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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 33
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (8)
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हम, व्यावहारिक मसीही जीवन जीने के लिए, प्रेरितों 2 अध्याय में दिए गए सात में से छठे निर्देश, और प्रेरितों 2:42 में लौलीन होकर पालन करने के लिए दिए गए मसीही जीवन के चार में से तीसरे स्तम्भ, “रोटी तोड़ना” या प्रभु भोज में, प्रभु की मेज़ में, भाग लेने पर विचार कर रहे हैं। इस विषय के आरम्भिक लेख में हमने कहा था कि प्रभु भोज में भाग लेने से सम्बन्धित बातों को हम सात बिन्दुओं के अन्तर्गत सीखेंगे। ये बातें मुख्यतः 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में दी गई हैं। हम पिछले तीन लेखों से, इस खण्ड के पद 23-26 के आधार पर प्रभु की मेज़ के उद्देश्यों पर, और उन उद्देश्यों के अनुसार मेज़ में सही रीति से भाग लेने के बारे में वचन की शिक्षाओं और निहितार्थों को देखते चले आ रहे हैं। पिछले लेख में हमने पद 24 के आधार पर प्रभु की यादगारी में इस मेज़ में भाग लेने के निहितार्थ को समझा था। आज हम पद 26 में परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस प्रेरित से प्रभु भोज में भाग लेने के लिए लिखवाई गई बात को देखेंगे।
4. प्रभु-भोज के लिए प्रभु के निर्देश - उद्देश्य - पद 23-26 - (भाग 4)
परमेश्वर के वचन बाइबल के 1 कुरिन्थियों 11:26 में लिखा है “क्योंकि जब कभी तुम यह रोटी खाते, और इस कटोरे में से पीते हो, तो प्रभु की मृत्यु को जब तक वह न आए, प्रचार करते हो।” यहाँ पर पवित्र आत्मा ने मसीही विश्वासियों के लिए एक बहुत गम्भीर बात को लिखवाया है, जिसे शायद ही कभी प्रभु भोज में भाग लेने के समय मण्डली या सभा के लोगों को बताया और समझाया जाता है। उस समय यह बात पौलुस प्रेरित के द्वारा कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों से कही गई थी। किन्तु परमेश्वर के वचन में सम्मिलित करने के द्वारा, इसे प्रभु की सार्वभौमिक विश्वव्यापी कलीसिया के सभी लोगों के लिए आवश्यक कर दिया गया है। इस पद में सभी मसीही विश्वासियों से कहा गया है कि वे जब भी प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं, तो भाग लेने के साथ ही, स्वतः ही, वे प्रभु की मृत्यु का भी प्रचार करते हैं। अर्थात वे प्रभु की मृत्यु की गवाही भी देते हैं। पद 26 के वाक्य की रचना पर ध्यान कीजिए; पवित्र आत्मा ने यह नहीं लिखवाया है कि भाग लेने वालों को प्रभु की, या उसकी मृत्यु की गवाही देने वाला भी होना चाहिए। और न ही यह लिखवाया है कि भाग लेने वालों को प्रभु की, या उसकी मृत्यु की गवाही भी देते रहना चाहिए। वरन, स्पष्ट शब्दों में यह लिखवा दिया है कि जो भाग लेता है, वह साथ ही, स्वतः ही, प्रभु की मृत्यु की गवाही भी देता है। अर्थात, प्रभु की मृत्यु का गवाह भी बन जाता है; और यह कोई हल्की बात नहीं है।
प्रभु यीशु मसीह की मृत्यु और पुनरुत्थान के बिना, प्रभु के पृथ्वी पर आने का कोई अर्थ नहीं है; सुसमाचार कुछ नहीं है। यदि मसीही विश्वास से प्रभु यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान को हटा लिया जाए, तो बाइबल की बातें और मसीहियत भी संसार की किसी भी अन्य ईश्वरीय धारणा के समान ही हो जाती है। इसीलिए शैतान यह भरसक प्रयास करता रहता है कि प्रभु की मृत्यु और पुनरुत्थान के महत्व को कम कर दे, उसके प्रचार को बाधित करने के द्वारा लोगों को प्रभु पर विश्वास न करने दे। और यह भी मसीहियत की एक विडम्बना है कि कितने ही ऐसे लोग जो बाइबल की बातों पर, प्रभु के कुँवारी से जन्म लेने पर, प्रभु की मृत्यु पर, प्रभु के पुनरुत्थान पर विश्वास नहीं करते हैं, वे परमेश्वर की दृष्टि में अपने आप को धर्मी ठहराने के लिए, प्रभु भोज में भाग लेते हैं। लेकिन प्रभु यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान के प्रचार और गवाही के बिना सुसमाचार का वास्तविक मसीही विश्वास का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
प्रभु की मृत्यु के प्रचार के महत्व को हम 1 कुरिन्थियों की इसी पत्री में, पौलुस द्वारा कही गई दो बातों से सीख और समझ सकते हैं। पहली बात, पौलुस 1 कुरिन्थियों 1:17-18 में लिखता है “क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने को नहीं, वरन सुसमाचार सुनाने को भेजा है, और यह भी शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं, ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे। क्योंकि क्रूस की कथा नाश होने वालों के निकट मूर्खता है, परन्तु हम उद्धार पाने वालों के निकट परमेश्वर की सामर्थ्य है।” अर्थात प्रभु द्वारा पौलुस की नियुक्ति लोगों में ज्ञान सिखाने के लिए नहीं बल्कि सुसमाचार का प्रचार करने के लिए थी। उस सुसमाचार का एक प्रमुख भाग ‘क्रूस की कथा’ यानि कि प्रभु की मृत्यु और पुनरुत्थान भी था। चाहे संसार इस ‘क्रूस की कथा’ को मूर्खता समझे, लेकिन जो इस पर विश्वास करता है, उसके लिए यह परमेश्वर की सामर्थ्य है; अर्थात वह सामर्थ्य जिस से बढ़कर अन्य कोई सामर्थ्य नहीं है। दूसरी बात, 1 कुरिन्थियों 2:1-2 में पौलुस ने लिखा, “और हे भाइयों, जब मैं परमेश्वर का भेद सुनाता हुआ तुम्हारे पास आया, तो वचन या ज्ञान की उत्तमता के साथ नहीं आया। क्योंकि मैं ने यह ठान लिया था, कि तुम्हारे बीच यीशु मसीह, वरन क्रूस पर चढ़ाए हुए मसीह को छोड़ और किसी बात को न जानूं।” जो पहली बात को ही दोहराना है; अर्थात कुरिन्थुस में पौलुस की सेवकाई का उद्देश्य उन्हें ज्ञान बाँटना, ज्ञान सिखाना नहीं था। वह उन्हें केवल प्रभु यीशु मसीह के, और उसके क्रूस पर चढ़ाए जाने के बारे में बताता था। इसी सन्दर्भ में पौलुस ने फिलिप्पियों को लिखी पत्री में लिखा, “और मैं उसको और उसके मृत्युंजय की सामर्थ्य को, और उसके साथ दुखों में सहभागी होने के मर्म को जानूँ, और उस की मृत्यु की समानता को प्राप्त करूं” (फिलिप्पियों 3:10)। दूसरे शब्दों में, पौलुस के जीवन का ध्येय, प्रभु यीशु के पुनरुत्थान की सामर्थ्य को और उसके साथ दुखों में सहभागी होने को जान पाना था, प्रभु की मृत्यु की समानता को प्राप्त करना था। जो वह प्रभु से सीखता था, उसे अपने जीवन में लागू करता था, तथा पवित्र आत्मा की अगुवाई में औरों को सिखा देता था।
ये बातें हमें हमारे विषय के पद 26 में कही गई बात में प्रभु की मृत्यु के महत्व को उजागर करती हैं; लेकिन हमारे लिए इसका व्यावहारिक उपयोग क्या है? एक बार फिर से, पद 26 में कही गई बात पर ध्यान कीजिए। प्रभु भोज में सम्मिलित होने वाला प्रत्येक व्यक्ति, स्वतः ही प्रभु की मृत्यु की गवाही देने वाला भी हो जाता है। वह इसे चाहे माने या न माने, किन्तु परमेश्वर के अपरिवर्तनीय वचन के अनुसार, परमेश्वर द्वारा स्थापित बात के अनुसार, परमेश्वर की दृष्टि में वह अपने आप को, पौलुस के समान ही, प्रभु की मृत्यु और उससे सम्बन्धित बातों का गवाह बना रहा है। वह अपने आप को, पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस से लिखवाई गई उपरोक्त बातों के पौलुस के समान ही निर्वाह करने का, ज़िम्मेदार घोषित कर रहा है। इसमें उसकी सहमति अथवा इन्कार का कोई विकल्प नहीं है। यदि व्यक्ति प्रभु भोज में भाग लेने का निर्णय करता है, तो साथ ही वह प्रभु की मृत्यु का गवाह बनाने की भी सहमति देता है। अन्यथा, वह भाग न ले - जिसका निहितार्थ है कि अपने आप को प्रभु का जन, या मसीही न कहे; क्योंकि प्रभु के शिष्य या मसीही विश्वासी को प्रभु की मेज़ में भाग तो लेना है। इसलिए कोई यह कहकर बच नहीं सकता है कि उसने इस बात के लिए सहमति नहीं दी थी, क्योंकि यह सहमति तो प्रभु भोज में भाग लेने के साथ जुड़ी हुई है। सिक्के के पूरक, उसके दूसरे पहलू के समान है, जिसके बिना सिक्का खोटा और मूल्यहीन है।
और प्रभु भोज में भाग लेने के बावजूद, यदि कोई इस गवाही का निर्वाह न करे, तो फिर वह प्रभु की मृत्यु का झूठा गवाह बन जाता है। झूठे गवाह के लिए नीतिवचन में कुछ चेतावनियाँ हैं: परमेश्वर जिन सात बातों से घृणा करता है उनमें से छठी बात है झूठा साक्षी या गवाह होना (नीतिवचन 6:19); झूठा साक्षी या गवाह निर्दोष नहीं ठहरेगा, दण्ड से बचेगा नहीं (नीतिवचन 19:5); और झूठा साक्षी या गवाह नाश हो जाएगा (नीतिवचन 19:9; 21:28)। अर्थात, जो प्रभु की मेज़ के उद्देश्यों और ज़िम्मेदारियों को जाने बिना, प्रभु भोज में एक रीति के समान, एक औपचारिकता पूरी करने के लिए भाग लेते हैं, वे स्वयं ही अपने ऊपर कोई आशीष नहीं, बल्कि परमेश्वर का प्रकोप और भारी दण्ड लाते हैं। लेकिन मसीही विश्वासी, अनुचित रीति से भाग लेने का दोषी होने से बचने के लिए, अपने आप को प्रभु भोज में भाग लेने से रोक कर भी नहीं रख सकता है; अन्यथा वह अपने आप को प्रभु की अनाज्ञाकारिता करने का दोषी ठहराएगा, और फिर भी अपने लिए आशीष नहीं, दण्ड ही कमाएगा। जो प्रभु की मेज़ में उसके उद्देश्यों और निहितार्थों के अनुसार भाग लेते हैं, वे आत्मिक जीवन में बढ़ते चले जाते हैं, परमेश्वर की आशीषों के संभागी बने रहते हैं। किन्तु जो इसमें एक रीति या औपचारिकता के निर्वाह के लिए, अनुचित रीति से सम्मिलित होते हैं, वे अपने लिए परमेश्वर का दण्ड कमाते हैं, और उसे भुगतते भी हैं।
अगले लेख में हम प्रभु की मृत्यु का प्रचार करने से सम्बन्धित कुछ और व्यावहारिक बातों पर विचार करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 33
The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (8)
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We are considering the sixth of the seven instructions given in Acts 2, which is also the third of four pillars of the Christian living given in Acts 2:42, i.e., “the breaking of bread” or the partaking in the Holy Communion, the Lord's Table. We have seen that for practical Christian living, these four ‘pillars’ have to be followed steadfastly. In the initial article on this topic, we said that we would learn things related to partaking of the Lord's Supper under seven points. These things are mainly given in 1 Corinthians 11:17-34. For the last three articles, we have been looking at the purposes of the Lord's Table, based on verses 23-26 of this section, and have been learning the teachings and implications regarding partaking of the Table properly in accordance with those purposes, from God’s Word. In the previous article, based on verse 24 we considered the implications of partaking of the Lord's Table in remembrance of Him. Today we will look at what God the Holy Spirit commanded the Apostle Paul in verse 26, about participating in the Lord's Supper.
4. The Lord's instructions for the Lord's Table - Purpose - verses 23-26 - (Part 4)
It is written in God's Word, the Bible in 1 Corinthians 11:26 "For as often as you eat this bread and drink this cup, you proclaim the Lord's death till He comes." Here the Holy Spirit has written down for Christians a very serious matter; something, which is rarely taught and explained to the people of the congregation or Assembly at the time of partaking of the Lord's Supper. At that time this was said by the Apostle Paul to the people of the church in Corinth. But through its inclusion in God's Word, it has been made mandatory for all in the Lord's universal worldwide church. This verse tells all Christians that whenever they partake of the Lord's table, by partaking, they automatically also proclaim the Lord's death. That is to say that they also testify to the death of the Lord. Notice the structure of the sentence in verse 26; The Holy Spirit has not instructed that those taking part should also think about witnessing about the Lord, or about His death at times. Nor is it written that those who participate in the Lord’s Table, must then go and witness about the Lord, and about His death, as a separate or additional act. Rather, it has been written in clear words that the one who participates, automatically, also bears witness to the death of the Lord; i.e., also becomes a witness to the death of the Lord; And this is not a light matter.
Without the death and resurrection of the Lord Jesus Christ, the Lord's coming to earth has no meaning; the gospel is nothing. If the death and resurrection of the Lord Jesus are removed from the Christian faith, then the Bible and Christianity become just like any other concept of divinity in the world. That is why Satan continues to do his utmost to undermine and play down the importance of the Lord's death and resurrection, and prevent its preaching to keep people from believing in Him. And this is an irony of Christianity, that many of those who do not believe in the Bible, in the virgin birth of the Lord, in the death of the Lord, in the resurrection of the Lord, even they, to be considered righteous in the eyes of God, partake of the Holy Communion. But without the preaching and testifying of the death and resurrection of the Lord Jesus, the gospel and the true Christian Faith have no existence.
We can learn and understand the importance of preaching the Lord's death from two things said by Paul in this same letter of 1 Corinthians. First, Paul writes in 1 Corinthians 1:17-18 "For Christ did not send me to baptize, but to preach the gospel, not with wisdom of words, lest the cross of Christ should be made of no effect. For the message of the cross is foolishness to those who are perishing, but to us who are being saved it is the power of God" i.e., the Lord had appointed Paul not to teach knowledge, but to preach the gospel amongst people. An important part of that gospel was also the ‘message of the cross’ i.e. the death and resurrection of the Lord Jesus. Although the world may consider this ‘message of the cross’ to be foolishness; but to the one who believes in it, it is the power of God, and there is no power that is superior to God’s power. Secondly, in 1 Corinthians 2:1-2 Paul wrote, "And I, brethren, when I came to you, did not come with excellence of speech or of wisdom declaring to you the testimony of God. For I determined not to know anything among you except Jesus Christ and Him crucified." Which, in different words, is a repetition of the first point. In other words, the purpose of Paul's ministry in Corinth was not to share or teach knowledge. He only shared with them about the Lord Jesus Christ and His crucifixion. In this context, Paul wrote in his letter to the Philippians, "that I may know Him and the power of His resurrection, and the fellowship of His sufferings, being conformed to His death" (Philippians 3:10). In other words, the goal of Paul's life was to know the power of the Lord Jesus's resurrection to learn about sharing in His sufferings, and to attain the likeness of the Lord's death. Whatever he learned from the Lord, he applied in his own life, and taught it to others under the guidance of the Holy Spirit.
These things place before us the significance of the Lord's death in context of our subject, i.e., verse 26; But what is its practical application for us? Once again, notice what is said in verse 26. Every person who participates in the Lord's Supper automatically also becomes a witness to the Lord's death. Whether he agrees to it or not, but according to God's unalterable Word, according to what God has established, in God's eyes he is making himself, like Paul, a witness to the Lord's death and to the things related to it. By participating in the Table, he is accepting being responsible for carrying out the above things written down by Paul through the Holy Spirit, just as Paul did. In this, he has no option of consenting or refusing. If a person decides to participate in the Holy Communion, he automatically consents to being a witness of the Lord's death. Otherwise, he should not participate – which implies that he should not consider himself belonging to the Lord, i.e., being a Christian Believer. Because a disciple of the Lord or a Christian Believer has to participate in the Lord's Table. Therefore, no one can escape by saying that he had not consented to this, because his consent is implied in his partaking of the Holy Communion. This being a witness is like the flip side of the coin, without which the coin is invalid and worthless.
And if anyone does not bear this testimony, despite partaking of the Lord's Supper, then he becomes a false witness of the Lord's death. There are some warnings in Proverbs against being a false witness: The sixth of the seven things that God hates, is a false witness (Proverbs 6:19); A false witness will neither escape, nor will he go unpunished (Proverbs 19:5); And the false witness will perish (Proverbs 19:9; 21:28). That is, those who participate in the Lord's Supper as a ritual, as a formality, without knowing the purposes and responsibilities of the Lord's Table, bring upon themselves no blessing, but God's wrath and heavy punishment. But, to avoid improper participation, a Christian Believer cannot keep himself from partaking of the Lord's Supper; otherwise, he will make himself guilty of disobedience to the Lord, and will still earn for himself only punishment, not blessing from the Lord. Those who partake of the Lord's table according to its purposes and implications, continue to grow in spiritual life, and become partakers of God's blessings. But those who participate in it in an inappropriate manner, just to fulfill a ritual or formality, earn God's punishment for themselves, and also suffer it.
In the next article we will consider further the practical implications of proclaiming the Lord’s death.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.