने और आश्चर्यकर्म करने की सेवकाई के पीछे भागते हैं; किन्तु प्रभु के साथ समय बिताने, और उसके कहे के अनुसार जाकर उसके द्वारा बताए गए कार्य को करने की इच्छा नहीं रखते हैं। शिष्य को सबसे पहले प्रभु के साथ रहना है, फिर उसके कहे के अनुसार करना है, और तब ही प्रचार या आश्चर्यकर्मों की लालसा रखनी है।

 

बाद में नए नियम में शब्द “प्रेरित” का प्रयोग दूसरे रूप में भी किया गया है – एक तो प्रेरित वे थे जिन्हें प्रभु ने नियुक्त किया था; और इस शब्द का दूसरा प्रयोग उनके लिए आया है जो विशेष सन्देश-वाहक थे, जैसे कि बरनबास (प्रेरितों 14:14), प्रभु का भाई याकूब (गलातियों 1:19), संभवतः सिलास (1 थिस्सलुनीकियों 2:6 को 1:1 से मिलाकर देखें), आदि। किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि प्रभु के प्रत्येक सेवक को भी प्रेरित कहा गया; उदाहरण के लिए, तिमुथियुस, तीतुस, फिलेमोन, उनेसिमुस, इपफ्रूदितुस, आदि महत्वपूर्ण सेवकों के लिए प्रेरित शब्द नहीं प्रयोग किया गया है।


कलीसिया के कार्यों और देखभाल के लिए नियुक्त किए गए लोगों में भी परमेश्वर के द्वारा  प्रेरितों को नियुक्त करने का उल्लेख है (1 कुरिन्थियों 12:28-29; इफिसियों 4:11)। कलीसिया के कार्यों से संबंधित “प्रेरितों” के लिए इन दोनों पत्रियों – कुरिन्थियों और इफिसियों, में स्पष्ट आया है कि उन्हें परमेश्वर ने नियुक्त किया था; वे किसी मनुष्य की नियुक्ति नहीं थे – यह भी हो सकता है कि ये प्रेरित, वे प्रभु द्वारा आरंभ में नियुक्त किए गए शिष्य हों, जिन्हें अब प्रभु द्वारा कलीसियाओं की रखवाली की ज़िम्मेदारी भी दी गई। अर्थात, प्रेरित जब भी नियुक्त किए गए, परमेश्वर के द्वारा ही नियुक्त किए गए।

 

यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि बाद में तीतुस और तिमुथियुस को लिखी गई पत्रियों में जब कलीसिया के कार्यों को संभालने के लिए, कलीसियाओं के सदस्यों द्वारा, अगुवों की नियुक्ति करने के लिए, कलीसिया के उन सेवकों या अगुवों या प्राचीनों के गुणों के बारे में निर्देश दिया गया (1 तिमुथियुस 3:1-7; तीतुस 1:6-9), तब वहाँ कलीसिया के कार्यों के लिए अथवा प्रभु के सुसमाचार और संदेश के प्रचार के लिए मनुष्यों द्वारा प्रेरितों के चुनाव करने के लिए न तो कहा गया (तीतुस 1:5), और न ही तब स्वयं को प्रेरित नियुक्त करने या मण्डली के द्वारा किसी को प्रेरित नियुक्त करने के लिए कोई विशेष गुण लिखवाए गए।

 

साथ ही इस पर भी ध्यान कीजिए कि रोमियों 16 अध्याय में, जो उस पत्री का अंतिम अध्याय है, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस कई लोगों को उनके कार्य और सहायता के लिए धन्यवाद के लिए स्मरण करता है, और पहले ही पद में फीबे को डीकनेस भी कहता है, अर्थात एक सेवकाई और ज़िम्मेदारी के पद का उल्लेख भी करता है। किन्तु 16:7 में अपने साथ के पुराने प्रेरितों को छोड़, पौलुस और किसी को प्रेरित नहीं कहता है। इसी प्रकार 1 कुरिन्थियों 16 में भी किसी के प्रेरित होने का उल्लेख नहीं है, जबकि पवित्र आत्मा की अगुवाई में यहाँ पर भी कई लोगों की उनके मसीही जीवन और कार्यों के लिए सराहना की गई है।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो यह ध्यान और विश्वास रखिए कि परमेश्वर ने हमें भेड़ की खाल में छिपे भेड़ियों की पहचान न कर पाने की असहाय स्थिति में नहीं छोड़ा है; उसने अपने वचन में ही इसकी पहचान दी है, और वचन को समझाने के लिए अपना पवित्र आत्मा हमें दिया है। मसीही विश्वासियों के लिए समझने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि वचन में मनुष्यों द्वारा न तो प्रेरित नियुक्त किए जाने के कोई निर्देश हैं, न इस नियुक्ति के लिए कोई गुण और प्रक्रिया दी गई है, और न मनुष्यों द्वारा की गई नियुक्ति के आधार पर कोई प्रेरित होने के दायित्व को निभा सका है। प्रभु चाहता है कि हम पहले जाँचें, सच्चाई को परखें, और तब ही किसी शिक्षा या धारणा को स्वीकार करें (1 यूहन्ना 4:1; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। सच्चे और झूठे प्रेरितों की पहचान करने के लिए हम आज उन्हें मरकुस 3:13-15 में दिए गए प्रेरित कहलाने वाले शिष्यों के गुणों, तथा प्रेरितों 1:1-2 में दिए गए प्रेरितों के गुणों और बातों के आधार पर जाँच सकते हैं। जिस में ये बाते नहीं हैं, वह मसीही सेवकाई के लिए प्रभु द्वारा नियुक्त सच्चा प्रेरित भी नहीं है। आज भी जो अपने आप को प्रेरित कहते हैं, उनके जीवनों में इन आरंभिक कलीसिया के लोगों के लिए दी गई पहचान की बातों को भी होना चाहिए, अन्यथा उनका दावा गलत है। हम अगले लेख में प्रेरित होने से संबंधित कुछ अन्य बातों और प्रेरितों के गुणों के बारे में अगले लेख में देखेंगे

 

 यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 140-142 

  • 1 कुरिन्थियों 14:1-20


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English Translation

Users of the Gifts of the Holy Spirit - Apostles - Appointed by God


In the previous articles we had seen from 1 Corinthians 12:28 the sequential list of the Spiritual gifts based on their utility in the Church. We had seen that the primary importance is of those engaged in Ministry of the Word - the Apostles, Prophets, and Teachers. As has happened with the last two gifts in this list, the same has also happened with the first two - Apostles and Prophets, as well. Presently they are grossly misunderstood and misused to project a person of being of a higher status and authority in the Church, of having a different and increased importance than others, whereas this is inconsistent with the Word of God. We have already seen that in God’s eyes, every ministry, work, gift and person is of equal status and importance, since everyone’s ministry, work and required gifts have been determined and assigned by God, given by the Holy Spirit; they are not according to the desires and prayers of anyone.


One way of avoiding misunderstanding these gifts and ministries is to look at them with the same perspective as the people of the first Church, the initial Christian congregations would have seen them when they were being taught and explained about these services. That is their primary and actual meaning, which will never change with time, place, culture, and people, since God’s Word in unchanging and unalterable, always remaining the same. On this basis, even today the meaning of being and Apostle or Prophet or Teacher is the same as it was at the time of the first Church. Today, many people use the names of these ministries as titles, and apply them before their names, in their self-promotional messages, to show how special and how prominent they are. But the fact is that all of us, no matter what title we may use for ourselves, are sinners. We have been saved not by our works or status or position but by the grace of the Lord Jesus. Whatever work and ministry have been given to us, it is by God’s will, not our own. Whatever God has entrusted to anyone is not for personal use, nor for acquiring worldly name, fame, and possessions, but for preaching and propagating the Gospel and glorifying God. All of us should endeavor to emulate Paul’s attitude towards his ministry, “But by the grace of God I am what I am, and His grace toward me was not in vain; but I labored more abundantly than they all, yet not I, but the grace of God which was with me” (1 Corinthians 15:10), instead of knowingly or inadvertently robbing or denying God His glory.


In this context, today we will see and understand the term Apostles, from the Word of God, as the first Church and the initial Christian Believers would have seen and understood it. This is a very commonly used title, about which many wrong teachings and misunderstandings have been stated; but what does God’s Word actually say about it?


The word that has been translated as Apostle, in the original Greek language means “a delegate or an ambassador,” i.e., someone appointed for a special purpose or with a special authority to convey a message. This name was first given by the Lord Jesus to His 12 disciples. It is important to note that the Lord did not call all His disciples, i.e., all those who had believed in Him and used to move around with Him as Apostles; but only the 12 whom He had specially chosen from amongst those who went around with Him (Luke 6:12-16). The second thing to take note of here is that in the Gospel accounts right till the end, this name Apostles was only used for those 12 disciples (e.g., before the Lord’s being caught, during the Passover feast - Luke 22:14; telling the people about the Lord, after His resurrection - Luke 24:9-10). Therefore, not everyone of the Lord’s disciple was an Apostle; but only those from amongst His disciples whom He had appointed to this. We also see that for these Apostles, the Lord had a special purpose, which is something like the Spiritual gift given by the Holy Spirit in the Church and is related to the Word Ministry.


These 12 Apostles were meant to be somewhat different and special than the rest, as has been written in Mark 3:13-15 about them:

  • They remain with Him.

  • They always be ready to be sent out by Him - whenever and wherever the Lord would send them.

  • They be ready to preach according to the Lord’s instructions; and have power to heal sicknesses and cast out demons.

The order in which these things have been stated for those appointed as Apostles is also of significance. Generally, people are more interested and run after the last-mentioned characteristic, i.e., preach and do miracles; but do not have as much desire to spend time with the Lord and to work according to His will. But we see here that the disciple of the Lord, the Apostle has to first learn to be with the Lord; to surrender and learn to do according to the Lord’s will; and only then should desire to preach and do miraculous works.


Later on, in the New Testament, the word Apostles was also used with a somewhat different meaning, other than being the special appointees of the Lord Jesus; the special “messengers of the Lord” were also called Apostles, e.g., Barnabas (Acts 14:14), Lord’s brother James (Galatians 1:19), and possibly Silas (if we see 1 Thessalonians 2:6 along with 1:1) etc. But also, not every minister of the Lord, engaged in the Lord’s work was called Apostle; e.g., important and commendable ministers of the Lord like Timothy, Titus, Philemon, Onesimus, Epaphroditus have never been called Apostles in God’s Word.


Also, people entrusted with the works and taking care of the Church were also addressed as Apostles (1 Corinthians 12:28-29; Ephesians 4:11). But here we also note another important related point; in both of these letters, to Corinthians and Ephesians, in the quoted verses it has also been said that these Apostles had been appointed by God; they were neither appointed by men nor were self-appointed to this responsibility. One possibility is that the Apostles being referred to over here are from those 12 whom the Lord Jesus had initially appointed, and they have now been entrusted with the works and taking care of the Church. But in any case, the Apostles in the New Testament were appointed by God, not man.


In context of the Apostles not being appointed by men, there is another very important point to note. Later, in the letters written to Titus and Timothy by Paul under the guidance of the Holy Spirit, when instructions were written about appointing elders and others for the works and taking care of the Church, and the required characteristics of those who could be considered for this appointment were given (1 Timothy 3:1-7; Titus 1:6-9), then at that time neither for the works and taking care of the Church, nor for preaching the gospel and teaching the Word, no mention was made of appointing any Apostles by any person (Titus 1:5), nor, like they were given for appointing elders, were any characteristics given according to which people could appoint someone as an Apostle in the Church.


Also take note of the fact that in Romans 16, the last chapter of the book, under the guidance of the Holy Spirit Paul remembers, commends, and thanks many people for their Christian ministry and help, and in the first verse mentions an office of responsibility in the Church, in commending Phoebe as a deaconess of the Church. But in Romans 16:7, except for the earlier declared Apostles, Paul does not call anyone else an Apostle. Similarly in 1 Corinthians 16 also there is no mention of anyone as an Apostle, although here too Paul remembers, commends, and thanks many people for their Christian Ministry and work and helping him.


If you are a Christian Believer, then beware and trust that the Lord God has not left us helpless and without resources to recognize the wolves that creep amongst Christian Believers in sheep’s clothing. He has given the way to recognize them in His Word, and has given us His Holy Spirit to help us to learn and understand God’s Word. It is very important for Christian Believers to learn and understand that in God’s Word nowhere has it ever been instructed that Apostles be appointed by men, or self-appointed; nor have any criteria or characteristics ever been given for considering people to be appropriate for this responsibility, nor has any method of discerning, deciding and appointing Apostles in the Church been prescribed in God’s Word. The Lord wants that we should first examine, evaluate for it being the truth, and only then should we accept any teaching or notion (1 John 4:1; 1 Thessalonians 5:21). One way of evaluating a person being an Apostle is by what we have seen today from Mark 3:13-15. We will look at some other characteristics and other related things about being an Apostles in the next article.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 140-142 

  • 1 Corinthians 14:1-20