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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 29
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (4)
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व्यावहारिक मसीही जीवन जीने के लिए मसीही विश्वासियों के लिए आवश्यक है कि वे प्रभु परमेश्वर के प्रति सच्चे मन से समर्पित, उसके प्रतिबद्ध, और परमेश्वर के वचन बाइबल के आज्ञाकारी हों। सामान्यतः यह समर्पण, प्रतिबद्धता, और आज्ञाकारिता, प्रभु को उद्धारकर्ता ग्रहण करने और उद्धार पाने के कुछ समय के बाद तक तो देखी जाती है, किन्तु समय के साथ, जैसे बीज बोने वाले के दृष्टान्त में प्रभु ने तीसरे प्रकार के बीज के लिए बताया था, बहुत से मसीही विश्वासियों के मसीही जीवनों को संसार की बातें और चिंताएँ तथा धन का धोखा, अर्थात सांसारिक धन कमाने, उसे जमा करके रखने, और बाल-बच्चों के लिए कुछ छोड़ जाने की लालसा दबा देते हैं (मत्ती 13:22)। और यह मसीही विश्वासी को उसके मसीही विश्वास और जीवन में बढ़ने तथा उसके प्रभु के लिए उपयोगी होने को बाधित कर देते हैं, और दोनों स्थानों, पृथ्वी तथा स्वर्ग में, उसे परमेश्वर से मिलने वाली सभी आशीषों को रोक देते हैं। इस समस्या का समाधान एक ही है, परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता को अपने व्यक्तिगत जीवनों में प्राथमिक स्थान एवं महत्व देना। यह कर पाने के लिए उन्हें व्यावहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित बाइबल में दी गई शिक्षाओं का पालन करना है।
इस बाइबल अध्ययन में हम व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित इन्हीं शिक्षाओं को देख रहे हैं। वर्तमान में प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों, जिन्हें मसीही विश्वास के जीवन के चार स्तम्भ भी कहा जाता है, और आरम्भिक मसीही विश्वासी जिनका लौलीन होकर पालन करते थे, उन में से तीसरे स्तम्भ, “रोटी तोड़ना” अर्थात प्रभु की मेज़ में या प्रभु-भोज में भाग लेने के बारे में देख रहे हैं। हम प्रभु की मेज़ से सम्बन्धित शिक्षाओं को सात बिन्दुओं के अन्तर्गत देख रहे हैं। पिछले दो लेखों में हमने पहले दो बिन्दुओं पर विचार किया है कि प्रभु की मेज़ में भाग लेने से कोई मसीही विश्वासी नहीं बन जाता है, वरन जो यूहन्ना 1:12-13 का पालन करने के द्वारा मसीही विश्वासी बन चुके हैं, उन्हें प्रभु-भोज में सम्मिलित होना है, चाहे उनकी आत्मिक आयु और परिपक्वता कुछ भी हो। साथ ही हमने प्रभु द्वारा इस मेज़ को स्थापित करने के बारे में संक्षेप में देखा, तथा यह भी देखा और समझा था कि एक आम, किन्तु गलत धारणा के विपरीत, यहूदा इस्करियोती को प्रभु द्वारा स्थापित की गई पहली मेज़ में सम्मिलित नहीं किया गया था। प्रभु की मेज़ में भाग लेने से सम्बन्धित महत्वपूर्ण शिक्षाएँ पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस में होकर 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में दी हैं। आज से हम परमेश्वर के वचन बाइबल के इसी खण्ड पर तीसरे बिन्दु के साथ मनन करना आरम्भ करेंगे।
3. प्रभु-भोज के लिए तैयारी - एक फटकार - पद 17-22
कुरिन्थुस की मण्डली पौलुस द्वारा वहाँ विपरीत परिस्थितियों और विरोध का सामना करते हुए, डेढ़ वर्ष तक परिश्रम करते रहने का परिणाम थी (प्रेरितों 18:1-11)। पौलुस उस मण्डली के लोगों से बहुत प्रेम करता था, उन्हें अपनी आत्मिक सन्तान मानता था; और आत्मिक पिता होने की ज़िम्मेदारियों के अनुसार ही उन से व्यवहार करता था (1 कुरिन्थियों 4:14-21)। पौलुस के सेवकाई के लिए कुरिन्थुस से अन्य स्थानों पर जाने के बाद उस मण्डली में घुस आई अनेक गलतियों को उन पर प्रकट करने और उन का समाधान बताने के लिए, पौलुस ने कुरिन्थुस की मण्डली को यह पत्री लिखी, जिसे हम “1 कुरिन्थियों” के नाम से जानते हैं। इस पत्री में हमारे वर्तमान विषय, प्रभु की मेज़ से सम्बन्धित बातें 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में दी गई हैं। पौलुस इस खण्ड का आरम्भ मेज़ में अनुचित रीति से भाग लेने से सम्बन्धित उनकी गलतियों को उन्हें दिखाने, और उनके लिए उन्हें फटकार लगाने के साथ करता है (पद 17-22), जो हमारा आज के विचार का विषय है। यहाँ, फटकार के इस खण्ड, पद 17-22, के आरम्भ (पद 17) में ही पौलुस उन्हें बता देता है कि वह जो कह रहा है, उसका उद्देश्य उन पर कोई अधिकार जताना, उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाना, या उन पर अपना वर्चस्व दिखाना नहीं है। बल्कि वह उन्हें हानि से बचाना तथा उनकी भलाई करना चाहता है, और इस खण्ड के अन्त में वह उन्हें उस घोर हानि के बारे में भी बताता है, जिस से वह उन्हें सुरक्षित करना चाहता है। पौलुस उन लोगों में प्रभु की मेज़ में भाग लेने से सम्बन्धित पाई जाने वाली चार गलतियों को दिखाता है:
पद 18: उनमें परस्पर फूट होना और दल बनाना आ गया था, जिसका उल्लेख पौलुस ने पत्री के आरम्भ में 1 कुरिन्थियों 1:10-13 में भी किया था।
पद 19: उनमें इस दल-बन्दी के साथ ही, कुछ लोगों का अपने आप को “खरा” या औरों से बढ़कर दिखाना भी आ गया था।
पद 20-21: उनमें दीनता और एक-मनता नहीं थी, बल्कि जो समृद्ध और सम्पन्न थे वे अपने आर्थिक एवं सामाजिक स्तर का प्रदर्शन अपना ही भोजन लाकर, उसे प्रभु-भोज के नाम से औरों को दिखाते हुए, किन्तु औरों से अलग होकर खाने के द्वारा करने लगे थे। यह प्रभु द्वारा स्थापित मेज़ की सभी शिष्यों के लिए “एक ही रोटी और एक ही प्याला” और सभी के उस ही में सम्मिलित होने का उपहास करना था।
पद 22: वे कलीसिया के रूप में एकत्रित होने को, उनका जो निर्धन और दुर्बल थे, अपमानित करने के लिए प्रयोग करने लग गए थे; और इस प्रकार कलीसिया का, जो प्रभु की देह और दुल्हन है (इफिसियों 5:22-30), अपमान करने लग गए थे।
इस खण्ड से हम प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले, सभी विश्वासियों द्वारा भाग लेने के लिए अपने आप को तैयार करने से सम्बन्धित कुछ अनिवार्य बातों को देखते हैं; और कलीसिया के अगुवे की ज़िम्मेदारी को भी देखते हैं। इन बातों को कलीसिया के लोगों तथा उस कलीसिया के अगुवे, दोनों को समझना और निभाना है। तब ही अगुवा और मण्डली के लोग प्रभु-भोज में योग्य रीति से भाग लेने वाले होंगे। अन्यथा वे अनुचित रीति से भाग लेने के द्वारा प्रभु की देह और लहू के अपराधी ठहरेंगे, और प्रभु की मेज़ से आशीष के नहीं बल्कि दण्ड के भागी होंगे।
मण्डली के लोगों, मसीही विश्वासियों के लिए अनिवार्य है कि वे दीनता और नम्रता के साथ, एक मन होकर, प्रभु की एक देह के समान, प्रभु द्वारा दिए गए “एक ही रोटी और एक ही प्याला” के अनुसार मेज़ में एक साथ मिलकर भाग लें। मण्डली में कोई दल-बन्दी, कोई ऊँच-नीच या बड़ा-छोटा होने की भावना नहीं होनी चाहिए। सभी को यह स्मरण रखना चाहिए कि वे अपनी आर्थिक अथवा सामाजिक स्थिति या किसी भी योग्यता के द्वारा नहीं, बल्कि अन्य सभी के समान पापी होने और प्रभु के अनुग्रह से पाप क्षमा किए जाने के कारण कलीसिया का, प्रभु की देह का भाग बने हैं। इसलिए सांसारिक दृष्टिकोण से उनके आर्थिक और सामाजिक स्तर चाहे कुछ भी हों, परन्तु प्रभु की दृष्टि में वे पापी ही थे, तथा औरों के समान ही, केवल प्रभु के अनुग्रह के द्वारा ही मण्डली में जोड़े गए हैं। इसलिए अन्य सभी के समान, केवल “क्षमा किया हुआ पापी” के अतिरिक्त प्रभु की मण्डली में उनका अन्य कोई पद, कोई स्तर, कोई अधिकार नहीं है। साथ ही मण्डली के सभी सदस्यों को यह ध्यान भी रखना चाहिए कि प्रभु में विश्वास लाने, उद्धार पाने, नया-जन्म होने पर वे आत्मिक शिशुओं के समान प्रभु के परिवार में प्रवेश करते हैं। उसके बाद, उन्हें आत्मिक जीवन में स्थिर और स्थापित बने रहने के लिए जीवन भर सीखते रहने और बढ़ते रहने की अनिवार्यता है। इस सीखने और बढ़ने में वे गलतियाँ भी करेंगे, और प्रभु के निर्धारित लोग उन्हें उनकी गलतियों को बताएंगे, दिखाएंगे, और उनसे उन गलतियों को सुधारने के लिए कहेंगे; आवश्यकता पड़ने पर फटकार भी लगाएंगे (2 तीमुथियुस 3:16-17; 4:1-5)। मण्डली के सभी लोगों को इस सुधार और शिक्षा को दीनता और नम्रता से स्वीकार करना है, न कि किसी प्रकार के घमण्ड के अन्तर्गत अपने तथा मण्डली के लिए कोई समस्या खड़ी करना है।
जैसा पौलुस ने किया और समझाया, तथा तीमुथियुस को लिखे गए उपरोक्त निर्देशों में स्पष्ट कहा है, प्रभु द्वारा जिस भी पास्टर या अगुवे को कलीसिया की ज़िम्मेदारी दी गई है, उसकी भी यह ज़िम्मेदारी है कि पौलुस के समान एक आत्मिक पिता बनकर मण्डली के लोगों को यह समझाते और चिताते हुए, कि वह किसी अन्य उद्देश्य से नहीं, बल्कि उनकी भलाई के लिए, और प्रभु के निर्देशों के अनुसार ऐसा कर रहा है, 1 पतरस 5:1-4 का निर्वाह करते हुए मण्डली के सभी लोगों को सिखाए, समझाए, और सुधारे। बहुत से पास्टर या अगुवे, मण्डली के लोगों तथा कलीसिया के अन्य अधिकारियों के डर के कारण यह करने से कतराते हैं, केवल औपचारिकताएं ही पूरी करते हैं। यह न केवल प्रभु का अपमान है, क्योंकि वे प्रभु से अधिक मनुष्यों का भय और आज्ञा मानने के दोषी हैं, और इसके दुष्परिणामों को भुगतेंगे, किन्तु इब्रानियों 13:17 के अनुसार, वे उन्हें सौंपी गई मण्डली के लोगों की स्थिति के लिए भी प्रभु को जवाबदेह होंगे, उसके लिए भी प्रतिफल अथवा दण्ड के भागी होंगे। अब यह उनके ऊपर है कि वे यहाँ कुछ समय के लिए मनुष्यों की अप्रसन्नता का सामना करें लेकिन अनन्तकाल के लिए प्रभु की प्रसन्नता से आशीषित हों; या फिर कुछ समय के लिए यहाँ पर मनुष्यों को प्रसन्न करें, और फिर अनन्तकाल के लिए प्रभु की अप्रसन्नता के दुष्परिणामों का निर्वाह करते रहें।
अगले लेख में हम चौथे बिन्दु, प्रभु की मेज़ के निर्देशों और उद्देश्यों पर विचार करना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 29
The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (4)
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To live a practical Christian life, Christian Believers must remain truly dedicated to the Lord God, fully committed to Him, and always be obedient to God's Word, the Bible. Usually, this dedication, commitment, and obedience is seen for some time after accepting the Lord as the Savior and receiving salvation. But with the passage of time, as the Lord spoke about the third type of seed in the parable of the sower of the seed, the Christian living of many Christian Believers get suppressed by the things and cares of this world and the deceitfulness of riches, i.e., the desire to earn worldly wealth, store it up, and leave some things for the children (Matthew 13:22). And this not only hinders the Christian Believer from growing in his Christian faith and life, and being useful to his Lord, but it also obstructs all the blessings he can receive from God, both on earth and in heaven. There is only one solution to this problem, to give the primary place and importance in personal lives to obedience to God and His Word. To do this, the teachings of the Bible regarding practical Christian living, must be followed.
In this Bible study we are looking at these teachings related to practical Christian living. Currently we are considering the four points of Acts 2:42, which the early Christian Believers followed steadfastly. They are also known as the four “Pillars of the Christian Living,” and we are now looking at the third pillar, i.e., the “breaking of bread,” or, the partaking of the Lord's Table, or participating in the Lord's Supper. We are looking at the teachings related to the Lord's Table under seven points. In the previous two articles we have considered the first two points; that one does not become a Christian Believer by partaking of the Lord's Table, but those who have become Christian Believers by obeying John 1:12-13, they are to participate in the Holy Communion, regardless of their spiritual age and maturity. We have also very briefly looked at the establishment of this table by the Lord, and have also seen and understood that, contrary to a common but mistaken belief, Judas Iscariot was not included in the first Table established by the Lord. The Apostle Paul, through the Holy Spirit, in 1 Corinthians 11:17-34, has given important teachings regarding partaking of the Lord's Table. Today, as the third point, we will begin learning from this section of God's Word, the Bible.
3. Preparation for the Lord's Supper – A Rebuke – Verses 17-22
Paul had to work hard, face great difficulties, and much opposition for a year and a half, to establish the church in Corinth (Acts 18:1-11). Paul loved that church congregation very much, considered them his spiritual children; and he dealt with them according to his responsibilities as their spiritual father (1 Corinthians 4:14-21). Paul wrote this letter, which we know as “1 Corinthians,” to the church in Corinth to point out and provide solutions to them, to the many errors and wrong-doings that had crept into the church, after Paul had moved from Corinth to other places for his ministry. Teachings related to our current topic, the Lord's Table, are given in this letter in 1 Corinthians 11:17-34. Paul begins this section by pointing out to them their errors in improperly partaking at the table, and rebuking them for their wrongs (vv. 17-22), which we will consider today. Here, right at the beginning of this section of rebuking them in verses 17-22, Paul, in verse 17 lets them know that the purpose of what he is saying is not to assert any authority or dominance over them, nor to put them down in any way, nor to ridicule them. Rather, he is doing this because he wants to protect them from harm and ensure their good. At the end of this section, he also tells them about the grave harm from which he wants to protect them through this correction. In verses 17-22, Paul points out to them the four mistakes that they were making regarding partaking of the Lord's table:
Verse 18: There were divisions and factions among them; something which Paul had also mentioned at the beginning of this letter, in 1 Corinthians 1:10-13.
Verse 19: Along with the divisions among them, to gain recognition and authority in the congregation, some of the members were presenting themselves as “approved” or better than others.
Verses 20-21: There was no humility and one-mindedness among them. Those who were rich and prosperous would show-off their economic and social status by bringing their own food, and in the presence of others, they would eat it as the Lord’s Supper, while staying separate from the others. This was a mockery of the Table established by the Lord for all the disciples to partake from “one bread and one cup” and all were to partake in that same meal.
Verse 22: They were using their gathering as a church to humiliate those who were poor and weak; And thus they were disrespecting the church, which is the body and bride of the Lord (Ephesians 5:22-30).
From this section we see some essential points for all believers, and the responsibilities of the church leaders to consider, when preparing themselves for partaking of the Lord's Table. It is necessary that both, the people of the church as well as the leaders of that church, understand and implement their respective responsibilities. Only then will the leaders and the congregation be able to participate worthily in the Lord's Supper. Otherwise, by partaking improperly, they will be guilty of the body and blood of the Lord; consequently, they will be harmed, not blessed by partaking from the Lord's table.
It is essential for the people of the congregation, the Christian Believers, all to partake together in humility and meekness, with one mind, as one body of the Lord, in accordance with the “one bread and one cup” given by the Lord. There should be no divisions or factionalism in the congregation, no feeling of being high or low, or being great or small. Everyone should remember that they have become part of the Church, the Body of the Lord, not by their economic or social status or any qualifications, but because of being sinners and having been forgiven by the grace of the Lord, like for anyone else. Therefore, no matter what their economic and social status may be from a worldly perspective, from the Lord's perspective they were only sinners, who had been forgiven and added to the congregation only by His grace, like the others were. So, like everyone else, they have no other position, no status, no authority in the Lord's congregation except that of being a “forgiven sinner.” At the same time, all members of the congregation should also keep in mind that when they come to faith in the Lord, receive salvation, and are Born-Again, they enter the Lord's family as spiritual infants. After that, they are required to continue learning and growing throughout their lives to remain stable and established in their spiritual life. While learning and growing they will also make mistakes, and the Lord's appointed people will point them out to them, and ask them to correct those mistakes; and whenever necessary they will also rebuke them to have them correct their mistakes (2 Timothy 3:16-17; 4:1-5). Everyone in the congregation must accept this correction and teaching with humility and meekness, and they are not to create any problems for themselves and the congregation out of any kind of pride or ego for this.
As Paul did and explained at the beginning of this passage, and has clearly stated in the above instructions to Timothy, any Pastor or leader given the responsibility for the church by the Lord is also responsible to be a spiritual father to the people of the congregation. Like Paul did, the Pastor or the leader should explain and caution that he is doing the corrections only for their own good, and in accordance with the Lord's instructions, to teach, admonish, and correct all in the congregation, and not for any other reasons. He should also keep in mind the instructions of 1 Peter 5:1-4 while fulfilling this responsibility. Many pastors or leaders shy away from doing this out of fear of the people of the congregation and of the other church officials, serving merely to fulfill the formalities. This is not only an insult to the Lord, because they are guilty of fearing and obeying men more than the Lord, and will suffer the consequences of this; but according to Hebrews 13:17, they are also accountable to the Lord for the state of the people of the congregation entrusted to them. They will be held accountable and will be rewarded or punished for it. Now it is up to them to suffer the displeasure of men here for a time but to be blessed with God's favor for eternity; Or please people here for some time, and then continue to suffer the consequences of God's displeasure for eternity.
In the next article we will begin to consider the fourth point, the instructions, and purposes of the Lord's Table.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.