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आरम्भिक बातें – 21
परमेश्वर पर विश्वास करना – 8
एक स्थिर विश्वास बनाए रखने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को सीखना और जानना चाहिए। बाइबल की तीन प्रकार की शिक्षाएँ है जो मौलिक हैं, जिन से एक दृढ़ नींव मिलती है जिस पर मसीही विश्वास को बनाया और बढ़ाया जा सके, तथा प्रत्येक मसीही विश्वासी को उन्हें जानना चाहिए। ये तीन हैं, सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएँ, जिन्हें हम देख चुके हैं; इब्रानियों 6:1-2 में उल्लेखित छः आरम्भिक शिक्षाएँ, जिन्हें हम देख रहे हैं और वर्तमान में उनमें से दूसरी, “परमेश्वर पर विश्वास” के बारे में सीख रहे हैं; और व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित शिक्षाएँ, जिन्हें हम आने वाले समय में, आरम्भिक शिक्षाओं के बाद सीखेंगे। किसी में भी विश्वास रखने के लिए, हमें उस व्यक्ति के बारे मैं, उसके गुणों, विशेषताओं, और चरित्र के बारे में जानना आवश्यक है; और यही बात परमेश्वर पर विश्वास रखने पर लागू होती है। हम देख चुके हैं कि परमेश्वर ने एक खुला निमंत्रण छोड़ा हुआ है कि लोग आएँ और परख कर देखें कि वह कितना भला है (भजन 34:8)। दूसरी आरम्भिक बात, अर्थात “परमेश्वर पर विश्वास करना” के बारे में सीखते हुए हम परमेश्वर के गुणों और विशेषताओं को देख रहे हैं, विशेषकर उनके बारे में जो कलीसियाओं में बहुधा बताए और सिखाए नहीं जाते हैं। परन्तु प्रत्येक मसीही विश्वासी को उनके बारे में जानना चाहिए। जब विश्वासी उन गुणों और उनके अभिप्रायों के बारे में सीखेंगे, तो परमेश्वर पर विश्वास रखने के बारे में उन्हें एक दृढ़ नींव मिलेगी। आज हम परमेश्वर के एक ऐसे ही गुण के बारे में देखेंगे जिसके बारे में शायद ही कभी कहा या सिखाया जाता है, अर्थात, परमेश्वर के जलन रखने के बारे में।
परमेश्वर का वचन बाइबल हमें सिखाती है कि परमेश्वर जलन रखने वाला परमेश्वर है (निर्गमन 20:5; 34:14; यहोशू 24:19)। परमेश्वर के जलन रख कर कार्य करने को समझने के लिए, हमें इस बात को ध्यान में बनाए रखना चाहिए कि परमेश्वर अपने लोगों पर अपने अधिकार या स्वामित्व को बहुत गम्भीरता से लेता है; और कभी भी, किसी को भी, किसी भी कीमत पर, उन्हें उसके हाथों से ले जाने नहीं देता है (यूहन्ना 10:28-29)। वह कभी भी, किसी भी कारण से न तो उन्हें छोड़ता है और न ही त्यागता है (इब्रानियों 13:5), और इसीलिए, विश्वासी उनके पथभ्रष्ट और अनाज्ञाकारी जीवन के बावजूद, उद्धार कभी भी नहीं खो सकते हैं। लेकिन परमेश्वर ऐसे गैर मसीही बातों के जीवन और व्यवहार की अनदेखी भी नहीं करता है, उसे हल्के में नहीं लेता है, और उनके पथभ्रष्ट एवं अनाज्ञाकारिता के जीवन के कारण परमेश्वर के लोग परमेश्वर द्वारा दण्डित किए जाते हैं, यदि आवश्यकता होती है तो घोर दण्ड भी पाते हैं; लेकिन परमेश्वर उन्हें कभी अपने से अलग नहीं करता है, उन्हें त्यागता नहीं है। जो परमेश्वर के लोग हैं, वे न केवल उसकी सन्तान, उसके परिवार का अँग हैं, वे उसकी अमूल्य सम्पत्ति भी हैं। वह उनके, उस का होने को, उन लोगों पर उसके अधिकार या स्वामित्व को बहुत गम्भीरता से लेता है। पथभ्रष्ट होने और सँसार से समझौता करने के लिए, और विश्वास में दृढ़ बने रहने के स्थान पर शैतान द्वारा उनके सामने लाए गए प्रलोभनों में पड़कर गिर जाने के लिए वह उनके साथ सख्ती से व्यवहार करेगा, आवश्यकता हुई तो ताड़ना, घोर ताड़ना भी करेगा – जैसा कि हम इस्राएल के इतिहास से देखते हैं; किन्तु परमेश्वर कभी भी किसी को भी, जो उसके हैं उन्हें उस से ले जाने नहीं देगा। एक बार जो परमेश्वर के सन्तान, उसके परिवार का अँग बन गया, वह अनन्तकाल तक परमेश्वर की सन्तान और उसके परिवार का अँग बना रहेगा। यद्यपि बाइबल इसके बारे में बहुत स्पष्ट है, और सम्पूर्ण बाइबल में किसी के भी उद्धार खो देने का कहीं पर भी, कोई एक भी, उदाहरण नहीं है, फिर भी शैतान ने लोगों के मनों में यह गलत धारणा बहुत गहराई से बैठा रखी है कि यदि भले कार्यों के द्वारा उद्धार को बना कर नहीं रखेंगे, तो अपने उद्धार को खो देंगे। बाइबल का तथ्य यही है कि उद्धार पाया हुआ व्यक्ति ताड़ना पा सकता है, और पाता भी है, और हो सकता है कि अपने पथभ्रष्ट जीवन के कारण स्वर्ग में खाली हाथ प्रवेश करे (1 कुरिन्थियों 3:13-15), किन्तु वह अपना उद्धार कभी नहीं खोएगा।
इसे ध्यान में रखते हुए अब हम परमेश्वर के जलन रखने के बारे में विचार कर सकते हैं। हमारी सामान्य प्रवृत्ति जलन रखने को एक नकारात्मक रीति से, एक बुराई के रूप में देखने की होती है, क्योंकि हमारे प्रतिदिन के जीवन में हम इसे इसी प्रकार से देखते और अनुभव करते हैं। किन्तु मूल इब्रानी भाषा में परमेश्वर के जलन रखने के लिए यह इस तरह से उपयोग नहीं किया गया है। मूल यूनानी भाषा में, जिस में नया नियम लिखा गया है, जिस शब्द का अनुवाद ‘जलन रखना’ किया गया है, उस शब्द का शब्दार्थ है “उकसाना या उत्तेजित करना; अर्थात, प्रतिद्वंद्वी होने के लिए उभारना।” अर्थात प्रभु को रीस दिलाने या जलन दिलाने से तात्पर्य है कि उसे उसके अधिकार या स्वामित्व को जताने के लिए उभारना अथवा उत्तेजित करना। प्रभु अपने विश्वासियों से, अपनी सन्तानों से असीम प्रेम करता है; इतना कि उन्हें छुड़ा लेने और उन के साथ मेल-मिलाप करवाने के लिए उसने अपने एकलौते पौत्र को भी दे दिया (यूहन्ना 3:16; रोमियों 5:1, 11); वह उनमें पवित्र आत्मा के रूप में निवास करता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19); और प्रभु ने अपने आज्ञाकारी स्वर्गदूतों को उनकी सेवा-टहल करने वाली आत्माएँ बना दिया है (इब्रानियों 1:14)। अब प्रत्युत्तर में वह यही चाहता है कि उसके लोग उस से, और केवल उसी से प्रेम रखें (2 कुरिन्थियों 5:15); प्रभु के प्रति उनके प्रेम को किसी अन्य के साथ विभाजित न करें, और प्रभु को ऐसे ही हल्के में न लें, प्रभु को अनेकों में से एक ईश्वर न समझें (व्यवस्थाविवरण 32:16, 21; भजन 78:58)।
यह और भी स्पष्ट तथा उचित तब हो जाता है जब हम इस बात पर मनन करें और एहसास करें कि समस्त सृष्टि में केवल दो ही ‘शक्तियाँ’ हैं; एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर है (जो वास्तव में एकमात्र शक्ति है), जो इस सृष्टि का स्वामी है, और उसके साथ उसके स्वर्गदूत हैं। और दूसरी ‘शक्ति’ शैतान है, जो एक बलवाई स्वर्गदूत है, और उसके साथ उसके दूत हैं। शैतान और उसके दूत या लोग, सभी परमेश्वर के बैरी, विरोधी, प्रतिस्पर्धी हैं, जो उनका समय पूरा होने पर हटा दिए जाएँगे और अनन्तकाल के नरक में डाल दिए जाएँगे (मत्ती 8:29)। इनके अतिरिक्त कोई अन्य शक्ति अथवा शक्ति का स्त्रोत नहीं है; और हर जन या तो परमेश्वर के साथ सम्बन्धित है, अन्यथा वह स्वतः ही परमेश्वर के बैरी और प्रतिस्पर्धी शैतान और उसके लोगों के साथ सम्बन्धित है; इसलिए जो परमेश्वर का अनुयायी नहीं है, वह अपने आप ही शैतान का अनुयायी है। इसलिए यदि कोई, विशेषतः परमेश्वर की कोई सन्तान, अर्थात मसीही विश्वासी, यदि अपने प्रेम, लगन, और ध्यान को परमेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य के साथ जो परमेश्वर की ओर से या परमेश्वर के द्वारा नहीं है, बाँटना चाहता है, उस के साथ सम्बन्धित होना चाहता है, तो फिर स्वाभाविक है कि वह या तो शैतान या किसी शैतानी जन के साथ ही होगा। और ऐसे में इस में कोई अचरज की बात नहीं है, वरन साधारण सी बात है कि यह परमेश्वर को न केवल अस्वीकार्य, वरन उसे बुरा लगने वाला होगा; और फिर वह इसी के अनुसार प्रतिक्रिया देगा। यदि मसीही विश्वासी परमेश्वर की चेतावनियों और डाँट-फटकार से नहीं संभालेगा और सुधरेगा, पूरे मन से परमेश्वर की ओर लौटकर नहीं आएगा, तो फिर उसे लौटा लाने के लिए परमेश्वर को उसके प्रति कठोर होना पड़ेगा, कि वह विश्वासी लौट कर आ जाए; लेकिन परमेश्वर उसे बुराई या गलती में बने नहीं रहने देगा।
इसे एक पारिवारिक स्थिति के समान देखिए और समझिए, जहाँ जब कोई बच्चा माता-पिता के प्रति अनाज्ञाकारी रहता है, सुधरता नहीं है, उसे दिए गए निर्देशों के विपरीत व्यवहार में बना ही रहता है और उसके कारण परिवार का नाम खराब हो रहा है। यदि ऐसी कोई सन्तान माता-पिता की मौखिक डाँट-फटकार से नहीं मानता है, तब अपनी सन्तान के प्रति उनके प्रेम के कारण, और उसे भविष्य में किसी हानि में पड़ने से बचाने के लिए, माता-पिता को कठोरता से काम लेना पड़ता है, उसकी ताड़ना करनी पड़ती है। उनका ताड़ना करना, उस बच्चे के प्रति उनके प्रेम, उस पर उनके अधिकार का सूचक है, और बच्चे को वापस परिवार की सुरक्षा और देखभाल में लौटा लाने के लिए है, जैसा कि इब्रानियों 12:5-11 में भी लिखा है। इसी प्रकार से, परमेश्वर का जलन रखना वह नकारात्मक, बुराई वाली, जलन रखने की साँसारिक प्रवृत्ति नहीं है, वरन यह प्रेम रखने और देखभाल करने की एक अभिव्यक्ति है, ताकि वह अपने लोगों को शैतान की युक्तियों से सुरक्षित रखे। अब हम समझ सकते हैं कि बाइबल में परमेश्वर के संदर्भ में वाक्यांश “जलन रखने” से अभिप्राय है परमेश्वर का अपनी अमूल्य संपत्ति या अधिकार के प्रति, उसकी सन्तानों के प्रति सुरक्षा रखने और देखभाल करने के लिए उभारा जाना, और परमेश्वर की भटकी हुई सन्तान को वापस परमेश्वर के पास लौटा लाने के लिए जो भी आवश्यक हो वह करना। चाहे ऐसा करना अभी उस सन्तान को कठोर और दुखदायी लगे, किन्तु अनन्तकालीन दृष्टिकोण से यह करना आवश्यक और लाभकारी है (1 कुरिन्थियों 5:5)।
इसलिए, परमेश्वर का जलन रखना वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को आश्वस्त करता है कि वह परमेश्वर के हाथों में सुरक्षित और सकुशल है; कोई भी उसे परमेश्वर के हाथों में से ले जा नहीं सकता है। यदि आवश्यक होगा तो परमेश्वर अपनी सन्तान के साथ दृढ़ता या कठोरता से भी व्यवहार करेगा, उसकी ताड़ना भी करेगा, किन्तु शैतान को कभी भी उसे अनन्त विनाश में ले जाने नहीं देगा। हमने जो परमेश्वर के विभिन्न गुण, विशेषताएँ, और चरित्र सम्बन्धी बातें देखी हैं और उन पर विचार किया है, वे सभी हमें आश्वस्त करती हैं कि हम निःसंकोच और निश्चिन्त होकर “परमेश्वर पर विश्वास” कर सकते हैं। अगले लेख से हम इब्रानियों 6:1-2 में उल्लेखित आरम्भिक बातों में से तीसरी, “बपतिस्मों” पर विचार करना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 21
Faith Towards God - 8
To have a firm faith, every Christian Believer needs to study and learn the whole of God’s Word. There are three kinds of Biblical teachings that are the basic, and provide a stable foundation to build and grow in Christian faith, and every Believer should know them. These three are, teachings related to the gospel, which we have already seen; teachings about the six elementary principles mentioned in Hebrews 6:1-2, of which we are presently learning the second principle, i.e., “Faith Towards God;” and teachings related to Christian behavior, which we will see after completing learning about the elementary principles. To have faith in anyone, we need to know about that person, his attributes, characteristics, and character; the same applies about having faith in God. We have seen that God has left an open invitation for people to come and see that He is good (Psalm 34:8). Learning about the second elementary principle, i.e., having “Faith Towards God” we are considering God’s the attributes and characteristics, particularly those that are usually not taught or talked about in the churches. But every Christian Believer should know about. When Believers learn those attributes and their implications, they are provided a firm foundation to have Faith Towards God. Today we will be considering another such rarely talked about or taught attribute, i.e., the jealousy of God.
God’s Word the Bible teaches that God is a jealous God (Exodus 20:5; 34:14; Joshua 24:19). To understand God acting in jealousy, we need to bear in mind another of God’s attributes that God is very possessive of those who are His, and never lets them go or be taken away from His hands at any cost (John 10:28-29). He never ever forsakes them for whatever reason (Hebrews 13:5), and therefore, the Believers never lose their salvation because of their wayward living and disobedience. But God does not condone such unchristian behavior, and for their waywardness, the people of God are chastised by God, even severely if it so required; but God never discards them, casts them away from Himself. Those who are God’s people, they not only are His children, His family, they are His precious possession also. He is very possessive about them. He will chasten them for their being wayward, for compromising with the world, and succumbing to the temptations brought by the devil instead of standing firm in faith, and if it is required, He will even chasten severely - as we see from the history of Israel; but God will never ever let anyone take those who are His, away from Him. Once a child of God, once a part of His family, always, for eternity a child of God and a member of His family. Although the Bible is very clear about it, and there are no examples of anyone ever losing their salvation because of their wayward life, but still, Satan has driven this misconception very firmly into many people’s minds and misled them into believing that salvation can be lost if it is not maintained by good works. The Biblical fact is that the saved person can be, and will be chastened, and may even enter heaven without any rewards because of his wayward life (1 Corinthians 3:13-15), but he will never lose his salvation.
With this in mind, we can now look at what God’s being jealous means. Our normal tendency is to think of jealousy as a negative trait, as something wrong, since that is how we see and experience this feeling in our day-to-day lives. But that is not how this word has been used for God in the original Greek language, in which the New Testament is written. The word in the Greek language, that has been translated as jealousy in English literally means “to stimulate alongside, i.e., excite to rivalry.” Therefore, to provoke the Lord to jealousy implies to stimulate Him or provoke Him to act out of His possessiveness. The Lord loves His Believers, His children, immeasurably; so much, that He gave His only begotten Son to redeem them and to have them reconciled with Him (John 3:16; Romans 5:1, 11), He lives within them as the Holy Spirit (1 Corinthians 3:16; 6:19), and has made His angels their ministering spirits (Hebrews 1:14). In return, He expects them to love Him, and Him alone (2 Corinthians 5:15); to not divide their love and affections for Him with others, and not treat Him casually as one of the many whom His people love (Deuteronomy 32:16, 21; Psalm 78:58).
This becomes clearer and justifiable when we ponder and realize that there are only two ‘powers’ in this universe; one is God (actually, the one and only power), the creator and owner of this universe, and He has His angels. And the other is Satan, the rebellious angel, and his followers. Satan and his followers are all the rivals and enemies of God, who, when their time is completed, will finally be taken away and cast into everlasting hell (Matthew 8:29). There is no other power or source of any power, other than these two, and everyone is either associated with God, or else is automatically associated with God’s enemy and rival, Satan i.e., every person, can either be associated and joined with God, or with Satan and be his follower. So, if anyone, particularly a child of God, i.e., a Christian Believer, desires to share his love and affection, or associate with anyone other than God or anything that is not from God, then he can only be sharing or associating it, with Satan or with someone associated with Satan and satanic things. This quite naturally will not only be unacceptable, but even abhorrent to God; and He will act accordingly. If the Christian Believer does not respond to God’s cautions and admonitions, does not mend his ways and turn back to God whole-heartedly, then God will have to be harsh with him to turn the Believer back to Him; but God will not leave Him in his error or bad behavior.
Think of it as a family-situation where a child is being disobedient to parents, is not mending his ways, persists in living contrary to the instructions given to him, and is sullying the name of the family because of his life and behavior. If such a child does not listen to verbal cautions and admonitions, from the parents, then out of their love for the child and to safeguard him from future severe harm and harsh consequences, they have to act firmly, and resort to chastising him. Their chastisement is an act of love, is because of their being possessive of him, and to draw the child back into the safety and care of the family. God has said the same in Hebrews 12:5-11. So, the Lord’s jealousy is not the jealousy in the negative and worldly sense, but is an act of His love and care, to keep His people safe from the wiles of the devil. Now we can understand that the term “provoke to jealousy” implies, to be stimulated to act for the protection and care of someone who is God’s precious possession, the children of God, and to do whatever needs to be done to bring God’s wayward child back into God’s fold. Even if it is hurting and painful for God’s child for now, but it is beneficial from the eternal perspective (1 Corinthians 5:5).
So, God’s jealousy assures every truly Born-Again Christian Believer that he is safe and secure in the hands of God; nothing can take him away from God. If required, God will deal firmly with His child or chastise him, but will never let Satan lead him away into eternal destruction. The various attributes, characteristics, and character related things about God that we have seen and considered assure us that without any doubts or hesitation, we can have “Faith Towards God.” In the next article we will begin considering the third elementary principle mentioned in Hebrews 6:1-2, i.e., “Baptisms”.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.