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शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 218

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 63


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (5) 


हम प्रेरितों 2:42 में दी गई व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों को देखते चले आ रहे हैं, जिनका पालन आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर किया करते थे। इससे वे, हर परिस्थिति में अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ खड़े रह सके, आत्मिक जीवन में उन्नति कर सके, और कलीसियाएं भी बढ़ती चली गईं। प्रेरितों 2:42 में चार बातें दी गई हैं, जिनमें से तीन हम देख चुके हैं, और चौथी, प्रार्थना करने, को देख रहे हैं। अभी तक हमने देखा है कि प्रार्थना करना केवल परमेश्वर से माँगना या कुछ करने के लिए कहना नहीं है, वरन उसके साथ वार्तालाप करना, अपनी हर बात उसके साथ साझा करना, उससे मार्गदर्शन, निर्देश, और सहायता प्राप्त करना है। हमने यह भी देखा है कि परमेश्वर चाहता है कि उसके लोग उसके साथ हर बात के लिए निरन्तर प्रार्थना के भाव में बने रहें। और फिर हमने परमेश्वर के ऐसा चाहने के कारण, और ऐसा करने से मसीही विश्वासियों को होने वाले लाभ, मिलने वाली सुरक्षा के बारे में भी देखा और समझा है। आज हम इसी विषय पर आगे बढ़ते हुए परमेश्वर के साथ प्रार्थना में बने रहने से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों को देखेंगे।

 

परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में, प्रेरित पौलुस ने लिखा है “किसी भी बात की चिन्‍ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और बिनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख उपस्थित किए जाएं। तब परमेश्वर की शान्‍ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी” (फिलिप्पियों 4:6-7)। अर्थात, हर बात के लिए प्रार्थना और बिनती में परमेश्वर के सम्मुख बने रहने से हमारे हृदय और विचार परमेश्वर की शान्ति और सुरक्षा में स्थिर बने रहेंगे। हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि जब हम परमेश्वर के साथ निरन्तर प्रार्थना, या उससे वार्तालाप में बने रहते हैं, तो किस प्रकार से यह शैतान को हमारे अन्दर कोई गलत बात को डालने से रोके रहता है, और हमें भी अपने मनों को शुद्ध और स्वच्छ रखने के लिए तैयार करता है, उकसाता है। साथ ही अब हम यहाँ से देखते हैं कि प्रार्थना के भाव में बने रहना, परमेश्वर की संगति में बने रहना हमारे लिए एक अद्भुत, ईश्वरीय शान्ति का स्त्रोत है, जो किसी भी परिस्थिति में हमें विचलित नहीं होने देगा, और शैतान द्वारा बहकाए जाने, पथभ्रष्ट किए जाने से भी बचाए रखेगा।


प्रार्थना करना, परमेश्वर की सेवा करना भी है। लूका 2:36-37 में लिखा है “हन्नाह नाम की एक नबिया थी जो आशेर-वंशी फनुएल की बेटी थी। वह अत्यंत बूढ़ी हो चली थी और विवाह के पश्चात सात वर्ष तक अपने पति के साथ रही थी, और चौरासी वर्ष की आयु तक विधवा रही। वह मन्दिर को कभी नहीं छोड़ती थी वरन् रात-दिन उपवास और प्रार्थना करके सेवा में लगी रहती थी। [IBP बाइबल ]” (BSI की हिन्दी बाइबल में “सेवा” के स्थान पर “उपासना” शब्द प्रयोग किया गया है। अधिकाँश अंग्रेजी अनुवादों में मूल यूनानी भाषा के शब्द का अनुवाद “serve अर्थात सेवा” ही किया गया है, किन्तु कुछ ने “worship अर्थात आराधना या उपासना” भी किया है।) अर्थात, परमेश्वर के वचन के अनुसार, उपवास और प्रार्थना करना, परमेश्वर की सेवा करने, उसकी आराधना या उपासना करने का एक स्वरूप भी है। हम सभी अपने अनुभवों से जानते हैं कि कुछ लोगों को प्रार्थना करने का वरदान प्राप्त हुआ होता है, और बाइबल में भी इसके विषय एक संकेत मिलता है, “यदि तुम में कोई दुखी हो तो वह प्रार्थना करे: यदि आनन्‍दित हो, तो वह स्‍तुति के भजन गाए। यदि तुम में कोई रोगी हो, तो कलीसिया के प्राचीनों को बुलाए, और वे प्रभु के नाम से उस पर तेल मल कर उसके लिये प्रार्थना करें। और विश्वास की प्रार्थना के द्वारा रोगी बच जाएगा और प्रभु उसको उठा कर खड़ा करेगा; और यदि उसने पाप भी किए हों, तो उन की भी क्षमा हो जाएगी। इसलिये तुम आपस में एक दूसरे के सामने अपने अपने पापों को मान लो; और एक दूसरे के लिये प्रार्थना करो, जिस से चंगे हो जाओ; धर्मी जन की प्रार्थना के प्रभाव से बहुत कुछ हो सकता है” (याकूब 5:13-16)। यहाँ पर प्रार्थना के विभिन्न प्रभावों के साथ, अन्त में, पद 16 में लिखा है “धर्मी जन की प्रार्थना के प्रभाव से बहुत कुछ हो सकता है।” प्रार्थना के ये विभिन्न प्रभाव, प्रार्थना द्वारा परमेश्वर की विभिन्न प्रकार की सेवकाई और उपासना को दिखाते हैं।

 

प्रार्थना न करना, परमेश्वर के विरुद्ध पाप करना है। इस्राएल ने अपनी मन-मानी की, परमेश्वर के स्थान पर, अपनी अगुवाई करने के लिए एक राजा की मांग की। शमूएल नबी इस बात को लेकर बहुत दुखी हुआ, किन्तु परमेश्वर ने उसे ढाढ़स दिया और शाऊल को इस्राएल पर राजा नियुक्त करवा दिया - 1 शमूएल 12 अध्याय देखिए। उनके किए के कारण शमूएल की चेतावनी को सुनकर इस्राएल के लोगों ने शमूएल से विनती की, कि वह उनकी जान बचाने के लिए यहोवा से प्रार्थना करे (1 शमूएल 12:19)। तब शमूएल ने यह कहते हुए, कि उन्होंने बुराई तो की है (पद 20) उन्हें आश्वस्त किया कि न तो यहोवा उनको तजेगा, और न वह स्वयं उनके लिए प्रार्थना करना छोड़ेगा (पद 22, 23)। यहाँ पर पद 23 पर विशेष ध्यान कीजिए “फिर यह मुझ से दूर हो कि मैं तुम्हारे लिये प्रार्थना करना छोड़कर यहोवा के विरुद्ध पापी ठहरूं; मैं तो तुम्हें अच्छा और सीधा मार्ग दिखाता रहूंगा।” इस्राएल के लोगों के बुरा करने, परमेश्वर के स्थान पर एक मनुष्य को अपनी अगुवाई के लिए चुनने के बावजूद, परमेश्वर का नबी शमूएल यह समझता था कि उनके लिए प्रार्थना करना छोड़ना, परमेश्वर के विरुद्ध पाप करना है। साथ ही शमूएल उन पथभ्रष्ट इस्राएलियों के लिए उसकी प्रार्थना का विषय भी बताता है “मैं तो तुम्हें अच्छा और सीधा मार्ग दिखाता रहूंगा।” परमेश्वर के प्रति उनके दुर्व्यवहार के बावजूद जब परमेश्वर ने ही उन्हें नहीं छोड़ा, तो फिर परमेश्वर का नबी उन्हें क्योंकर छोड़ सकता था? यह हमारे लिए एक बहुत गम्भीर और महत्वपूर्ण शिक्षा रखता है - परमेश्वर के लोगों के लिए प्रार्थना करते रहें, चाहे हम उनसे, उनकी बातों से, उनके व्यवहार से सहमत न हों, तब भी। हमें परमेश्वर के विरुद्ध उनकी बातों और कार्यों में सम्मिलित नहीं होना है, किन्तु शमूएल के समान उन्हें अच्छा और सीधा मार्ग दिखाने के लिए प्रार्थना करते रहना है।


आज हमने प्रार्थना से सम्बन्धित तीन महत्वपूर्ण बातों को देखा है - प्रार्थना परमेश्वर की शान्ति का स्त्रोत है; परमेश्वर की सेवा और उपासना करना है; और प्रार्थना न करना परमेश्वर के विरुद्ध पाप करना है। अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 63


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (5)


We have been studying practical Christian living from Acts 2:42, things that the initial Christian Believers continued doing steadfastly. Because of this they could stand firm and steady in their Christian lives in all circumstances, were edified in their spiritual lives, and the churches continued to grow. There are four things given in Acts 2:42, and we have seen about three of them, and are now considering the fourth one, prayer. So far, we have seen that praying is not just asking for something from God, or asking God to do something. Rather, it is conversing with God, sharing about everything with Him, and receiving guidance, instructions, and help from Him. We have also seen that God wants His people to always remain in an attitude of prayer with Him for everything. And then, we saw why God wants this, and have also seen and understood about the benefits, the security, a Christian Believer receives on doing this. Today, we will move ahead on this topic and see some more things related to being in an attitude of prayer before God.


Under the guidance of the Holy Spirit, the Apostle Paul has written “Be anxious for nothing, but in everything by prayer and supplication, with thanksgiving, let your requests be made known to God; and the peace of God, which surpasses all understanding, will guard your hearts and minds through Christ Jesus” (Philippians 4:6-7). In other words, by remaining in prayer before God for everything keeps our hearts and minds in peace and security from God. In the previous articles we have seen that when we continually remain in prayer, or conversation with God, then how it prevents Satan from placing anything wrong in us, and also prepares us, makes us keep our hearts pure and clean. Now, here we see that remaining in an attitude of prayer, being in fellowship with God, is the source for a wonderful divine peace for our lives, that will not let us become perturbed in any circumstance, and will also keep us safe and secure from being misled by Satan.


To pray is also to serve God. It is written in Luke 2:36-37 “Now there was one, Anna, a prophetess, the daughter of Phanuel, of the tribe of Asher. She was of a great age, and had lived with a husband seven years from her virginity; and this woman was a widow of about eighty-four years, who did not depart from the temple, but served God with fastings and prayers night and day.” Most Bible translations have translated the original Greek word as “serve,” but some have also translated it as “worship.” In other words, according to the Word of God, fasting and praying is also a way of serving God, or worshiping God. We all know from our own experiences that some of God’s people have the gift of praying for others, and we have an indication about this in the Bible, “Is anyone among you suffering? Let him pray. Is anyone cheerful? Let him sing psalms. Is anyone among you sick? Let him call for the elders of the church, and let them pray over him, anointing him with oil in the name of the Lord. And the prayer of faith will save the sick, and the Lord will raise him up. And if he has committed sins, he will be forgiven. Confess your trespasses to one another, and pray for one another, that you may be healed. The effective, fervent prayer of a righteous man avails much” (James 5:13-16). Here, along with the various effects of prayer, at the end, in verse 16 is written “The effective, fervent prayer of a righteous man avails much.” These various effects of prayer place before us the various types of worship and serving of God.


Not to pray, is to sin against God. Israel insisted on getting what they wanted, i.e., have a human king to lead them, instead of being led by God. God’s prophet Samuel was very hurt by this, but God consoled him, and asked him to anoint Saul as the King of Israel - see 1 Samuel chapter 12. On hearing Samuel’s warnings for what they had done, the people of Israel wanted Samuel to pray for them to God to save their lives (1 Samuel 12:19). Then, Samuel said to them that though they had done wrong (verse 20), assured them that neither will God forsake them, nor will he himself stop praying for them (verses 22, 23). Here, pay attention to verse 23 “Moreover, as for me, far be it from me that I should sin against the Lord in ceasing to pray for you; but I will teach you the good and the right way.” Although the people of Israel had acted wrongly, had gone against God, yet God’s prophet Samuel understood that to stop praying for them, would be sinning against God. Samuel also told those mistaken Israelites what he would be praying for about them “but I will teach you the good and the right way.” When despite their derogatory behavior towards Him, God did not forsake them, then how could God’s prophet forsake them? This puts before us a very serious and important lesson - to keep praying for God's people, even when we do not agree with them, with their behavior, with what they have to say. We must not join with them in what they say and do contrary to God, but like Samuel, we should continue to pray for God to show to them the good and right way.


Today we have seen three important things related to prayer - prayer is the source of God’s peace; it is to serve and worship God; and not praying is to sin against God. In the next article we will see ahead from here.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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