Click Here for the English Translation
मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 4
मसीही जीवन के सात कदम - 1
परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी पर हमारे बाइबल अध्ययन के इस खण्ड में, वर्तमान में हम बाइबल की शिक्षाओं की तीसरी श्रेणी के बारे में देख रहे हैं, जो मसीही विश्वासियों और कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी के लिए आवश्यक हैं। हम देख चुके हैं कि आत्मिक बढ़ोतरी और भक्ति के जीवन के लिए आवश्यक शिक्षाएँ पूरी बाइबल में स्थान-स्थान पर दी गई हैं। लेकिन बाइबल में दो ऐसे स्थान हैं जहाँ पर यह विशेषतः दिखाया गया है कि वहाँ दी गई शिक्षाओं का पालन करने से विश्वासियों और कलीसिया में बढ़ोतरी हुई। इन दो स्थानों में से पहला है प्रेरितों के काम का 2 अध्याय, और दूसरा स्थान प्रेरितों के काम का 15 अध्याय है। इसलिए हम अपने ध्यान को मुख्यतः इन दोनों स्थानों में दी गई बाइबल की शिक्षाओं पर केंद्रित रखेंगे। ऐसा इसलिए नहीं है कि केवल यही शिक्षाएँ आवश्यक हैं; और न ही इसलिए कि ये शिक्षाएँ अन्य शिक्षाओं से अधिक महत्वपूर्ण हैं, और इन्हें छोड़ बाइबल की शेष शिक्षाओं को वैकल्पिक माना जा सकता है। आधारभूत बात यही है कि, बाइबल का हर एक शब्द, बाइबल की सभी शिक्षाएँ, समान रूप से आवश्यक हैं, अनिवार्य हैं, और सभी का समान रूप से पालन करना आवश्यक है। लेकिन हम केवल इन्ही शिक्षाओं पर ध्यान इसलिए केंद्रित करेंगे क्योंकि हम परमेश्वर के वचन में देखते हैं कि इन शिक्षाओं का पालन करने के द्वारा, परमेश्वर के लोग, प्रभु यीशु मसीह के अनुयायी, न केवल बाइबल में अन्य स्थानों पर दी गई शिक्षाओं को भी समझ सके और उनका पालन कर सके, बल्कि साथ ही शैतान और उसकी गलत शिक्षाओं के विरुद्ध दृढ़ता से खड़े रह सके, उन पर विजयी हो सके, और इनका पालन करने के द्वारा मसीही विश्वासी तथा कलीसियाएँ तेजी से बढ़ती चली गईं। आज हम प्रेरितों 2:40-42 में दी गई शिक्षाओं पर विचार करने के साथ आरम्भ करेंगे, जहाँ मसीही विश्वास और बढ़ोतरी के लिए आवश्यक सात कदम दिए गए हैं।
प्रेरितों 2:37 में हम देखते हैं कि पश्चाताप करने वाले भक्ति यहूदी, अपनी वास्तविक आत्मिक दशा का बोध होने के बाद, पतरस और अन्य शिष्यों से पूछते हैं कि वे क्या करें? फिर प्रेरितों 2:38-42 में वे सात बातें या सात कदम दिए गए हैं जो पतरस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में उनसे करने के लिए कहे। ये सात बातें मसीही जीवन जीने और उसमें बढ़ोतरी के लिए, कलीसिया की बढ़ोतरी होती रहने के लिए, आधारभूत या नींव के समान हैं। ये 7 बातें इस प्रकार से हैं:
प्रेरितों 2:38 में -
1. पश्चाताप करना
2. बपतिस्मा लेना
प्रेरितों 2:40 में -
3. बुरे या दुष्ट लोगों से दूर हो जाना
इसके बाद लिखा गया है, “सो जिन्होंने उसका वचन ग्रहण किया उन्होंने बपतिस्मा लिया; और उसी दिन तीन हजार मनुष्यों के लगभग उन में मिल गए” (प्रेरितों 2:41)। फिर, जो लोग प्रभु के शिष्यों के साथ जुड़ गए, वे लौलीन होकर, चार अन्य बातें भी किया करते थे, जो प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं -
4. परमेश्वर का वचन सीखना
5. परमेश्वर की अन्य सन्तानों के साथ संगति रखना
6. प्रभु-भोज में सम्मिलित होना
7. प्रार्थना का जीवन रखना
इन सात बातों में हम, प्रभु यीशु मसीह के प्रभावी और परिपक्व शिष्य या अनुयायी बनने की ओर होने वाली क्रमवार, उन्नति के कदमों देखते हैं। इसका आरम्भ परमेश्वर के वचन को सुनने से होता है; वह वचन जो परमेश्वर पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में प्रचार किया और सिखाया गया हो। ऐसा वचन सीधी और साधारण भाषा में सुनाया जाता है, मनुष्य के भय के बिना स्पष्ट रीति से बोला जाता है, प्रचारक को इस बात की चिन्ता नहीं होती है कि वह मनुष्यों को प्रसन्न कर रहा है, या, उनको अप्रसन्न कर रहा है; उसका उद्देश्य केवल परमेश्वर को प्रसन्न करना और परमेश्वर के प्रति विश्वास योग्य होना होता है; और वह परमेश्वर की आज्ञाकारिता में यह वचन देता है। जब ऐसा किया जाता है तो पतरस के समान एक अनपढ़ और साधारण सा व्यक्ति, जिसके पास ना तो कोई धर्म-ज्ञान का प्रशिक्षण था, और ना कोई डिग्री थी, वह भी हजारों भक्त यहूदियों के सामने खड़ा हो सका, निडर होकर बोल सका, और परमेश्वर ने उसे अपने लिए बहुतायत से उपयोग किया।
परमेश्वर का वचन, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से, लोगों को दोष-बोध करवाता है, उन्हें उनके हृदय की वास्तविक दशा को दिखाता है, और उनकी सारी धार्मिकता तथा निर्धारित परम्पराओं और रीतियों के पालन के बावजूद, वास्तविकता में उनका परमेश्वर से दूर होना दिखाता है। उन्हें जिनके हृदय छेदे गए हैं, परमेश्वर का वचन और पवित्र आत्मा उन्हें अपनी वास्तविक दशा का समाधान ढूंढने के लिए उकसाता है। इस समाधान के लिए वे लौट कर उन्हीं बातों और उन उन्हीं लोगों के पास नहीं जाते हैं जिनका वे अनुसरण करते आए हैं, लेकिन फिर भी परमेश्वर से दूर ही बने रहे। लेकिन वह उस समाधान को उनसे पता करते हैं जिन्होंने परमेश्वर के वचन को उन्हें स्पष्ट और खुलासे से बताया, और उनकी आँखों को उनकी वास्तविक दशा के लिए खोला है।
परमेश्वर के वचन और पवित्र आत्मा के द्वारा जिन लोगों को अपने पापों का दोष-बोध होता है, उन्हें जो पहला कदम उठाना आवश्यक है वह है पश्चाताप करना। यहाँ पर एक बहुत महत्वपूर्ण बात है जिस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है; एक ऐसी बात जिसे आज कलीसियाओं में शायद ही कभी, कहीं सिखाया जाता हो। इस बात पर गम्भीरता से विचार कीजिए कि यदि उस समय के उन भक्त यहूदियों को पश्चाताप करना अनिवार्य था, तो फिर आज के ईसाइयों या मसीहियों के लिए, चाहे वे भक्त हों या ना हों, क्या उन्हें परमेश्वर से मेल-मिलाप करने के लिए पश्चाताप करने की आवश्यकता नहीं है? पश्चाताप केवल गैर-मसीहियों के लिए ही नहीं है; वास्तव में यह परमेश्वर की आज्ञा है, कि हर कोई हर स्थान पर पश्चाताप करे (प्रेरितों 17:30)। यह सच्चा पश्चाताप हृदय में किया जाता है, और दो बातों को करने के द्वारा बाहर प्रकट किया जाता है। पहली बात है बपतिस्मा लेना और इस तरह से मन में हुए परिवर्तन की सँसार के सामने गवाही देना। दूसरी बात है अपने आप को सँसार और सँसार के लोगों और उनके तौर-तरीकों से अलग कर लेना, जैसा की प्रेरितों 2:40 के तीसरे कदम में लिखा गया है। इस बात की पुष्टि कई अन्य पदों से भी होती है जैसे कि रोमियों 6:13; 12:1-2; 2 कुरिन्थियों 5:15, 17; 6:17; इफिसियों 4:17; फिलिप्पियों 2:15; इत्यादि। जब तक कि सँसार और सँसार के लोगों से अलगाव का जीवन नहीं होगा, शैतान के पास व्यक्ति को साँसारिक जीवन और पाप में बहका कर ले जाने का अवसर मिलता रहेगा।
एक बार व्यक्ति पश्चाताप कर ले, अपने आप को प्रभु को समर्पित कर दे, कि उसका आज्ञाकारी बना रहे, अर्थात, उसका नया-जन्म हो जाए, तो फिर विश्वास में स्थापित रहने और अपने मसीही जीवन में बढ़ते जाने के लिए, उसे चार अन्य बातों को करते रहना भी आवश्यक है; केवल औपचारिकता के रूप में नहीं, वरन लौलीन होकर, अर्थात, परिश्रम के साथ और नियमित रूप से। यह चार बातें हैं परमेश्वर के वचन की शिक्षा पाना; परमेश्वर की अन्य सन्तानों के साथ संगति रखना, प्रभु भोज में सम्मिलित होना, और प्रार्थना का, अर्थात परमेश्वर से संपर्क का जीवन बनाए रखना।
इन सात बातों को करने वाले लोगों के जीवनों, उनके उदाहरण, और उनकी गवाही के द्वारा मसीही विश्वासियों की सँख्या और कलीसियाएँ बढ़ती चली गईं और लोग प्रभु अपनी कलीसियाओं में लोगों को जोड़ता चला गया (प्रेरितों 2:47; 4:4; 5:14; 11:24)। अगले लेख से हम इन सातों बातों को एक-एक करके देखना आरम्भ करेंगे। इनमें से कुछ को इस श्रृंखला के आरम्भिक भागों में पहले ही देख चुके हैं, इसलिए हम बस उनका एक पुनःअवलोकन भर करेंगे, और शेष बातों को कुछ विस्तार से देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
******************************************************************
English Translation
Things Related to Christian Living – 4
The Seven Steps of Christian Living - 1
In this section of our Bible study on growing through God’s Word in our Christian lives, we are now studying the third category of Biblical teachings necessary for the spiritual growth of the Christian Believers and of the Church. We have seen that the teachings for spiritual growth and godly living have been given throughout the Bible. But we have two places in the Bible, where it has specifically been shown that by following the teachings given there, there was growth in the Believers and the Church. The first of these two is in Acts chapter 2; and the second is in Acts chapter 15. Therefore, we will be mainly concentrating upon the teachings given at these two places in the Bible. This is neither because these are the only necessary teachings; nor because they are more important than others, and the others can be treated as ‘optional.’ The basic fact is that every word and teaching of the Bible is equally essential, equally necessary, and equally to be obeyed. But we will be concentrating upon these teachings because we see from God’s Word that by following these teachings, the people of God, the followers of the Lord Jesus, could also understand and follow the other teachings given at various places in God’s Word; could stand up firmly and victoriously against the devil, his people, and his false teachings; and the Christian Believers and the Churches could grow rapidly by following them. Today we will start considering the teachings given in Acts 2:40-42; where 7 steps to Christian faith and growth are given.
In Acts 2:37, the repentant devout Jews, realizing their actual spiritual condition, asked Peter and the other disciples, what should they do? In Acts 2:38-42 are given 7 things or steps that Peter under the guidance of the Holy Spirit asked them to do. These are 7 actions that form the bedrock of Christian life and Church growth. They are:
In Acts 2:38 -
1. Repent
2. Be Baptized
In Acts 2:40 -
3. Be Separated from perverse or evil people
After this, it is written “Then those who gladly received his word were baptized; and that day about three thousand souls were added to them” (Acts 2:41). Those who were added to the disciples of the Lord, steadfastly did four other things, as have been given in Acts 2:42 -
4. Learn God's Word
5. Fellowship with God's children
6. Partake in the Holy Communion
7. Have a life of Prayer
In these seven things we see a step-by-step progression for becoming an effective and mature disciple or follower of the Lord Jesus. It starts with hearing God’s Word, that is preached and taught under the guidance and power of God the Holy Spirit. It is spoken in simple and straightforward language, plainly and without fear of man, without being concerned about the preacher being pleasing or offending to man, but only with the intention of being faithful and pleasing to God, and obeying Him. When this is done, even an uneducated and imperfect person like Peter, without any theological training or degree, could stand up to thousands of devout Jews, speak boldly, and be used mightily by God.
God’s Word, through the power of the Holy Spirit convicts people, shows them the real condition of their hearts, their actual separation from God despite their religiosity and fulfilling of the prescribed practices and traditions. God’s Word and the Holy Spirit provokes those cut to their hearts to seek the remedy to their condition, not by returning back to the people and system that they have been following and yet living far from God, but from those who have openly and clearly spoken God’s Word to them, and opened their eyes to their actual condition.
Now, the first step those convicted by God’s Word and Holy Spirit need to take is repent. There is something very important to take note of over here; something that is practically never taught to the people in Churches these days. Seriously consider that if the devout Jews of that time needed to repent, then the “christians” of today, whether devout or not, don’t they too need to repent to be reconciled to God? Repentance is not just for the non-christians; in fact it is God’s commandment that all, that everyone, everywhere repent (Acts 17:30). This repentance takes place in the heart, and is manifested by doing two things. The first is taking baptism and thereby witnessing before the world the inner transformation. The second is to separate themselves from the ways and people of the world as it says in the third step given Acts 2:40. This is also affirmed in verses like Romans 6:13; 12:1-2; 2 Corinthians 5:15, 17; 6:17; Ephesians 4:17; Philippians 2:15; etc. Unless this life of separation from the people and ways of the world is practiced, Satan will soon lead the person away into the former worldly life of sin.
Once a person has repented, and submitted himself to the Lord, to be obedient to Him, i.e., has been Born-Again, to stay established in the faith and grow in their Christian lives, four other things need to be done, not perfunctorily but steadfastly, i.e., diligently and regularly. These four are, Learn God’s Word; Fellowship with God’s children; Partake in the Holy Communion; maintain a life of Prayer, i.e., of communicating with God.
Through the life, example, and witnessing of the people doing these seven things, the number of Believers and the Church grew, and the Lord started adding people to His Church (Acts 2:47; 4:4; 5:14; 11:24). From the next article we will start considering these seven things one by one. Some of them have already been considered in the earlier parts of this series, we will just revise them, and consider the others in some details.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.