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पाप का समाधान - उद्धार - 14
मनुष्य की अनाज्ञाकारिता के कारण पाप के संसार में प्रवेश के समाधान के बारे में देखते हुए, अभी तक हम देख चुके हैं कि:
क्योंकि पाप का प्रवेश मनुष्य के द्वारा हुआ, उसका समाधान भी मनुष्य में होकर ही होना था।
पाप के कारण मृत्यु जगत में आई; पाप के समाधान के द्वारा मृत्यु का यह प्रभाव मिटाया जाकर मनुष्य को वापस उस स्थिति में लाया जाना था जो अदन की वाटिका में पाप से पहले उसकी थी।
इसके लिए यह आवश्यक था कि कोई ऐसा निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, सिद्ध मनुष्य हो जो पाप के कारण आई मृत्यु को स्वयं सह ले, और मनुष्यों पर से मृत्यु की पकड़ को मिटा दे। यदि मृत्यु को सहने वाले मनुष्य में अपना कोई पाप, या पाप का कोई दोष अथवा अंश होता, तो फिर वह उस मृत्यु को केवल अपने ही लिए सह सकता था, दूसरों को उसके लाभ प्रदान नहीं कर सकता था।
इस कारण पृथ्वी पर जन्म लेने वाले मनुष्यों की सामान्य प्रणाली के अनुसार जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य इसके अयोग्य ठहरता, क्योंकि सभी पाप-दोष के साथ जन्म लेते हैं। इस संदर्भ में हमने पिछले दो लेखों में देखा कि कैसे प्रभु यीशु मसीह ने मनुष्यों के जन्म की सामान्य प्रणाली के द्वारा नहीं, वरन एक विशेष रीति से मनुष्य की देह में जन्म लिया और कोख में आने से लेकर क्रूस पर उनकी मृत्यु के समय तक एक पूर्णतः निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, और सिद्ध जीवन बिताया। न उनके जीवन काल में, और न तब से लेकर अब दो हज़ार वर्षों से भी अधिक के अंतराल में, कोई उनके जीवन में कोई भी पाप नहीं दिखा सका, उनमें पाप का दोष होने को प्रमाणित नहीं कर सका।
अदन की वाटिका में पाप और मृत्यु ने मनुष्य की अनाज्ञाकारिता के द्वारा प्रवेश किया; और इस अनाज्ञाकारिता का कारण था मनुष्य का परमेश्वर की उनके लिए भली मनसा और योजनाओं पर संदेह करना था। मनुष्य के जीवन से पाप और मृत्यु का मिटाया जाना इस अनाज्ञाकारिता की प्रक्रिया को उलट देने से होना था। साथ ही इस आज्ञाकारिता के लिए मनुष्य को अपने जीवन पर्यंत, बिना परमेश्वर की किसी भी बात के लिए उस पर संदेह अथवा अविश्वास किए, स्वेच्छा से तथा भली मनसा के साथ परमेश्वर की पूर्ण आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करना था।
शैतान ने उनके जन्म से पहले से लेकर, उनकी मृत्यु के समय तक उनके द्वारा यह कार्य संपन्न होने से रोकने का प्रयास करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी:
इसे समझने के लिए मत्ती 1:18-21 देखिए। जब प्रभु के सांसारिक पिता कहलाए जाने वाले व्यक्ति यूसुफ को पता चला कि उसकी मंगेतर मरियम, जिसमें होकर प्रभु यीशु ने जन्म लेना था, गर्भवती है, तो उसने उसे चुपके से छोड़ देने की योजना बनाई। उन दिनों में, मूसा द्वारा मिली व्यवस्था के अनुसार, व्यभिचार के दोषी को पत्थरवाह करके मार डाला जाता था (यूहन्ना 8:4, 5)। यदि यूसुफ मरियम को छोड़ देता, तो या तो उसके विवाह से पहले गर्भवती होने की बात खुल जाने पर मरियम को पत्थरवाह करके मार डाला जाता; या फिर मरियम त्यागी हुई स्त्री के समान अकेले ही समाज से तिरस्कृत जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाती, और प्रभु भी जन्म के समय से ही तिरस्कृत और अपमानित, तथा समाज में अस्वीकार्य रहता; इस बात के लिए प्रभु को बाद में भी लोगों के ताने सुनने पड़े (यूहन्ना 8:41)। दोनों में से जो भी परिस्थिति कार्यान्वित होती, प्रभु का उद्धार का कार्य, आरंभ होने से पहले ही समाप्त हो जाता। किन्तु क्योंकि परमेश्वर के संदेश को सुन और मानकर यूसुफ ने मरियम को अपना लिया, शिशु यीशु को अपना नाम और परिवार दिया, इसलिए शैतान की यह योजना विफल हो गई।
प्रभु के जन्म के बाद, हेरोदेस राजा ने दो वर्ष की आयु से कम के बच्चों को मरवाने की आज्ञा देकर प्रभु को शिशु-अवस्था में ही मरवा डालने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहा (मत्ती 2:13-16)।
प्रभु यीशु के वयस्क हो जाने और सेवकाई के आरंभ करने के समय वह लगातार चालीस दिन तक शैतान द्वारा परखा गया (लूका 4:1)। जब शैतान उसे पाप में नहीं गिरा सका, तो “कुछ समय के लिए” (लूका 4:13) उसके पास से चला गया, किन्तु उसकी सारी सेवकाई भर लोगों, विशेषकर धर्म के अगुवों और धर्म-गुरुओं को उसके विरुद्ध भड़काता रहा, उसकी सेवकाई में बाधाएं डालता रहा।
धर्म-गुरुओं के षड्यंत्र के अंतर्गत (यूहन्ना 11:47-50), अन्ततः यीशु को पकड़ कर, रोमी गवर्नर पिलातुस को बाध्य कर के, प्रभु यीशु को क्रूस पर मार डाला गया।
क्रूस की अवर्णनीय पीड़ा सहते हुए भी, वहाँ पर भी उसका ठट्ठा उड़ाया जाना ज़ारी रहा (मत्ती 27:41; लूका 23:36); किन्तु प्रभु ने कोई अपशब्द नहीं कहा, या दुर्भावना नहीं रखी, वरन अपने सताने वालों की क्षमा की प्रार्थना ही की; कोई पाप नहीं किया (लूका 23:34)।
उसे क्रूस पर से उतर आने का प्रलोभन दिया गया, इस आश्वासन के साथ कि यदि वह ऐसा करेगा, तो वे लोग उस पर विश्वास कर लेंगे (मत्ती 27:40, 42)। यदि उनकी बात मानकर प्रभु क्रूस पर से उतर आता, तो बलिदान का कार्य अधूरा रह जाता, और असफल हो जाता।
शैतान ने सोचा होगा कि अब यह प्रभु का अंत है; अब शैतान को रोकने वाला कोई नहीं रहा। किन्तु तीसरे दिन प्रभु यीशु के पुनरुत्थान ने उसकी सारी संतुष्टि और योजनाओं पर पानी फेर दिया। तब प्रभु के पुनरुत्थान के बाद भी शैतान ने प्रभु के पुनरुत्थान को ही झूठा ठहराने का षड्यंत्र कार्यान्वित कर दिया (मत्ती 28:13-15)।
किन्तु शैतान की हर चाल को प्रभु ने विफल किया, और दिखा दिया कि मानव-देह में शैतान की युक्तियों, प्रलोभनों, और परीक्षाओं का सामना करने, और उसे पराजित करने की क्षमता है। शैतान के इन सभी प्रयासों ने परमेश्वर के कार्य को बाधित करने के स्थान पर और अधिक प्रबल कर दिया। शैतान के ये प्रयास परमेश्वर के वचन में दी गई प्रभु यीशु से संबंधित भविष्यवाणियों को पूरा और प्रमाणित करने वाले तथ्य बन गए; प्रभु परमेश्वर की महिमा के, उसके सत्य के सदा जयवन्त रहने के उदाहरण बन गए। हम प्रभु द्वारा परमेश्वर की आज्ञाकारिता के विषय आगे अगले लेख में देखेंगे।
जिस प्रभु ने मानव देह में होकर यह दिखा दिया कि मनुष्य परमेश्वर की आज्ञाकारिता में रहते हुए, परमेश्वर की सहायता से शैतान का सामना कर सकता है, उसे पराजित कर सकता है, वही प्रभु परमेश्वर अपने शिष्यों को अपने पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से भर देता है, परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रभु यीशु के शिष्यों में उसी पल से आकर बस जाता है जब वे पापों से पश्चाताप करते हैं और अपने जीवन प्रभु को समर्पित कर देते हैं (इफिसियों 1:13-14)। प्रभु के साथ तथा पवित्र आत्मा की सहायता एवं मार्गदर्शन से हम मनुष्य भी शैतान पर जयवंत हो सकते हैं। क्या आपने प्रभु के इस अद्भुत उपहार को पा लिया है? यदि आप ने अभी भी उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
एक साल में बाइबल:
- 2 इतिहास 13-14
- यूहन्ना 12:1-26
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The Solution for Sin - Salvation - 13
Looking at the entry of sin into the world because of man's disobedience, its effects, and the solution, so far, we have seen that:
- Because sin entered through man, the solution was also to come through man.
- Death came into the world because of sin; therefore, the solution of sin had to eradicate this effect of sin, death; and man had to be brought back into the condition he was in before sinning, in the Garden of Eden.
- It required that there be a sinless, blameless, holy, perfect man who himself would suffer the death that had come upon mankind because of sin, and deliver man out the hold that death had over him. If the man who would suffer death had any sin, or even a minute guilt of sin, then he would suffer that death only for himself, and would not be able give any benefits to anyone.
- Every man born according to the general manner of human beings on earth, is disqualified from being the perfect sacrifice, because all humans are born with sin-nature that is present in them since their conception. In this context, we have seen in the last two articles how the Lord Jesus Christ was conceived; how He was brought into the world through a special body created for Him, which did not come into existence according to the general natural manner of human conception; but He was born like any other human being, and lived a completely sinless, spotless, holy, and perfect life, from the time of His coming into the womb until the time of his death on the cross. Neither during His lifetime, nor in the more than two thousand years since then, no one has been able to show any sin, nor could anyone ever prove the guilt of any sin in His life.
- Sin and death entered the Garden of Eden because of the disobedience of man; And the reason for this disobedience was man's doubting God's good intentions and plans for him. The effects of sin and death could only be reversed and removed out of man's life by reversing the reasons and process of man’s disobedience and giving entry to sin and death. Just as man willingly disobeyed God, similarly, to reverse the process, man had to willingly agree to live in complete obedience to God throughout his life, without doubting or disbelieving God for anything that God said or asked him to do.
From today we will see about the Lord Jesus Christ fulfilling this condition of complete obedience to God. It is not that since the Lord Jesus was the Son of God, since He was fully God and fully man, therefore living this life of obedience to God was easy and simple for Him. In His human form, the Lord Jesus also had to suffer a lot; He had to go through trials and hardships for being obedient. It is written in God's Word, the Bible, regarding the obedience of the Lord Jesus that, “who, in the days of His flesh, when He had offered up prayers and supplications, with vehement cries and tears to Him who was able to save Him from death, and was heard because of His godly fear, though He was a Son, yet He learned obedience by the things which He suffered. And having been perfected, He became the author of eternal salvation to all who obey Him” (Hebrews 5:7-9); and “...but was in all points tempted as we are, yet without sin” (Hebrews 4:15).
Satan left no stone unturned to try to prevent him from completing this work, even from before his birth until the time of his death:
- See Matthew 1:18-21 to understand this. When Joseph, the man called the earthly father of the Lord, learned that his fiancée Mary, through whom the Lord Jesus was to be born, was pregnant, he planned to leave her quietly. In those days, according to the Law given by Moses, the woman found guilty of adultery was stoned to death (John 8:4, 5). If Joseph had left Mary, then either Mary would have been stoned to death when it would have become evident that she was pregnant before her marriage; or Mary would have been compelled to live a life being cast-away from society, all alone. Therefore, like His lonely and forsaken mother, the Lord would also have been despised and rejected from the time of His birth, and become unacceptable to the society. For this, even later on, the Lord had to listen to people's taunts (John 8:41). If any of these two conditions got implemented, the Lord's work of salvation of mankind would have ended before it even began. But because after hearing and obeying God's message Joseph accepted Mary, gave his name and family to the infant Jesus, Satan's ploy failed.
- After the Lord's birth, the King Herod attempted to kill the Lord in His infancy, by ordering the killing of all children under the age of two, but failed (Matthew 2:13-16).
- When the Lord Jesus' became an adult and was to begin His ministry, He was continually tested by Satan for forty days (Luke 4:1). When Satan could not make Him sin, he went away from Him, "until an opportune time" (Luke 4:13), but throughout His ministry continued to provoke people, especially the religious leaders and teachers, against him, attempting to obstruct His ministry, one way or another.
- Under the machination of the religious leaders (John 11:47-50), the Lord Jesus was caught and crucified, by forcing the Roman governor Pilate to order putting Him to death.
- Even though He was enduring the indescribable pain of the cross, He was further tormented by being mocked there too (Matthew 27:41; Luke 23:36); But the Lord did not utter any harsh words or profanity, nor did He have any ill-will against His tormentors, but He prayed for the forgiveness of those who persecuted Him; in that situation too, He committed no sin (Luke 23:34).
- He was tempted to come down from the cross, with the assurance that if He did, they would believe in Him (Matthew 27:40, 42). If the Lord had listened to them and come down from the cross, the work of His sacrifice would have remained incomplete, and would have failed.
- Satan must have thought that now this is the end of the Lord; There is no one to left stop him now. But on the third day, the resurrection of the Lord Jesus turned the tide on all His satisfaction and plans. Even after the Lord's resurrection, Satan immediately implemented a plot to falsify the Lord's resurrection (Matthew 28:13-15).
But the Lord not only thwarted every move of Satan, but He also showed that the human body has the ability to withstand, and defeat, Satan's machinations, temptations, and trials. All of these efforts of Satan only made God's work more effective instead of hindering it. These efforts of Satan became facts fulfilling and attesting to the prophecies concerning the Lord Jesus given in God's Word; they became a means of bringing Glory to the Lord God, and became examples of the eventual and everlasting triumph of Truth. We will continue to look at this subject of the Lord's obedience to God in the next article too.
The Lord Jesus in the human flesh has shown that man, by being obedient to God, can face and overcome Satan with the help of God. The same Lord God today fills His disciples with the power of His Holy Spirit. God the Holy Spirit comes and resides in the disciples of the Lord Jesus from the moment they repent of their sins and submit their lives to the Lord (Ephesians 1:13-14). With the presence of the Lord by our side, and with the help and guidance of the Holy Spirit living in us, we human beings can also conquer Satan, once we decide to become His disciples and live in obedience to Him. Have you asked for and received this wonderful gift of being His disciple from the Lord? If you have still not done so, if you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
- 2 Chronicles 13-14
- John 12:1-26
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