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आरम्भिक बातें – 23
बपतिस्मों – 2
आरंभिक विचार (1) – आरंभिक लोगों की समझ
इस से पहले कि हम इब्रानियों 6:1-2 में लिखी आरम्भिक बातों में से तीसरी, और हमारे वर्तमान विषय, अर्थात, बपतिस्मे के बारे में अपने अध्ययन में जाने से पहले, यह आवश्यक है कि हम बाइबल को समझने और उसकी व्याख्या करने से संबंधित एक बुनियादी तथ्य से अवगत हो जाएँ। बाइबल परमेश्वर का एकमात्र सत्य, अनन्तकालीन, अचूक, अपरिवर्तनीय वचन है जो सर्वदा के लिए स्वर्ग में स्थापित है (नहेम्याह 9:13; भजन 19:9; भजन 111:7-8; भजन 119:75, 86, 89, 138, 142, 144, 152, 160, 172; नीतिवचन 30:5; सभोपदेशक 3:14; यशायाह 40:8; यिर्मयाह 31:36; मत्ती 24:35;यूहन्ना 17:17; रोमियों 3:4; 1 पतरस 1:25)। यह कभी समय, स्थान, या व्यक्ति के अनुसार बदलता नहीं है; यह हमेशा ही सभी के लिए एक समान ही रहता है। इसलिए, इसके लेखों के लिखे जाने के समय पर, स्थान पर, तब के लोगों के लिए जो इसका अर्थ था; वही हमेशा ही, सभी के लिए, सभी स्थानों बना रहेगा। यदि किसी भी कारण से यह बदल जाए, तो फिर इसे हमेशा सत्य रहने वाला, अनन्तकालीन, अचूक, और अपरिवर्तनीय परमेश्वर का वचन नहीं कहा जा सकेगा। सीधे शब्दों में, फिर ऐसी स्थिति में बाइबल को कभी भी परमेश्वर का वचन स्वीकार नहीं किया जा सकता है, और न ही उसकी किसी बात पर कभी भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि तब तो उसकी बातें समय, स्थान, और व्यक्ति के अनुसार बदलती रहेंगी। इसलिए, जो बाइबल को परमेश्वर का वचन स्वीकार करते हैं, उन्हें इसके गुणों को भी पूरे मन से स्वीकार करना होगा। न केवल पूरे मन से यह स्वीकार करना होगा, वरन, बाइबल का अध्ययन और व्याख्या करते समय इस तथ्य का ध्यान भी रखना होगा। और साथ ही उन्हें इसे बाइबल के शब्दों, पदों, और खण्डों के अर्थ तथा व्याख्या पर लागू भी करना होगा, और किसी भी अर्थ अथवा व्याख्या को इस तथ्य के अनुसार ही स्वीकार अन्यथा अस्वीकार भी करना होगा।
इस बात को ध्यान में रखते हुए, जब हम परमेश्वर के वचन से बपतिस्मे से संबंधित विभिन्न बातों और शिक्षाओं में जाते हैं, तो यह हमारे लिए बहुत सहायक होगा कि हम बपतिस्मे के बारे में कुछ आरंभिक बातों को भी देख और समझ लें। इन आरंभिक बातों की समझ के लिए हमें अपने आप को उस समय-काल में ले जाना होगा, जब इन बातों को पहली बार कहा गया, या ये घटित हुई थीं, और जब इन्हें परमेश्वर के वचन में लिखवाया गया। यदि हम इन बातों को उन लोगों के दृष्टिकोण से देख और समझ सकें, जिन्होंने इन्हें पहली बार सुना था और अपने जीवनों में लागू किया था, तो हम यह भी समझने पाएंगे कि उन्होंने इन के बारे में क्या समझा था, और इन्हें अपने जीवनों में किस प्रकार लागू किया था। इस बात को यदि कुछ भिन्न रीति से कहा जाए तो, बपतिस्मे से संबंधित बातें और इस शब्द के सबसे पहले और आरंभिक उपयोग, उस समय में बपतिस्मे को दिए जाने का उस समय के लोगों के लिए जो अर्थ, जो व्यावहारिक अभिप्राय था, यही अर्थ और व्यावहारिक अभिप्राय ही इसका मूल और बुनियादी अर्थ और उपयोग है। यही वह अपरिवर्तनीय तथ्य है जिसे हमें स्वीकार करना है, समझना है, और अपने जीवन में लागू करना है। अन्य कोई भी अर्थ या व्याख्या इस मूल और बुनियादी अर्थ एवं उपयोग में कुछ योगदान कर सकती है, उसे और अधिक स्पष्ट कर सकती है, किन्तु कभी भी उसे बदल या हटा कर उसका स्थान नहीं ले सकती है। अन्यथा, जैसे ऊपर कहा गया है, यह परमेश्वर के वचन को बदलना, उसे असत्य, चूक जाने वाला, और परिवर्तनीय कर देना होगा।
बाइबल में बपतिस्मे का पहला उल्लेख नए नियम में मत्ती 3 अध्याय में, प्रभु यीशु मसीह के अग्रदूत यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की सेवकाई के साथ किया गया है। बपतिस्मे को हम जिस तरह से जानते और समझते हैं, उसका वैसा कोई उल्लेख पुराने नियम में नहीं है। किन्तु पुराना नियम इसके बारे में पूर्णतः शांत भी नहीं है। परमेश्वर के वचन के एक तथ्य पर थोड़ा विचार कीजिए; इस तथ्य पर यदि किसी का ध्यान जाता भी है तो भी शायद ही कभी जाता होगा। और शायद ही कभी अथवा कभी ध्यान नहीं जाने का कारण है, क्योंकि हम बपतिस्मे के बारे में उन्हीं बातों के आदि हो चुके हैं, उन्हें वैसे ही देखते और समझते हैं, जैसे हमारे डिनॉमिनेशन, मत, अथवा समुदाय की मान्यताओं और सिद्धान्तों के आधार पर, हमारे धार्मिक अगुवे और प्राचीन हमें सिखा और पढ़ा देते हैं। विचार करने के लिए आवश्यक इस तथ्य का दो जगह पर उल्लेख किया गया है - पहला, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की सेवकाई के साथ मत्ती 3:1-7 में; और दूसरा, प्रेरितों 2:38 में, भक्त यहूदियों को पतरस द्वारा किए गए पहले प्रचार में, जिसमें वह उन्हें पश्चाताप करने और बपतिस्मा लेने के लिए कहता है।
यूहन्ना की सेवकाई वाले हवाले से हम देखते हैं कि न केवल जन-साधारण, वरन फरीसी और सदूकी भी, जो परमेश्वर की व्यवस्था तथा पुराने नियम पवित्र शास्त्र के ज्ञाता थे, उसके पास बपतिस्मा लेने के लिए आए। पतरस द्वारा “आकाश के नीचे की हर एक जाति में से” आए हुए भक्त यहूदियों (प्रेरितों 2:5), अर्थात जन-साधारण के लोगों से पश्चाताप और बपतिस्मे के लिए किए गए आह्वान में यह निहित है कि वे लोग व्यवस्था की बातों और माँगो से भली भांति परिचित रहे होंगे। लेकिन न तो जन-साधारण ने, न फरीसियों और सदूकियों ने जकरयाह याजक के पुत्र यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले को कोई चुनौती दी कि उसने कोई नई बात जो परमेश्वर के वचन में दी ही नहीं गई है उसे सिखाना और बताना क्यों आरंभ कर दिया है? उन्होंने न ही उस पर परमेश्वर के वचन के उल्लंघन का आरोप लगाया, और न ही उसे परमेश्वर की निन्दा करने का दोषी ठहराया। इसी प्रकार से, जब पतरस ने उन भक्त यहूदियों से बपतिस्मा लेने के लिए कहा, तो किसी ने भी उससे इस बात को समझाने के लिए नहीं कहा; और न ही परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इस बात के किसी स्पष्टीकरण को वचन में लिखवाने की कोई आवश्यकता समझी। इन बातों का प्रकट अभिप्राय है कि आम लोग, फरीसी और सदूकी, और भक्त यहूदी, सभी समझते और स्वीकार करते थे कि शब्द ‘बपतिस्मा’ या ‘बपतिस्मा लेने’ का क्या अर्थ है; उनके लिए यह कोई नई अथवा अनसुनी या विचित्र बात नहीं थी।इसलिए, प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के समय बपतिस्मे के जैसे समझा, स्वीकारा, और पालन किया जाता था, वही उसका मौलिक, अपरिवर्तनीय स्वरूप है, जिस में कुछ अन्य सहायक बातें जोड़ी तो जा सकती हैं, किन्तु जिसे कभी भी बदला नहीं जा सकता है; अन्यथा यह परमेश्वर के वचन के चरित्र के विरुद्ध होगा, और इसका यही अभिप्राय होगा कि परमेश्वर के वचन में दिए गए और हमारे पालन के लिए हमें सौंपे गए तथ्यों को बाद में कभी बदला जा सकता है; जो कि एक पूर्णतः अस्वीकार्य और गलत धारणा है। अगले लेख में हम अपने अध्ययन को यहाँ से आगे ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 23
Baptisms – 2
Preliminary Considerations (1) – People’s Initial Understanding
Before we get into our study on the third elementary principle mentioned in Hebrews 6:1-2, and our topic for the day, i.e.; baptism, we need to become aware of a basic fact related to interpreting and understanding the Bible. The Bible is the one and only true, eternal, infallible, unalterable Word of God forever established in heaven (Nehemiah 9:13; Psalm 19:9; Psalm 111:7-8; Psalm 119:75, 86, 89, 138, 142, 144, 152, 160, 172; Proverbs 30:5; Ecclesiastes 3:14; Isaiah 40:8; Jeremiah 31:36; Matthew 24:35; John 17:17; Romans 3:4; 1 Peter 1:25). It does not change with time, place, or person; it always remains the same for everybody, forever. Therefore, what it meant for the people at the place, and at the time its texts were written; that will always remain and mean the same for everyone else, at every place, and at any time. If it were to change due to any consideration, then it cannot be considered the always true, eternal, infallible and unalterable Word of God. For then some portion of it will no longer remain true, will change, hence it will not be eternal and unalterable, and since a part of it has failed, so it will not be infallible either. To state it simply, in that case, the Bible can never be accepted as the Word of God, and can never be trusted for anything; since then with time, or place, or person, parts of it will keep varying. Therefore, those who accept the Bible as the Word of God, will also have to accept it whole-heartedly with its characteristics, and not only keep them in mind when studying and interpreting the Bible, but also apply them to the meanings and interpretations that are given to its words, verses, and passages; and assess and accept or reject those meanings and interpretations accordingly.
With this in mind, as we go into various aspects and teachings about baptism, from God’s Word, it will be very helpful to look into and understand some preliminary things about baptism. To see and understand these preliminary things, we will also need to place ourselves in the same time-frame, as was, when these things first happened and were written in God’s Word. If we can understand these things from the point-of-view of those people who first heard of them and their application, we can also understand how they understood them and applied them to their lives. To put it in a different manner, the things related to baptism and the use of this term, when it was first said and done, conveyed a certain meaning and understanding of this word and its application to the people of that time. This meaning and understanding of this word and its application is the basic, unalterable fact, that has to be accepted, understood and applied by us today. Every other meaning and interpretation may supplement and complement this initial basic meaning and understanding, but none can ever replace or change this initial basic meaning. Else, as stated above, it would tantamount to altering God’s Word and rendering it untrue, fallible and alterable.
The first mention of baptism in the Bible is in the New Testament, in Matthew chapter 3, with the ministry of John the Baptist, the forerunner of the Lord Jesus Christ. There is no mention of baptism, as we know it, in the Old Testament. But the Old Testament is not completely silent about it either. Ponder over a scarcely, if at all noticed fact from God’s Word. This fact is scarcely ever, or not at all noticed by us, since we are all so accustomed, trained, and taught, to think about baptism in the manner our religious leaders and elders preach and teach to us about it, according to the beliefs and doctrines of our denominations, sects, and groups. This fact to ponder over is mentioned at two places - first, with the ministry of John the Baptist in Matthew 3:1-7; and second, in the first preaching of Peter to the devout Jews and his call to them for repentance and being baptized, in Acts 2:38.
With John’s ministry we see that not just the common people, but also the Pharisees and Sadducees, the experts and teachers of God’s Law and the Old Testament Scriptures, came to him for baptism. In Peter’s call for repentance and baptism, he was addressing the devout Jews (Acts 2:5), the common people, who had come from “every nation under heaven”, who would have been well versed with the requirements of the Law and its fulfilment. But neither the common people, nor the Pharisees and Sadducees who were scholars of God’s Word, challenged John, the son of Zacharias, a priest, for starting something new; or of preaching and teaching something not given in God’s Word; they did not accuse him of breaking God’s Word, or of blasphemy in the name of God. Similarly, the devout Jews when told by Peter to be baptized, did not ask for this term to be explained to them; nor has the Holy Spirit considered it necessary to have an explanation of this term recorded in God’s Word. The evident implication is that the common people, the Pharisees and Sadducees, and the devout Jews, they all understood and accepted what the term baptism or ‘to be baptized’ means; it was nothing new or unheard of and strange for them. Therefore, baptism as understood, accepted, and practiced in Lord Jesus’s earthly ministry time is the basic unalterable form, that could be supplemented, but never replaced; else it would against the character of God’s Word by implying that facts recorded in God’s Word and given as such to us for practicing, can be changed at some later date; an unacceptable and false notion. We will continue our study from this point onwards in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.