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व्यावहारिक निहितार्थ – 7
हम देख चुके हैं कि प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, परमेश्वर ने उसे जहाँ रखा है, वहाँ पर परमेश्वर के प्रावधानों का भण्डारी भी है, हमारे वर्तमान संदर्भ में कलीसिया या मण्डली तथा परमेश्वर की अन्य संतानों के साथ सहभागिता रखने का भी भण्डारी है। क्योंकि वह इसके लिए परमेश्वर को उत्तरदायी है, इसलिए उसे अपने इस भण्डारीपन का निर्वाह, उसमें निवास करने वाले पवित्र आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन, तथा इसके लिए उसे प्रदान किए गए पवित्र आत्मा के वरदान के द्वारा, उचित रीति से करना चाहिए। पिछले कुछ लेखों से हमने जो कुछ कलीसिया और अन्य विश्वासियों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीखा है, हम उसके व्यावहारिक उपयोग के बारे में देख रहे हैं। विश्वासियों के तथा कलीसिया या मण्डली के आत्मिक जीवन की बढ़ोतरी में आने वाली बाधाओं के बारे में विचार करते हुए हमने देखा है कि दो बाधाएँ परमेश्वर के वचन की सेवकाई से संबंधित हैं। एक तो परमेश्वर के वचन को अपने में लेने से संबंधित है – यह मात्रा तथा गुणवत्ता, दोनों में पर्याप्त होना चाहिए; अर्थात, जो वचन दिया जा रहा है, वह शुद्ध होना चाहिए, न कि मनुष्यों की धारणाओं और विचारों की मिलावट के साथ हो; तथा उसे नियमित रूप से और पर्याप्त मात्रा में दिया जाना चाहिए। और दूसरी थी, सुसमाचार तथा परमेश्वर के वचन को औरों के साथ न बाँटना। आज, तथा अगले लेख में हम बाइबल में से परमेश्वर के वचन की सेवकाई से संबंधित कुछ गुणों को देखेंगे जो विश्वासियों तथा कलीसिया, दोनों की बढ़ोतरी को सुनिश्चित करते हैं।
हम कलीसिया के इतिहास से जानते हैं कि प्रथम शताब्दी में कलीसिया का सबसे अधिक तेजी से और सारे सँसार में प्रसार हुआ और उन्नति भी हुई। और यह तब, जब उनके पास लिखित रूप में परमेश्वर का वचन, विशेषकर नया नियम – जो उस समय लिखा जा रहा था, था ही नहीं। शिक्षाएँ मुख्यतः प्रेरितों के द्वारा मौखिक दी जाती थीं, या कुछ पत्रियों के द्वारा, जो किसी व्यक्ति अथवा कलीसिया को लिखी जाती थीं और आस-पास की कलीसियाओं में घुमा कर वहाँ भी पढ़ी-सुनाई जाती थीं। किन्तु प्रेरितों के द्वारा प्रचार किए जा रहे इस परमेश्वर के वचन में एक बात थी – वह परिशुद्ध था, अर्थात, जैसा उन्हें प्रभु या पवित्र आत्मा से मिला था (1 कुरिन्थियों 11:23; 15:3; गलतियों 1:11-12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:2; 1 यूहन्ना 1:5), उसे वैसा ही, बिना उसमें उनकी अपनी बुद्धि के विचार और बातों को मिलाए (2 कुरिन्थियों 4:1-2, 5), बाँट दिया जाता था, और इसीलिए वह इतना प्रभावी था। यदि वही वचन जिसने उस समय कलीसिया की इतनी बढ़ोतरी और उन्नति की थी, उसी तरह से आज दिया जाए, तो निश्चय ही उसका वही प्रभाव होगा जो उस समय हुआ था।
यह तर्क कोई मन-गढ़न्त बात नहीं है। हम परमेश्वर के वचन से देखते हैं कि यह परमेश्वर के वचन के प्रचार के द्वारा ही था कि कलीसियाएं दृढ़ हुईं और बढ़ीं (प्रेरितों 4:4; 6:7; 16:4-5; 12:24; 19:20)। कलीसियाओं की बढ़ोतरी के इस आरंभिक चरण में, वचन के मुख्य शिक्षक और प्रचारक प्रेरित तथा प्रभु यीशु के अन्य शिष्य थे। वे प्रभु के प्रति पूर्णतः और खराई से समर्पित थे और अपनी सेवकाई पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में करते थे। वह वचन जो पवित्र आत्मा से उन प्रेरितों तथा अगुवों में होकर आता था, उसके द्वारा यह बढ़ोतरी और उन्नति होती थी (प्रेरितों 16:4-5)। उस समय भी ऐसे लोग थे जो अपने ही विचारों, व्याख्याओं, और धारणाओं को परमेश्वर का वचन कहकर प्रचार करते थे (मत्ती 15:8-9; 2 कुरिन्थियों 2:17; 11:13-15), किन्तु उस से कभी भी कलीसिया या विश्वासियों की बढ़ोतरी अथवा उन्नति में कोई योगदान नहीं मिला, और बाइबल में उसकी भर्त्सना की गई है।
बाइबल हमें विश्वासियों तथा कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी और उन्नति के लिए तीन तरह की शिक्षाओं के बारे में बताती है। जिन्हें परमेश्वर के वचन की सेवकाई सौंपी गई है, उन्हें इसका ध्यान करना चाहिए और अपनी सेवकाई को, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, इन के अनुसार स्वरूप देना चाहिए। ये तीन प्रकार हैं:
पहली, सुसमाचार: प्रभु की सेवकाई के लिए, शिष्यों को करने के लिए कही गई प्राथमिक बात थी सुसमाचार का प्रचार (मत्ती 28:19; मरकुस 16:15; लूका 24:46-48; प्रेरितों 1:8)। पौलुस ने, कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी अपनी पत्री, जिसमें उसने उनकी अनेकों गलतियों और कमियों को उजागर किया और उनके निवारण का उपाय बताया, के समापन पर आते हुए उन्हें फिर से सुसमाचार का स्मरण करवाया – 1 कुरिन्थियों 15:1-4। दूसरे शब्दों में, सुसमाचार केवल लोगों को उद्धार तक लाने के लिए ही नहीं है, वरन वह व्यक्तिगत तथा कलीसिया के जीवन में सभी समस्याओं का उपाय भी प्रदान करता है। तात्पर्य यह कि यदि विश्वासी बारंबार अपने जीवन, अपनी मान्यताओं, व्यवहार, उसे मिलने वाली शिक्षाओं, आदि को सुसमाचार के समक्ष लाकर, उन बातों का आँकलन करता है, तो वह सही और गलत की पहचान करने पाएगा, और भटकाएगा नहीं जा सकेगा। ऐसी कोई भी बात जो उसे प्रभु यीशु की शिक्षाओं से अलग ले जाती है, उनमें कुछ जोड़ती है या उनमें से कुछ हटाती है, और लोगों को क्रूस पर दिए गए प्रभु के बलिदान तथा उसके मृतकों में से पुनरुत्थान के अतिरिक्त अन्य किसी भी बात पर विश्वास करवाती है, वह गलत शिक्षा है, और उसे न तो स्वीकार किया जाना चाहिए और न ही उसका पालन किया जाना चाहिए; वह चाहे कितनी भी भक्तिपूर्ण, तर्कसंगत, और आकर्षक क्यों न लगे, और उसका निर्वाह करने, प्रचार करने, और सिखाने वाला चाहे कोई भी क्यों हो।
दूसरी, आरंभिक शिक्षाएँ: इब्रानियों का लेखक, इब्रानियों 5:12 में लिखता है कि उसके पाठक इस हद तक पीछे हट चुके थे कि उन्हें परमेश्वर के वचन की आदि शिक्षा को फिर से सिखाने की आवश्यकता हो गई थी। फिर वह इब्रानियों 6:1-2 में उन छः आरंभ की बातों को बताता है, जिन्हें वह शिक्षा रूपी नेव कहता है, और इसलिए ये हैं वे बातें जिन्हें कलीसियाओं में सिखाए जाने की आवश्यकता है। ये छः बातें हैं: 1. मरे हुए कामों से मन फिराना, 2. परमेश्वर पर विश्वास करना, 3. बपतिस्मों, 4. हाथ रखना, 5. मरे हुओं के जी उठना, 6. अन्तिम न्याय। इन सिद्धांतों से संबंधित शिक्षाओं को भूल जाने का वही परिणाम होगा जो इब्रानियों के लेखक ने कहा है – विश्वासी अपने आत्मिक जीवन में पिछड़ जाएँगे, और इस कारण कलीसिया भी पिछड़ जाएगी।
तीसरी, मसीही जीवन से संबंधित: सभी विश्वासियों के लिए कुछ निर्देश, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, यरूशलेम में प्रेरितों और अगुवों के द्वारा निर्धारित और स्थापित किए गए थे (प्रेरितों 15:28-31); ये थे, “तुम मूरतों के बलि किए हुओं से, और लहू से, और गला घोंटे हुओं के मांस से, और व्यभिचार से, परे रहो। इन से परे रहो;” ये सभी कलीसियाओं के पालन के लिए थे, और उन्हें पहुँचाए गए, तथा इनके पालन से कलीसियाओं में उन्नति हुई (प्रेरितों 16:4-5)।
यह कलीसियाओं के अगुवों की, तथा उनकी जिन्हें वचन की शिक्षा देने की सेवकाई सौंपी गई है, की ज़िम्मेदारी है कि वे यह देखें कि ये तीनों तरह की बातें प्रत्येक विश्वासी को, नया हो या पुराना, और कलीसिया को सिखाई तथा याद दिलाई जाएँ। जैसे कि आरंभिक बातों के संदर्भ में इब्रानियों 5:11-14 में लिखा गया है, इन नेव समान आरंभिक सिद्धांतों को न जानना या भूल जाना, आत्मिक परिपक्वता को हानि पहुँचता है, विश्वासियों को “ऊँचा सुनने” वाला बना देता है, और ठोस आत्मिक भोजन लेने के अयोग्य कर देता है। अगले लेख में हम परमेश्वर के वचन की सही अनिवार्य शिक्षा से संबंधित कुछ और बातें देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Practical Implications – 7
We have seen that every Born-Again Christian Believer is also God’s steward of the provisions of God, for our current context of the Church or Assembly and of fellowshipping with other God children, where God has placed him. Since he is accountable to God for it, therefore, he must fulfill his stewardship worthily, with the help and guidance of God’s Holy Spirit residing in him, and the gifts that the Holy Spirit has given to him for this. For the last few articles, we are seeing the practical implications or what we have learnt about the Church and fellowshipping with other Believers. While considering the obstructions in the spiritual growth or the Believers and of the Church or the Assembly, we have seen two of the obstructions are related to the ministry of God’s Word. One was related to feeding upon God’s Word – it should be adequate, both in quality as well as quantity, i.e., the Word being given out should be pure, and unadulterated by man’s concepts and ideas; and it should be taught and received regularly, and in proper amounts. And the second was not sharing the gospel and God’s Word with others. Today and in the next article, we will look at some features of the ministry of God’s Word from the Bible, that ensure growth of the Believers and the Church.
We know from Church history that in the first century, the Church grew very rapidly all over the world; although they did not have the written Word of God, particularly the New Testament – which was still being written. Primarily, the teachings were done by the Apostles orally, and through some letters written to individuals or some of the Churches, and circulated around to be read and heard there. But there was one thing about this Word of God being preached and taught by the Apostles – it was pure, i.e., as they had received I from the Lord or from the Holy Spirit (1 Corinthians 11:23; 15:3; Galatians 1:11-12; 1 Thessalonians 4:2; 1 John 1:5), and was delivered unadulterated by their own thoughts and wisdom (2 Corinthians 4:1-2, 5), and therefore it was so effective. If the same Word that caused the Church to grow and improve at that time, is ministered in the same manner as it was done at that time, it surely will have the same effect as it had in the first Church.
This is argument not mere conjecture. We see from God's Word that it was through the preaching of the Word of God, that the Churches were strengthened and grew (Acts 4:4; 6:7; 16:4-5; 12:24; 19:20). In this initial phase of Church growth, the main teachers and preachers of the Word were the Apostles and other disciples of Christ. They were sincerely committed to be obedient to the Lord and carrying on their ministry under the guidance of the Holy Spirit. It was this Word that came through the Apostles and Elders under the guidance of the Holy Spirit that caused this growth (Acts 16:4-5). Even at that time, there were people who preached their own thoughts, interpretations, and ideas as God's Word (Matthew 15:8-9; 2 Corinthians 2:17; 11:13-15), but it never contributed in any way to the spiritual growth and development of the Believers or of the Churches, and has been denounced in the Bible.
The Bible gives us three Categories of Teachings for the spiritual growth and progress of the Believers and the Church. Those entrusted with the ministry of sharing God’s Word should take note and model their ministry accordingly, under the guidance of the Holy Spirit. These three categories are:
First, the Gospel: Preaching the gospel was the basic thing that the disciples of the Lord Jesus were told to do in their ministry for the Lord (Matthew 28:19; Mark 16:15; Luke 24:46-48; Acts 1:8). Paul in concluding his first letter to Corinthians, in which he pointed out their numerous short-comings and errors, and showed them how to correct those errors, towards the conclusion of his letter, brought them back to the gospel - 1 Corinthians 15:1-4. In other words, the gospel is not meant only to bring people to salvation, but it is also the panacea for all problems in personal and Church life. The implication is that if the Believers learn to repeatedly evaluate their lives, beliefs, practices, teachings they have received, etc., against the gospel, they will also learn to identify the right from the wrong, and will not be led astray. Anything that leads them astray from the Lord Jesus’s teachings, adds to them or takes away from them, and makes them trust in anything other than the Lord’s sacrifice on the Cross and His resurrection from the grave, is a wrong teaching; and is not to be accepted or followed, no matter how pious, logical, and attractive it may seem, and no matter who practices, preaches, and teaches it.
Second, the Basic Principles: The author of Hebrews says in Hebrews 5:12 that his audience had deteriorated to the point that they required the basic principles be taught again to them. Then in Hebrews 6:1-2 he mentions the six basic topics, the elementary principles, he calls them foundational teachings, therefore they are those that should be taught in the churches. These six are: 1. Repentance from dead works; 2. Faith towards God, 3. Doctrine of Baptisms, 4. Laying on of hands, 5. Resurrection of dead, 6. Eternal judgement. Forgetting the teachings related to these principles, will produce the same effect as the author of this letter to Hebrews has mentioned – Believers will deteriorate in their spiritual lives, and therefore, the Church will also deteriorate.
Third, regarding Christian living: Some instructions for all the Believers, were determined and established by the Apostles and Elders of Jerusalem under the guidance of the Holy Spirit (Acts 15:28-31); namely, “abstain from things offered to idols, from blood, from things strangled, and from sexual immorality”. They were meant for all the Churches, were delivered to the Churches, and obeying them resulted in the growth of the Churches (Acts 16:4-5).
It is the responsibility of the Church Elders and those entrusted with the ministry of teaching God’s Word to see that teachings of these three categories are taught and reminded to every Believer, new and old, and to the Church. As it is written in context of the basic principles, in Hebrews 5:11-14, not knowing, or forgetting these foundational Biblical teachings, leads to deterioration of spiritual maturity, makes the Believers “dull of hearing,” and unable to take in solid spiritual food. In the next article, we will see some more aspects of the necessary proper teaching of God’s Word.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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