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गुरुवार, 10 नवंबर 2022

पवित्र आत्मा से भरना से संबंधित गलत शिक्षाएं / Wrong Teachings Regarding Being Filled With The Holy Spirit


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पवित्र आत्मा से भरना को समझना


पिछले कुछ लेखों से हम इफिसियों 4:14 में दी गई बातों में से, बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं को प्रभावित करने वाले तीसरे दुष्प्रभाव, भ्रामक या गलत उपदेशों के बारे में देखते आ रहे हैं। इन गलत या भ्रामक शिक्षाओं के मुख्य स्वरूपों के बारे में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है कि इन भ्रामक शिक्षाओं के, गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन स्वरूप होते हैं, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, जिन्हें शैतान और उसके लोग प्रभु यीशु के झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्‍वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं। सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए इन तीनों स्वरूपों के साथ इस पद में एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है। इस पद में लिखा है कि शैतान की युक्तियों के तीनों विषयों, प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार के बारे में जो यथार्थ और सत्य है वह वचन में पहले से ही बता दिया गया है।

 

इन तीनों प्रकार की गलत शिक्षाओं में से इस पद में सबसे पहली है कि शैतान और उस के जन, प्रभु यीशु के विषय ऐसी शिक्षाएं देते हैं जो वचन में नहीं दी गई हैं, और इसके बारे में हम पहले दो लेखों में विस्तार से देख चुके हैं। दूसरी बात जिसके बारे में भ्रामक शिक्षा और गलत बातें सिखाई, फैलाई जाती हैं, वह है परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय। “कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था”, गलत शिक्षा के पहले विषय के समान ही, इस दूसरी के लिए भी यहाँ यही लिखा गया है, “जो पहिले न मिला था” - अर्थात, जो भी गलत शिक्षाएं और बातें होंगी, वे उन शिक्षाओं और बातों के अतिरिक्त होंगी जो परमेश्वर के वचन में पहले से लिखवा दी गई हैं, और जिनके आधार पर उन शिक्षाओं को परखा, जाँचा, और उनकी सत्यता को स्थापित किया जा सकता है।


पिछले लेख से हमने परमेश्वर पवित्र आत्मा के संबंध में बताई और फैलाई जाने वाली कुछ सामान्य गलत शिक्षाओं के विषय देना आरंभ किया, और यह सीखा था कि मसीही विश्वासी के उद्धार पाते ही, उसी क्षण से, पवित्र आत्मा आकर मसीही विश्वासियों में निवास करने लग जाता है। किसी को भी पवित्र आत्मा पाने के लिए अलग से कोई प्रयास करने, या प्रतीक्षा करने, या प्रार्थनाएं करने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक सच्चे, नया जन्म अर्थात उद्धार पाए हुए विश्वासी में, उसके उद्धार पाने के पल से ही विद्यमान है। पवित्र आत्मा प्राप्त करने से संबंधित इस गलत शिक्षा को और बिगाड़ते हुए, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाएं देने वाले ये लोग सिखाते हैं कि पवित्र आत्मा प्राप्त करना एक बात है, किन्तु प्रभावी मसीही जीवन और सेवकाई के लिए एक दूसरे अनुभव - पवित्र आत्मा से भरने, और पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाने की आवश्यकता होती है, और जिसे पवित्र आत्मा प्राप्त होता है वह फिर अन्य-भाषाएं बोलने लगता है, जो कि पवित्र आत्मा प्राप्त हो जाने का प्रमाण है। उनकी ये शिक्षाएं भी वचन के कुछ भाग को उसके संदर्भ से बाहर लेकर, अन्य संबंधित बातों का ध्यान रखे बिना, अपनी ही धारणा बना लेने के कारण हैं। आज हम उनके द्वारा दी जाने वाली पवित्र आत्मा से भरना की व्याख्या और शिक्षा के गलत होने बारे में देखेंगे, और वचन से इस बात के सही अर्थ को समझेंगे।


पवित्र आत्मा से भर जाने का नए नियम का पहला उल्लेख प्रभु यीशु के शिष्यों के द्वारा पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा प्राप्त करने के साथ किया गया है। प्रेरितों के काम 2:4 में लिखा है,“और वे सब पवित्र आत्मा से भर गए, और जिस प्रकार आत्मा ने उन्हें बोलने की सामर्थ्य दी, वे अन्य अन्य भाषा बोलने लगे।” ध्यान कीजिए, इस पहले ही उल्लेख में यह नहीं लिखा है कि उन्होंने पवित्र आत्मा प्राप्त किया; वरन इस पद 4 का आरंभिक वाक्य कहता है कि “और वे सब पवित्र आत्मा से भर गए”। यह भी नहीं लिखा है कि उन सभी ने पवित्र आत्मा की थोड़ी-थोड़ी सामर्थ्य प्राप्त कर ली; और न ही यह लिखा है कि उन शिष्यों की वरीयता या सेवकाई के महत्व के अनुसार उसी अनुपात में उन्हें पवित्र आत्मा दिया गया। वरन यह स्पष्ट लिखा गया है कि वे सभी पवित्र आत्मा से भर गए। अर्थात, पवित्र आत्मा जब आया, तब सभी एकत्रित शिष्यों पर, वे चाहे जो भी हों और अपने चाहे विश्वास में कितने भी दृढ़ अथवा दुर्बल थे, एक ही रीति से, एक जैसा ही, तथा अपनी परिपूर्णता के साथ आया। किसी पर कम किसी पर ज़्यादा नहीं आया, और उस स्थान पर उपस्थित सभी जन (प्रेरितों 1:15 - गिनती में लगभग 120), बिना किसी भी प्रकार की भिन्नता के, पवित्र आत्मा से भर गए। यहाँ पर, पवित्र आत्मा से भरे जाएँ के प्रथम उल्लेख में ही वचन यह स्पष्ट कर देता है कि पवित्र आत्मा का विश्वासी में आना और उस विश्वासी का पवित्र आत्मा से भर जाना एक ही बात है। इसी से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण बात और है, बाइबल में पवित्र आत्मा से भरने के लिए किसी अतिरिक्त प्रार्थना, प्रतीक्षा, या प्रयास करने का न तो कोई उदाहरण है, और न ही कोई निर्देश अथवा शिक्षा है। इसे एक अलग या विशेष अनुभव बताना और सिखाना इन लोगों की अपनी मन-गढ़ंत बात है; वचन की शिक्षा नहीं है। साथ ही इस बहुत महत्वपूर्ण तथ्य पर भी ध्यान कीजिए - पवित्र आत्मा परमेश्वर है, पवित्र त्रिएक परमेश्वर का एक व्यक्तित्व, उसे बांटा नहीं जाता है, वह टुकड़ों या किस्तों में नहीं मिलता है (यूहन्ना 3:34), न ही किसी व्यक्ति में उसे घटाया या बढ़ाया जा सकता है, और वह हर किसी सच्चे मसीही विश्वासी में मात्रा तथा गुणवत्ता में समान ही विद्यमान होता है।


सामान्य वार्तालाप एवं उपयोग में वाक्यांश “भर जाने” या “परिपूर्ण हो जाने” के विभिन्न अभिप्राय होते हैं, और इस वाक्यांश के विषय ऐसा ही हम परमेश्वर के वचन बाइबल में भी देखते हैं। इन विभिन्न अभिप्रायों के कुछ उदाहरण हैं:

  • किसी रिक्त/खाली स्थान में समा जाना और उसे अपनी उपस्थिति से ‘भर’ देना या परिपूर्ण अथवा ओतप्रोत कर देना। बाइबल में इस अभिप्राय का एक जाना-माना उदाहरण है मरियम द्वारा प्रभु के पाँवों पर इत्र उडेलना, जिसकी सुगंध से घर सुगंधित हो गया (यूहन्ना 12:3; अंग्रेज़ी में filled with the fragrance) अर्थात सुगंध से भर गया। बाइबल से इसी अभिप्राय का एक और परिचित उदाहरण है राजा के कहने पर सभी स्थानों से लोगों को लाकर ब्याह के भोज के लिए बैठाना जिससे “ब्याह का घर जेवनहारों से भर गया” (मत्ती 22:10)। 

  • किसी बात या भावना के वशीभूत होकर कुछ कार्य अथवा व्यवहार करना; जैसे कि 

    • लोगों का प्रभु या उसके शिष्यों के विरुद्ध क्रोध से भर जाना और हानि पहुँचाने का प्रयास करना (लूका 4:28-29; 6:11-english; प्रेरितों 5:17; 13:45)

    • आश्चर्यकर्म को देखकर अचरज और भय के वशीभूत हो जाना (लूका 5:26-english; प्रेरितों 3:10-english)

    • अत्यधिक आनंदित हो जाना (प्रेरितों 13:52)

  • पवित्र आत्मा को प्राप्त करना (प्रेरितों 9:17) - यहाँ एक बार फिर से पवित्र आत्मा प्राप्त करना और उससे परिपूर्ण हो जाने, या उस से भर जाने को एक ही समान बताया गया है। 

  • पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से अभूतपूर्व कार्य करना (प्रेरितों 4:8, 31; 13:9-11)

    उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि वाक्यांश “भरे जाना” या “परिपूर्ण हो जाना” सदा ही केवल एक ही अर्थ अथवा अभिप्राय के साथ बाइबल में प्रयोग नहीं किया गया है, पवित्र आत्मा के सन्दर्भ में भी नहीं; वरन इस वाक्यांश को उसके सन्दर्भ में देखने के द्वारा ही उसके वास्तविक अर्थ को समझा जा सकता है। इसलिए, इस पर जोर देना और सिखाना कि वाक्यांश “भरे जाना” या “परिपूर्ण हो जाना” का सदा ही केवल एक ही, उनके द्वारा मन-गढ़ंत, अर्थ अथवा अभिप्राय होता है, परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या और दुरुपयोग करना है।

   

इस बात पर भी विचार कीजिए कि जब सामान्य भाषा और प्रयोग में कहा जाए कि “उसने प्रेम से भर कर यह कर दिया”, या “उसने क्रोध से भर कर ऐसा कर दिया”, या “वह घृणा से भर गया”, आदि, तो क्या हम यह समझते हैं कि उस व्यक्ति ने कहीं से या किसी प्रकार प्रेम, या क्रोध, या घृणा की कुछ अधिक मात्रा प्राप्त की और फिर वह कार्य किया? या फिर हम सीधी भाषा में, बिना उसके बारे में कोई भी असमंजस रखे, यह समझ लेते हैं कि किसी बात के कारण वह व्यक्ति, उस में पहले से ही विद्यमान प्रेम, या क्रोध, या घृणा, आदि, की भावना के वशीभूत हो गया और उस वशीभूत होने की स्थिति में उसने वह कार्य कर दिया, जो वह अन्यथा नहीं करता! यही बात “पवित्र आत्मा से भरना, या भरकर कुछ कार्य करना” पर भी लागू होती है। सामान्यतः बाइबल में वाक्यांश “भर जाने” या “परिपूर्ण हो जाने” का अर्थ और प्रयोग किसी की सामर्थ्य अथवा उपस्थिति के वशीभूत होकर अथवा उससे प्रेरित होकर कुछ अद्भुत या अभूतपूर्व कर पाने के संदर्भ में होता है, और हमारे विचाराधीन सन्दर्भ में, वह ‘किसी’ पवित्र आत्मा है। अर्थात, पवित्र आत्मा से भर जाना से अभिप्राय है पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, उसके नियंत्रण में होकर कार्य करना।


 प्रभु ने यूहन्ना 14:16 में कहा “और मैं पिता से बिनती करूंगा, और वह तुम्हें एक और सहायक देगा, कि वह सर्वदा तुम्हारे साथ रहे।” तो अर्थ स्पष्ट है कि अब जब उद्धार के समय एक बार पवित्र आत्मा शिष्यों को दे दिया गया, और पवित्र आत्मा जब उनमें आ गया तो सर्वदा, उनके जीवन भर उनके साथ रहने के लिए आ गया। जब पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में किसी व्यक्ति में आ गया तो फिर इसके बाद उससे अतिरिक्त, या अधिक, या दोबारा तो किसी को कभी मिल ही नहीं सकता है; परमेश्वर पवित्र आत्मा उस व्यक्ति में अपनी संपूर्णता में हमेशा वही, वैसा ही, और उतना ही रहेगा। तथाकथित “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” या अलग से “पवित्र आत्मा से भरना” इससे अधिक और क्या दे सकता है? इसलिए अब तो बस उस व्यक्ति को अपने में विद्यमान पवित्र आत्मा की उपस्थिति को अपने आचरण द्वारा व्यक्त करते रहना है, अपने व्यवहारिक जीवन में पवित्र आत्मा के प्रभाव एवं नियंत्रण को दिखाते रहना है। इसलिए अब बार-बार पवित्र आत्मा मांगने या भरने की प्रार्थना करने और इससे संबंधित गीत गाने का क्या औचित्य है? अगले लेख में हम वचन से “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” पाने के बारे में देखेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित इन गलत शिक्षाओं में न पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। यदि आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यिर्मयाह 48-49 

  • इब्रानियों 7


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English Translation

Understanding Being Filled With The Holy Spirit


In the past few articles, from Ephesians 4:14, we have been looking into the deceptive teachings and tricks of Satan that adversely influence the immature Christian Believers and the Church. The Holy Spirit has got written about the three main forms of these deceptive teachings by the Apostle Paul in 2 Corinthians 11:4, “For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!”; which Satan and his followers usually use as their false teachings to beguile and mislead the people. They disguise themselves as false apostles, ministers of righteousness, and angels of light to preach and teach these deceptive doctrines, using various tricks to impress and influence people, and cunningly make them think that these satanic agents are actually divine. In this verse we have also been given another very important fact, that helps us to identify the deceptions of Satan and escape falling for them. This verse tells us that all things that are true, factual, and to be accepted about the Lord Jesus, the Holy Spirit, and the Gospel, have already been given in God’s Word; thereby implying that anything outside of God’s Word is from Satan, and is not to be accepted.


The first theme given in 2 Corinthians 11:4 is wrong teachings and concepts about the Lord Jesus, and we have seen them in some detail in the previous two articles. The second topic of the wrong teachings and concepts, mentioned in this verse, is the Holy Spirit, “if you receive a different spirit which you have not received”. As stated for the wrong teachings for the first theme, for this second theme too it is written, “which you have not received” - again implying that all the wrong and deceptive teachings will be those that are other than the ones already given in the Word of God. And, these correct teachings that have already been given can be used as a standard to measure and evaluate the other teachings and ascertain whether they are true or not.


From the last article, we have started to look into the common wrong teachings and concepts about the Holy Spirit, and had learnt that contrary to the wrong teachings, a Christian Believer is automatically given the Holy Spirit from the moment of his being saved, or being Born-Again, and He comes to permanently reside in him from the moment of his being saved. Therefore, no Christian Believer ever needs to do any extra efforts, tarry, or pray and plead to receive the Holy Spirit from the Lord God, since the Holy Spirit is already residing within every truly Born-Again Believer. Further corrupting their wrong teaching these preachers and teachers of wrong doctrines, go on to preach and teach that receiving the Holy Spirit is one thing, but for an effective Christian life and Ministry a second experience - being filled with the Holy Spirit, or baptism of the Holy Spirit is essential, and whoever receives the Holy Spirit also starts speaking in “tongues”, which is the proof of having received the Holy Spirit. These teachings given by them are again based on taking portions of the Scriptures, out of their context, and misinterpreting them without keeping certain other pertinent Biblical facts in mind. Today we will look into their false notion of “being filled with the Holy Spirit” and understand it’s true meaning from God’s Word.


The first mention of being filled with the Holy Spirit in the New Testament is when the disciples of the Lord Jesus received the Holy Spirit on the day of Pentecost. It is written in Acts 2:4 “And they were all filled with the Holy Spirit and began to speak with other tongues, as the Spirit gave them utterance.” Take note of what is stated in this very first reference to filling with the Holy Spirit; it does not say that the disciples received the Holy Spirit, rather, the opening part of the sentence is “And they were all filled with the Holy Spirit.” Neither does it say that each of the disciples received a measure of the Holy Spirit, nor does it say that the disciples in proportion to their status or ministry, received proportionate amounts of the Holy Spirit. Rather, it is very clearly written that they were all filled with the Holy Spirit. Therefore, it is quite evident that when the Holy Spirit came upon the disciples gathered in that room, He came upon all of them in the same manner, in His fullness, the same for everyone, irrespective of who they were and whatever their level of belief and faith may have been. He did not come more on some and less on the others; all those who were present at that place (about 120 - Acts 1:15) were filled with the Holy Spirit, without any differentiation of any kind. God’s Word makes it very clear in this very first mention of being filled with the Holy Spirit that receiving the Holy Spirit and being filled with the Holy Spirit are one and the same thing. There is another related and very important Biblical fact, in the whole of the Bible, there is no instruction or teaching or example of anyone ever praying, or tarrying, or making any special efforts to be filled with the Holy Spirit. To present, preach, and teach this as a separate, or special, or a “second experience” is a concocted doctrine made up by these people, that has no basis or affirmation from the Bible. Moreover, do give this very important fact a serious thought - the Holy Spirit is God, a person of the Triune God, of the Holy Trinity; He cannot be broken or divided into portions, or bits and pieces. Neither is He given in parts (John 3:34), nor can He be increased or decreased in quantity or quality in any person. He is present just the same in every Christian Believer, in all His fullness and all His qualities.


In general conversation and use, the phrase “being filled” can have different connotations, and we see the same in the use of this phrase in the Bible as well. Some examples of the Biblical use of this phrase to convey different meanings are:

  • To permeate in, or spread in a place, to occupy and make the presence felt everywhere. A very well-known Biblical example of this connotation is the pouring out of the fragrant oil by Mary on the feet of Jesus and the fragrance of the oil “filled” the house (John 12:3). Another well-known example of the same connotation is the King calling for people to be brought in for the wedding feast, and “...And the wedding hall was filled with guests” (Matthew 22:10).

  • To act under an influence or under an emotion; e.g.,

    • The people being filled with anger, and wanted to harm the Lord Jesus and His disciples (Luke 4:28-29; 6:11; Acts 5:17; 13:45)

    • To be filled with fear and astonishment on witnessing a miracle (Luke 5:26; Acts 3:10)

    • To become very happy and joyful (Acts 13:52)

  • To receive the Holy Spirit (Acts 9:17) - here again, receiving and being filled with the Holy Spirit have been stated as one and the same thing.

  • To do extra-ordinary things through the power of the Holy Spirit (Acts 4:8, 31; 13:9-11)


We see from these examples that “being filled” does not always mean or convey one and the same meaning, even in reference to the Holy Spirit; rather it has to be taken in, and understood in its context to understand the actual meaning with which this phrase has been used. Therefore, insisting on always ascribing one and the same contrived meaning to the phrase is a misinterpretation and misuse of God’s Word.


Ponder over this also, that when in general conversation and usage, is someone says something like, “being filled with love and affection he did this”, or, “being filled with rage he did it”, or “he was filled with hatred”, etc., then do we take this to mean that the person first arranged for and obtained an extra quantity of that feeling or emotion and then carried out the act? Or, do we in a simple and straightforward manner, without any confusion about it, understand and accept that the person was overwhelmed with the already present feeling or emotion in him, and in that state did what he did; which he would not have done in a normal state of mind or emotions? This very understanding, similarly, also applies to the Biblical “being filled with the Holy Spirit and doing something.” As is apparent from the above-mentioned usages, in the Bible, the phrase “being filled” denotes doing something extra-ordinary or very powerful, because of being under the influence of, or being motivated by something, and in our context that ‘something’ is the Holy Spirit. In other words, to act after being filled with the Holy Spirit implies to do something under the control or guidance, and with the power of the Holy Spirit.


In John 14:16, the Lord Jesus has said “And I will pray the Father, and He will give you another Helper, that He may abide with you forever”, therefore, the implication is clear - when at the moment of salvation, a Believer has received the Holy Spirit, then it has come to reside in that disciple of the Lord Jesus forever, till the person is alive on earth. Now, when the Holy Spirit has come to reside in the person, He has come in His fullness, and there is no way that the person can ever get some extra portion, or some extra power, or a second time; God the Holy Spirit will always remain in the person in His fullness, with all His qualities and power, and will never change in quantity or quality. Therefore, what more, or what else can the so called “second experience”, or “being filled with the Holy Spirit”, or “baptism of the Holy Spirit” give to the person? Therefore, now all that the person, the disciple has to do is to keep expressing the Holy Spirit residing within him through his life and behavior, has to keep practically demonstrating the effects and control of the Holy Spirit in his life. Hence, what rational is there of repeatedly asking for the Holy Spirit to come in, or fill a person and singing worship songs with this meaning? In the next article we will look at “baptism the Holy Spirit.”


If you are a Christian Believer, then it is very important for you to know and understand that you do not get beguiled and carried away by these wrong teachings about the Holy Spirit. Neither should you get deceived or remain under deception, nor let others be deceived or remain under deception about them. If you have fallen for these wrong teachings, now is your time and opportunity to learn the truth from God’s Word, and start following the Biblical truth, instead of man-made false doctrines and wrong teachings.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Jeremiah 48-49 

  • Hebrews 7



2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. राजेश जी, टिप्पणी एवं सराहना के लिए बहुत धन्यवाद. यदि आप इस ब्लॉग के लेखों को ई-मेल के द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं, तो जैसा ब्लॉग में सबसे ऊपर लिखा है, कृपया अपना ई-मेल पता भेजिए. धन्यवाद.

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