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रविवार, 28 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 152 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 34

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व्यावहारिक निहितार्थ – 4 

    परमेश्वर की कलीसिया के अंग होने और परमेश्वर की अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता में रखे जाने के कारण, प्रत्येक मसीही विश्वासी परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए इन प्रावधानों का भण्डारी भी है। परमेश्वर ने ये प्रावधान उसे इसलिए उपलब्ध करवाए हैं कि वह योग्य रीति से अपने मसीही जीवन को जी सके और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को पूरा कर सके। परमेश्वर के प्रावधान का भण्डारी होने, अर्थात जिस कलीसिया या मण्डली में परमेश्वर ने उसे रखा है, वहाँ परमेश्वर का भण्डारी होने के नाते, उसे प्रयास करने चाहिए कि वह उस कलीसिया या मण्डली के ठीक से कार्य करते रहने में सहायक बना रहे। इन व्यावहारिक निहितार्थों के आरंभिक लेख में हमने देखा था कि ऐसा करने का एक तरीका है कलीसिया में कोई भी दल या गुट बनाने वाली और विभाजन लाने वाली सभी बातों से विश्वासी को दूर रहना चाहिए, और ऐसी प्रत्येक प्रवृत्ति के उठने या उसके आगे बढ़ने को रोकना चाहिए। आज हम इसी से सम्बन्धित एक और बात पर ध्यान देंगे, अर्थात कलीसिया की बढ़ोतरी होने के प्रति विश्वासी की ज़िम्मेदारी, और फिर अगले लेख में हम उन कुछ मुख्य कारणों को देखेंगे जो कलीसिया की बढ़ोतरी में बाधा बनते हैं।

    परमेश्वर का वचन बाइबल हमें सिखाती है कि उन्नति या बढ़ोतरी होते रहना मसीही विश्वासी का एक गुण होना चाहिए; वे किसी एक स्थान पर आकर कभी रुक नहीं सकते हैं (भजन 92:12-14)। पवित्र आत्मा पौलुस में होकर, इफिसियों 4:15 में विश्वासियों से कहता है कि सब बातों में मसीह में बढ़ते चले जाएँ। बाइबल में शारीरिक बढ़ोतरी के सभी चरणों को रूपक के समान आत्मिक बढ़ोतरी के लिए भी उपयोग किया गया है। प्रत्येक मसीही विश्वासी एक नए जन्मे हुए शिशु के समान नया-जन्म लेता है, और फिर परमेश्वर के वचन के निर्मल आत्मिक दूध के द्वारा बढ़ना आरंभ करता है (1 पतरस 2:1-2)। नए जन्मे हुए शिशु से फिर वह बाल्यावस्था में आता है (1 कुरिन्थियों 3:1), फिर बालक होने से जवान, और फिर पिता होने तक पहुंचता है (1 यूहन्ना 2:12-13)। इसी दौरान, किसी स्तर पर उससे अपेक्षा रखी जाती है कि वह औरों को भी परमेश्वर का वचन सिखाने लायक परिपक्व हो जाएगा (इब्रानियों 5:12)।

    इसी प्रकार से कलीसिया भी एक क्रियाशील संरचना है, क्योंकि वह अभी भी निर्माणाधीन है (1 पतरस 2:5)। पौलुस में होकर पवित्र आत्मा इफिसियों 2:21 में कहता है कि सारी रचना एक साथ मिल कर प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती चली जा रही है। यह बढ़ोतरी या उन्नति प्रभु के आने तक दो कारणों से चलती ही रहेगी। पहला कारण है कि इस मन्दिर, प्रभु की कलीसिया का प्रत्येक अंग, जब तक कि वह इस पृथ्वी पर है, जैसा कि हमने ऊपर देखा है, आत्मिकता में बढ़ता और परिपक्व होता चला जाता रहेगा, इसलिए कलीसिया भी, जिसका वह अंग है आत्मिक रीति से क्रियाशील रहेगी, बढ़ती और परिपक्व होती रहेगी। दूसरी बात, प्रभु की कलीसिया में नए विश्वासी तब तक जोड़े जाते रहेंगे जब तक कि प्रभु के आगमन से पहले अंतिम न जोड़ दिया जाए। इसलिए दोनों कारणों से कलीसिया एक गतिशील संरचना रहेगी, निरन्तर सँख्या एवं गुणवत्ता में – गिनती तथा आत्मिकता में बढ़ती चली जाएगी, कभी किसी स्थान पर आकर रुक नहीं जाएगी।

    यह मसीही विश्वासियों को, कलीसिया के प्रत्येक अंग को, परमेश्वर द्वारा दी गई ज़िम्मेदारी है और उनके परमेश्वर की कलीसिया का भण्डारी होने का एक भाग है कि जिस स्थानीय कलीसिया में परमेश्वर ने उन्हें रखा है, उसकी उन्नति एवं बढ़ोतरी में योगदान करें, और यह उनके जीवन भर एक निरन्तर चलती रहने वाली बात होनी चाहिए। कलीसिया या मण्डली की यह बढ़ोतरी उसके सदस्यों की संख्या में, अर्थात, स्थानीय कलीसियाओं में नया-जन्म पाए हुए नए लोगों के जोड़े चले जाने, और साथ ही गुणवत्ता में, उन लोगों के आत्मिक स्तर में बढ़ते जाने के द्वारा दिखनी चाहिए; सदस्यों को अपनी सेवकाई में लगे रहना चाहिए, और प्रभु के लिए उपयोगी बने रहना चाहिए।

    कलीसिया की बढ़ोतरी और उन्नति परमेश्वर की ओर से होती है (कुलुस्सियों 2:19), और परमेश्वर की आशीषें उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने से आती हैं। इसलिए, परमेश्वर से यह बढ़ोतरी तब आएगी जब प्रत्येक अंग, अर्थात प्रत्येक सदस्य, अपनी ज़िम्मेदारी को निभाएगा (इफिसियों 4:16)। प्रत्येक के द्वारा उनकी निज ज़िम्मेदारी का निर्वाह और परमेश्वर द्वारा सौंपी गई सेवकाई को योग्य रीति से करना, व्यक्तिगत रूप में उस सदस्य पर तथा सामूहिक रूप में कलीसिया पर परमेश्वर की आशीष को लाता है, और उस सदस्य की तथा देह, अर्थात कलीसिया की बढ़ोतरी होती है।

    यदि कोई कलीसिया या मण्डली बढ़ नहीं रही है, या उसमें पर्याप्त उन्नति एवं बढ़ोतरी नहीं है, तो इसका अर्थ है कि उसके अंग, उसके सदस्य, अपनी जिम्मेदारियों को, अपनी सेवकाइयों को सही रीति से पूरा नहीं कर रहे हैं, और उनके मसीही जीवनों में कुछ गंभीर गड़बड़ी है। बढ़ोतरी में यह घटी विश्वासियों के जीवनों में कुछ कमियों के कारण हो सकती है, जिसे हम अगले लेख में देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Practical Implications – 4

    As members of God’s Church and having being placed in fellowship with God’s children, every Christian Believer is also God’s steward of these God given provisions. These provisions have been made available to him by God for worthily living his Christian life and fulfilling his God assigned ministry. As a steward of God’s provision, namely, being a steward of the Church where God has made him a member and placed him, he must make efforts to help in the proper functioning of the Church or Assembly. In the initial article on these practical implications, we have seen that one way of doing this is to stay away from all things that lead to factionalism and divisions in the Church, and try to stop any such tendency from occurring or developing any further. Today we will start looking at another related aspect, i.e. the Believer’s responsibility for the growth of the Church, and in the next article we will look at some main reasons that obstruct the growth of the Church.

    God’s Word the Bible teaches us that growth must be a characteristic of the Christian Believers; they cannot remain static at any point (Psalm 92:12-14). In Ephesians 4:15 the Holy Spirit through Paul says to the Believers to grow up in all things in the Lord Jesus. The Bible metaphorically mentions various stages of physical growth as stages of spiritual growth as well. Every Christian Believer is Born-Again as a spiritual infant, he feeds on the milk of God’s Word and grows thereby (1 Peter 2:1-2). From a new-born he grows up to be an infant (1 Corinthians 3:1), then to being a child, then a young person, going on to be a father (1 John 2:12-13). Somewhere along this process, it is expected of him to be mature enough to start teaching God’s Word to others also (Hebrews 5:12).

    Similarly, the Church too is a dynamic structure, since it is still under construction (1 Peter 2:5). The Holy Spirit through Paul says in Ephesians 2:21 that the whole building being joined together grows into a holy temple in the Lord. This growth will continue till the Lord comes, for two reasons. One is that every member of this temple, the Church of the Lord Jesus Christ, as we have seen above will continue to grow and mature spiritually, as long as he is on earth, therefore, the Church, of which he is a part will also remain dynamic and growing spiritually. Secondly, the Born-Again Believers will continue to be added to the Lord’s Church, till the last one is added before the Lord’s coming. Therefore, on both counts, the Church will remain a dynamic entity, continually growing in quantity as well as quality - numbers as well as spirituality, never static or stagnant at any point.

This is the God given responsibility of the Christian Believers, of every Church member, and it is a part of their stewardship towards the Church of God, to see that they all contribute towards the growth of the local Church where God has placed them, and this should be a continual process in their lives. This growth of the Church must be evident in its quantity, or, numbers - i.e., new saved Born-Again people being added to the local churches, as well as in quality through the growth in spiritual status of the members; the members must remain involved in fulfilling their ministry, and being useful for the Lord.

    The growth of the Church comes about because of the increase that comes from God (Colossians 2:19), and God’s blessings come with being obedient to Him. So, this increase from God will come about when every part, i.e., every member of the Church, does his share (Ephesians 4:16). The fulfilling of their respective responsibility and worthily carrying out their God assigned ministry by every individual member of the Church, leads to God’s blessings individually upon the members as well as collectively upon the Church, and causes the growth of the individual as well as of the whole body i.e., the Church.

    If a Church is not growing, or not growing adequately, that means its members are not fulfilling their responsibilities and ministry, and that there is something seriously wrong in their Christian lives. This lack of growth can be due to deficiencies in various aspects in the lives of the Believers, which we will see in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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