ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 154 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 36

Click Here for the English Translation


व्यावहारिक निहितार्थ – 6

 

    कलीसिया और कलीसिया में परमेश्वर के अन्य बच्चों के साथ सहभागिता रखने के बारे में मत्ती 16:18 से सीखने के बाद, हमने जो सीखा है, पिछले कुछ लेखों से उसके व्यावहारिक उपयोग के बारे में देखना आरंभ किया है। यह इसलिए आवश्यक है ताकि नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी उसे परमेश्वर द्वारा सौंपी गई परमेश्वर का भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी का योग्य रीति से निर्वाह कर सके। पिछले लेख से हमने उन बातों के बारे देखना आरंभ किया है जिनके कारण विश्वासी के आत्मिक जीवन तथा कलीसिया की उन्नति और बढ़ोतरी बाधित होती है। पिछले लेख में हमने ऐसी दो कमियों के बारे में देखा था – विश्वासियों द्वारा अपनी ज़िम्मेदारियों का सही रीति से निर्वाह नहीं करना, और उन से जिन्हें परमेश्वर के वचन की सेवकाई सौंपी गई है, कलीसिया तथा विश्वासियों को वचन की शिक्षाओं का सही, पर्याप्त, और नियमित पोषण नहीं मिलना। आज हम आगे बढ़ेंगे, और दो अन्य कमियों देखेंगे जो विश्वासियों तथा कलीसिया की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी में हानि लाती हैं।

3. सुसमाचार और परमेश्वर के वचन को नहीं बाँटना :

    इन परेशानियों से भरे अन्त के दिनों में तथा सँसार भर में प्रभु यीशु के शिष्यों पर निरन्तर बढ़ते हुए सताव के कारण, विश्वासी सामान्यतः सतर्क रहते हैं, और कोई जोखिम उठाने या मुसीबत को दावत देने से कतराते हैं। लेकिन कलीसिया का इतिहास यह दिखाता है कि कलीसिया सताव के समयों में ही अच्छे से बढ़ी है, मजबूत और स्थापित हुई है; और आराम के समयों में वह आलसी, दुर्बल, और शिथिल ही हुई है। साथ ही, यह तो संभव ही नहीं है कि विश्वासी किसी भी रीति से सताव से, अर्थात उसके मसीही विश्वास के लिए कभी-न-कभी परखे जाने से बच सके, वह चाहे अपने आप को कितना भी शान्त और अलग क्यों न रखे रहे। यह परमेश्वर के वचन की शिक्षा है कि सभी विश्वासियों को इस सँसार में दुःख उठाने ही पड़ेंगे (प्रेरितों 14:22; फिलिप्पियों 1:29; 2 तीमुथियुस 3:12); मसीही सेवकाई का अर्थ है दुःख-तकलीफ उठाना (2 तीमुथियुस 4:5); अपने प्रभु के समान महिमान्वित होने के लिए उसके समान सताव से होकर निकलना (रोमियों 8:17)। विश्वासियों का इन कष्टों से होकर निकलना, और दुःख उठाने का उद्देश्य है पाप करने की प्रवृत्ति से छूट जाना और शरीर की अभिलाषाओं के अनुसार नहीं, बल्कि परमेश्वर की इच्छा में होकर चलना सीखना (1 पतरस 4:1-2)।

    लेकिन परमेश्वर ने यह आश्वासन भी दिया है कि विश्वासी पर जो भी परीक्षा आएगी, वह परमेश्वर की अनुमति से ही होगी, उसके द्वारा निर्धारित की गई सीमाओं के अंतर्गत ही होगी, और उस परीक्षा के साथ ही प्रभु निकासी का मार्ग भी उपलब्ध करवाएगा (1 कुरिन्थियों 10:13)। इसलिए सुसमाचार तथा परमेश्वर के वचन को बाँटने के परमेश्वर के निर्देशों का पालन करने से क्यों डरना या घबराना?

4. कलीसिया में दल या गुट बनाने और विभाजन करना:

    हमें यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर ही कलीसिया में लोगों को जोड़ता है, कोई लोग नहीं (प्रेरितों 2:47); इसी लिए कलीसिया या संगति से अलग करने का अधिकार भी केवल परमेश्वर ही के पास है, किसी मनुष्य के नहीं (हम इसके बारे में कलीसिया में अनुशासन से संबंधित आने वाले लेखों में देखेंगे)। पहली कलीसिया के संदर्भ में, प्रेरितों 5:14 और 11:24 में कलीसिया में लोगों के जुड़ने को प्रभु में जुड़ना लिखा गया है। इसलिए, जिस भी विश्वासी को प्रभु ने अपनी कलीसिया में जोड़ा है, वह प्रभु में भी जोड़ दिया गया है; जो कि कलीसिया के प्रभु की देह और दुल्हन होने के रूपक के साथ सटीक बैठता है। इसलिए, व्यक्तिगत मतभेदों और कलह के कारण, कोई भी विश्वासी कलीसिया या मण्डली में किसी अन्य विश्वासी से न तो अपने आप को और न ही उस दूसरे को अलग कर सकता है; और न ही औरों को ऐसा करने के निर्देश दे सकता है – कोई भी कैसे अपने आप को या किसी और को प्रभु की देह और दुल्हन में से निकाल या अलग कर सकता है? किन्तु इस प्रकट सामान्य-समझ की बात के बावजूद भी कलीसिया के ऐसे अगुवे और प्राचीन हैं जो न केवल बाइबल के विपरीत इस धारणा का पालन करते, प्रचार करते, और सिखाते हैं, वरन दूसरों पर दबाव डालते हैं, उन्हें बाध्य करते हैं कि वे भी ऐसा ही करें; अर्थात व्यक्तिगत मतभेदों के कारण अन्य विश्वासी या विश्वासियों से अलग हो जाएँ या उन्हें अपने में से अलग कर दें! यह कलीसिया में गुट या दल बनाना और विभाजन करना है।

    इसलिए, जिन्हें परमेश्वर के वचन की सेवकाई सौंपी गई है, यदि उनके जीवन का उदाहरण कलीसिया या मण्डली में दल बनाने या विभाजन को प्रोत्साहित करता है, अर्थात लोगों के प्रभु के या कलीसिया के साथ नहीं बल्कि किसी समूह या व्यक्ति के साथ जोड़े जाने के लिए प्रोत्साहित करता है; और यदि कलीसिया या मण्डली में प्रभु के द्वारा जोड़े गए लोगों से अलग रहने या उन्हें अलग रखने के लिए कहा जाता है, यद्यपि उनकी कमियों और गलतियों के बावजूद प्रभु ने उन्हें कलीसिया या मण्डली से अलग नहीं किया है; अर्थात, यदि कलीसिया या मण्डली में अगुवों और प्राचीनों के द्वारा लाए गए और बना कर रखे गए दल और विभाजन हैं, तो फिर यह सर्वथा अपेक्षित ही है कि कुलुस्सियों 2:9 में कही गई परमेश्वर द्वारा दी जाने वाली बढ़ोतरी कलीसिया में देखने को नहीं मिलेगी; क्योंकि ऐसे में कलीसिया विभाजित हो रही है बढ़ नहीं रही है, उसमें से घटाया जा रहा है, उसमें जोड़ा नहीं जा रहा है, और मसीह के देह के कुछ अंगों को अलग किया, उन्हें उनका पोषण मिलने से रोका जा रहा है।

    चाहे लोग परमेश्वर से प्रार्थनाएं करते रहें कि कलीसिया में औरों को जोड़े, उसे बढ़ाए, लौटे हुओं को वापस लौटा लाए, किन्तु यदि लोगों के कलीसिया या मण्डली को छोड़ने और चले जाने के कारणों का गंभीरता से विश्लेषण करके कारणों की पहचान और निवारण नहीं किया जाएगा, यदि 2 शमूएल 14:14 के निर्वाह की अवहेलना की जाएगी, यदि उन्नति और बढ़ोतरी में बाधा के कारणों की पहचान नहीं की जाएगी, यदि परमेश्वर के भय और आज्ञाकारिता में ठोस सुधार कार्यान्वित नहीं किए जाएँगे, तो ये सारी प्रार्थनाएं अप्रभावी और अनुत्तरित ही रहेंगी, केवल सुनने वालों को सुनाने के लिए कही गई मात्र कहने भर की बात, एक औपचारिकता को पूरा करना ही रहेंगी। साथ ही विश्वासियों को, कलीसिया या मण्डली के सदस्यों को भी ध्यान करना चाहिए कि वे मनुष्यों के भय में नहीं बल्कि परमेश्वर के भय में अपनी जिम्मेदारियों का उचित रीति से निर्वाह करें। अन्यथा कलीसिया में उन्नति और बढ़ोतरी नहीं होगी, और विश्वासी कलीसिया के भले भण्डारी नहीं होंगे, उन्हें अपनी आशीषों की हानि उठानी पड़ेगी।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


Practical Implications – 6

 

Having learnt about the Church and fellowship with God’s children in the Church through Matthew 16:18, for the past few articles we have now started to look upon the practical applications of what we have learnt. This is necessary so that a Born-Again Christian Believer can fulfil his God given stewardship for these, worthily. Since the last article we are looking at deficiencies that obstruct the growth and development of the Believer’s spiritual life, as well as of the Church. In the last article we have seen two deficiencies, of Believers not fulfilling responsibilities properly, and of the Believers as well as the Church not receiving a proper, adequate, and regular nourishment of God’s Word through those entrusted with the ministry of God’s Word. Today we will carry on, and see two more deficiencies that bring loss in the Believer’s, as well as the Church’s spiritual life.

3. Deficiency in sharing the Gospel and God’s Word:

    In these troubling end-times and increasing world-wide persecution of the followers of the Lord Jesus, Believers are usually wary and fearful of sharing and preaching the gospel, not wanting to take any risks or invite trouble. But Church history shows us that the Church has always grown better and become stronger in times of and through persecution; and has become stagnant, weak, and lethargic in times of ease. Moreover, there is no way a Believer can avoid being persecuted, i.e., tested at some time or the other for his faith, no matter how silent and secluded he may keep himself. It is the teaching of God’s Word that the Believers will have to suffer in this world (Acts 14:22; Philippians 1:29; 2 Timothy 3:12); Christian ministry will mean enduring afflictions (2 Timothy 4:5). It is assigned for the Believers so that they can have rich treasures in heaven (2 Corinthians 4:17); to be glorified like their savior Lord, they have to suffer like Him (Romans 8:17). This suffering is meant to make the Believers cease from sin, stop living in the lusts of the flesh, and start living by the will of God (1 Peter 4:1-2).

    But God has also given the assurance that any testing that will come upon the Believers, will be by the permission of the Lord and within the limits set by Him; and along with that suffering the Lord will also provide a way out (1 Corinthians 10:13). Therefore, why be afraid and fearful of following God's instructions of sharing His Word and the gospel?

4. Deficiency because of Factionalism:

    We need to remember, that it is God who added to the Church (Acts 2:47), and not the people; therefore, the authority to put someone away from the Church or fellowship also rests with only the Lord, and not with any man (we will see more about this in the coming articles on Church discipline). In the first Church, people being added to the Church have been stated as being added to the Lord Acts 5:14; 11:24. Hence, any Believer whom the Lord has added to His Church, has also been added to the Lord; which also goes along with the metaphors of the Church being the body and the bride of the Lord. Therefore, due to personnel differences and discord, no Believer can disassociate himself from the other Believers in the Church or Assembly, or ask others to do this – how can anyone separate himself or another out of the Lord’s body or of the Lord’s bride? But despite this common-sense understanding, there are Church leaders and Elders who not only practice, preach, and teach this unBiblical concept, but at times even pressurize or compel others to do so; i.e., they separate away from some other Believers because of personal differences and ask, or even compel, others to do the same! This is forming and encouraging factionalism and divisions in the Church.

    So, if the ministry and example of the life of those entrusted with the ministry of God’s Word is such that it encourages people in the Church of the Lord for factionalism, i.e., encourages them to be added to a particular group of followers of a person, instead of being added to the Lord, to the Church; and if people are asked or encouraged to stay away from some other Believers in the Church whom the Lord had added and has not cast away despite their short-comings; i.e., if there are divisions in the Church, promoted and maintained by God’s ministers, then it is only to be expected that God’s growth of Colossians 2:19 will not happen in the Church; because then the Church is dividing not multiplying; subtracting, not adding, parts of the body of Christ are being separated and denied nourishment.

    So, if the Church is not growing in quality and quantity; if God is not sending/adding new members into the Church, and/or even the existing ones are going away, it is an indicator that there is something seriously wrong in the ministry of God’s Word, in the lives and practices of the Elders and leaders of the Church, and in the managing and functioning of the Church. Not just the Elders, but the whole congregation should pray and ponder over this, introspect about it and correct the deficiencies that God Shows.

    While people may keep praying for God to add to the Church, to make it grow, and to bring back those who have gone away, but if there is no serious effort of identifying and correcting the reason of people leaving and staying away from the Church, if fulfilling of 2 Samuel 14:14 is ignored, if identification of the reasons of this lack of growth is not done, and if taking of concrete remedial actions in the fear and guidance of God is not done, then all such prayers will remain ineffective and unanswered, will remain something to be said and a formality to be fulfilled for the sake of the listeners. The Believers, the Church members, on their must also make sure that they are doing what they are supposed to be doing in the fear of God, not man; else the Church will not grow, and the Believers will be poor stewards of the Church, will suffer loss of their blessings.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें