मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 19
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बाइबल के अनुसार मसीही विश्वास - सदा कार्यरत रहने वाली शिष्यता (2)
पिछले लेख में हमने प्रभु यीशु मसीह का शिष्य होने एक गुण पर विचार करना आरम्भ किया था - प्रभु यीशु का शिष्य, प्रभु के समान ही परमेश्वर के कार्य में लगा रहता है। हमने यह भी देखा था कि इस प्रकार कार्यरत रहना, न केवल प्रभु यीशु के लिए, वरन उत्पत्ति में अदन की वाटिका के समय से ही प्रत्येक परमेश्वर के जन, और आज प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित ज़िम्मेदारी है। यद्यपि वचन यह सिखाता है कि जो लोग प्रभु की ओर से, प्रभु के लोगों के मध्य में आत्मिक बातों की सेवकाई करते हैं, उन लोगों की शारीरिक आवश्यकताओं की देखभाल उन लोगों के द्वारा की जाए जिनके मध्य वे सेवकाई करते हैं (1 कुरिन्थियों 9:1-14)। किन्तु जैसा यहाँ पर पद 12 संकेत करता है, इस सुविधा का दुरुपयोग, अथवा ज़रा सा भी अनुचित प्रयोग, सुसमाचार प्रचार में बाधा डाल सकता है; इसीलिए इससे आगे पद 15-17 में पौलुस ने अपने उदाहरण से दिखाया कि उसने इस सुविधा का उपयोग नहीं किया, किन्तु परिश्रम करके अपना जीवन यापन किया। आज हम पौलुस द्वारा इस सन्दर्भ में कही गई बातों को देखेंगे।
प्रेरित पौलुस ने अपने जीवन के उदाहरण से दिखाया कि वह परिश्रम करके अपनी आजीविका कमाता था जिससे वह किसी पर भी बोझ न हो, और मसीही सेवकाई में भी लगा रहता था “और अपने ही हाथों से काम कर के परिश्रम करते हैं। लोग बुरा कहते हैं, हम आशीष देते हैं; वे सताते हैं, हम सहते हैं” (1 कुरिन्थियों 4:12); “क्योंकि, हे भाइयों, तुम हमारे परिश्रम और कष्ट को स्मरण रखते हो, कि हम ने इसलिये रात दिन काम धन्धा करते हुए तुम में परमेश्वर का सुसमाचार प्रचार किया, कि तुम में से किसी पर भार न हों” (1 थिस्स्लुनीकियों 2:9); “और किसी की रोटी सेंत में न खाई; पर परिश्रम और कष्ट से रात दिन काम धन्धा करते थे, कि तुम में से किसी पर भार न हो” (2 थिस्स्लुनीकियों 3:8); पौलुस अपनी उस कमाई से औरों की सहायता भी करता था “परन्तु जिस तरह माता अपने बालकों का पालन-पोषण करती है, वैसे ही हम ने भी तुम्हारे बीच में रह कर कोमलता दिखाई है” (1 थिस्स्लुनीकियों 2:7); “मैं तुम्हारी आत्माओं के लिये बहुत आनन्द से खर्च करूंगा, वरन आप भी खर्च हो जाऊंगा...” (2 कुरिन्थियों 12:15)। उसने ऐसा ही करने की शिक्षा मसीही विश्वासियों को भी दी “और जैसी हम ने तुम्हें आज्ञा दी, वैसे ही चुपचाप रहने और अपना अपना काम काज करने, और अपने अपने हाथों से कमाने का प्रयत्न करो” (1 थिस्स्लुनीकियों 4:11); और यहाँ तक भी कहा कि “और जब हम तुम्हारे यहां थे, तब भी यह आज्ञा तुम्हें देते थे, कि यदि कोई काम करना न चाहे, तो खाने भी न पाए” (2 थिस्स्लुनीकियों 3:10)।
मसीह यीशु के शिष्यों के लिए संदेश और निर्देश स्पष्ट है - परमेश्वर पिता के समान प्रभु यीशु भी कार्य करता रहा; प्रभु ने शिष्यों को चुना और उनके लिए भी प्रयोजन रखे; और भावी मसीही शिष्यों के लिए भी यही शिक्षा और निर्देश दिए कि मसीही सेवकाई में संलग्न होने पर भी वे औरों पर बोझ न बने, परंतु अपने ही परिश्रम से अपना जीवन यापन करें, तथा औरों की भी सहायता करें। मसीही विश्वासी होने का अर्थ औरों पर निर्भर होकर अपना घर चलाना नहीं है, वरन प्रभु के लिए उपयोगी बनकर प्रभु के घर के लिए कार्य करना है। किन्तु सबसे पहली बात तो यह सुनिश्चित करना है कि क्या आप वास्तव में प्रभु यीशु के सच्चे समर्पित शिष्य हैं अथवा नहीं? क्योंकि मसीही जीवन से सम्बन्धित अन्य सभी बातें इस एक बात पर ही निर्भर हैं।
इसलिए यदि आप अभी तक मसीह यीशु के समर्पित एवं आज्ञाकारी शिष्य नहीं बने हैं, तो समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, धर्म-कर्म-रस्म की व्यर्थ धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आना और उसे निभाना अनिवार्य है। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि जिस धर्म तथा उसकी बातों का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे कोई लाभ नहीं हुआ, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा। अभी समय रहते अपने जीवन में इन अनिवार्य बदलावों को कर लीजिए; इससे पहले कि कुछ भी कर पाने का समय और अवसर जाता रहे।
यदि आपने अभी तक नया जन्म, उद्धार नहीं पाया है, और प्रभु यीशु से अपने पापों की क्षमा नहीं माँगी है, तो अभी आपके पास यह कर लेने का समय और अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
और
कृपया अपनी स्थानीय भाषा में अनुवाद और प्रसार करें
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Christian Faith & Discipleship – 19
Biblical Christian Faith - a Discipleship of Being at Work (2)
In the previous article we had begun considering a characteristic of being the disciple of the Lord Jesus Christ - the disciple of the Lord Jesus, like the Lord Jesus keeps working for the Lord. We had also seen that being involved like this was not just for the Lord Jesus, rather, since creation, was made the responsibility of every man of God, and today is the responsibility of every Christian Believer. Although the Word teaches us that those who have been ordained by God to work amongst God's people, meeting their physical needs is the responsibility of those amongst whom they labor (1 Corinthians 9:1-14). But, as verse 12 here indicates, the misuse, or even the slightest of inappropriate use of this privilege can create problems in the preaching of the gospel; therefore, in the subsequent verses 15-17 Paul shows through his own example that he did not utilize this right, rather labored to earn his living. Today we will consider some things stated by Paul in this context.
The Apostle Paul illustrated this principle very well through his life; he used to work and earn for himself, so that he is never a burden upon anyone, and was also deeply involved in Christian ministry “And we labor, working with our own hands. Being reviled, we bless; being persecuted, we endure” (1 Corinthians 4:12); “For you remember, brethren, our labor and toil; for laboring night and day, that we might not be a burden to any of you, we preached to you the gospel of God” (1 Thessalonians 2:9); “nor did we eat anyone's bread free of charge, but worked with labor and toil night and day, that we might not be a burden to any of you” (2 Thessalonians 3:8); Paul even helped others with his earnings “But we were gentle among you, just as a nursing mother cherishes her own children” (1 Thessalonians 2:7); “And I will very gladly spend and be spent for your souls…” (2 Corinthians 12:15). Paul gave instructions to the Christian Believers to do the same “that you also aspire to lead a quiet life, to mind your own business, and to work with your own hands, as we commanded you” (1 Thessalonians 4:11); and went to the extent of saying “For even when we were with you, we commanded you this: If anyone will not work, neither shall he eat” (2 Thessalonians 3:10).
From this, the message and instructions for Christian Believers are quite clear - Christian discipleship is not living a life of ease and relaxation, but to be working for the Lord to preach His gospel and fulfilling the work He has kept for us. God the Father, and the Lord Jesus Christ have been working, and are still at work, so, how can God’s people not be working like them? The Lord Jesus Christ chose His disciples and instructed them that in their Christian ministry they should not be a burden upon others, but they should work for their living as well as help others with what they earn. To be a disciple of Christ Jesus does not mean to be dependent upon others to make ends meet and look after our families; rather it means to be useful and fruitful in and for the House of the Lord. But the first and foremost thing is to be certain whether or not you are an actually surrendered true disciple of the Lord? Because everything else related to the Christian life is dependent upon this one thing.
Therefore, if you have not yet become an obedient and surrendered disciple of the Lord Jesus, then come out of the mentality of thinking yourself to be righteous because of your religion-works-rituals and truly become a disciple of the Lord Jesus. Lest when your eyes open in the next world, you come to realize that the religion and its related rituals you so diligently observed throughout your life were vain, had no benefits, and now there is no opportunity left to make amends for your errors; all that you have is suffering the penalty for eternity. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
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