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आरम्भिक बातें – 69
मरे हुओं का जी उठना – 4
प्रभु यीशु का पुनरुत्थान – प्रमाणित (2)
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरंभिक बातों में से पाँचवीं, मरे हुओं का जी उठना, उन सभी मसीही विश्वासियों के लिए जिन्होंने वास्तव में नया-जन्म पाया है, इसी लिए एक निर्धारित तथ्य है, क्योंकि प्रभु यीशु मरे हुओं में से जी उठा है। प्रभु यीशु मसीह का मृतकों में से जी उठना, मसीही विश्वास की धुरी है; यदि प्रभु यीशु मरे हुओं में से जिलाया नहीं गया तो फिर उस के अनुयायियों के जिलाए जाने और अनन्त काल तक उस के साथ स्वर्ग में रहने का भी कोई आश्वासन नहीं है। क्योंकि प्रभु का पुनरुत्थान मसीही विश्वास तथा सुसमाचार के लिए परम-महत्व की घटना है, इस लिए मसीही विश्वासियों को उस के बारे में सीखना और उस के अभिप्रायों को समझना अनिवार्य है। वर्तमान में हम प्रभु के पुनरुत्थान के तात्पर्यों पर तीन शीर्षकों के अन्तर्गत विचार कर रहे हैं: यह भविष्यवाणी किया हुआ है; यह प्रमाणित है; और यह परमेश्वर की सामर्थ्य है। मसीही विश्वास के लिए प्रभु के पुनरुत्थान के केन्द्रीय महत्व का होने के कारण, शैतान ने प्रभु के जी उठने के दिन और समय से ही उस के बारे में झूठी कहानियाँ फैलाना आरम्भ कर दिया था, कि किसी तरह से लोगों में इस बात के सही और सत्य होने के प्रति अविश्वास या सन्देह उत्पन्न करे। पिछले लेख में हम ने शैतान द्वारा, अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए फैलाई गई कुछ झूठी कहानियों के बारे में देखा था; आज भी हम इसी बात को ज़ारी रखेंगे, और उस के द्वारा प्रभु यीशु के जी उठने को गलत दिखाने के उद्देश्य से फैलाई गई कुछ अन्य झूठी कहानियों के बारे में देखेंगे।
· एक कहानी यह भी कही जाती है कि प्रभु यीशु मसीह को क्रूस पर नहीं चढ़ाया गया, वरन उसके स्थान पर उसके जैसा दिखने वाला कोई व्यक्ति चढ़ा दिया गया। किन्तु ध्यान कीजिए कि जिसे यहूदियों ने पूरे लश्कर के साथ जाकर पकड़ा; सारी रात से एक से दूसरी कचहरी में घसीटते रहे, मारते-पीटते रहे, यदि वह यीशु नहीं था, तो फिर उसे दिन चढ़े छोड़ क्यों नहीं दिया गया? रोमी अधिकारी पिलातुस ने भी यीशु को जाँचा, पहचाना कि वह निर्दोष है, उसे छोड़ने के भरसक प्रयास किए, अन्ततः फिर कोड़े लगाने के लिए और क्रूस पर चढ़ाने के लिए अपने सैनिकों को सौंप दिया। और यदि उन्होंने वास्तव में प्रभु यीशु ही को पकड़ा था, तो फिर प्रभु उनके हाथों से कब और कैसे बच निकला? और जिस व्यक्ति को उसके स्थान पर क्रूस पर चढ़ाया गया, वह व्यक्ति अकारण ही क्यों चुपचाप यह सब कुछ सहता रहा, और फिर क्रूस पर भी चढ़ गया? और फिर क्रूस पर से कहे गए सात वचनों के साथ कैसे इस बात का तालमेल बैठा सकते हैं, यदि प्रभु वहाँ था यही नहीं? और ये सात वचन कोई साधारण वचन नहीं है, वरन चकित कर देने वाले हैं – प्रभु द्वारा अपने सताने वालों को क्षमा करना, वहाँ उपस्थित यूहन्ना को अपनी माता को सौंपना, साथ टंगे हुए डाकू को क्षमा और स्वर्ग का आश्वासन देना, वचन में लिखी उस के विषय की भविष्यवाणियों पर ध्यान करके उन्हें पूरा करना, परमेश्वर को पिता कहना, आदि बातें कोई साधारण मनुष्य कैसे कह सकता या पूरा कर सकता था? साथ ही यीशु की माता मरियम और प्रभु का शिष्य यूहन्ना वहाँ थे, सब देख रहे थे, वे कैसे धोखा खा सकते थे? प्रभु यीशु ने अपनी माँ को यूहन्ना के हाथों में सौंपा था, यही क्रूस पर यीशु ही के होने की पुष्टि करता है (यूहन्ना 19:25-27)।
· कुछ अन्य कहते हैं कि प्रभु मरा नहीं था, केवल बेहोश हुआ था, फिर कब्र में ठण्डे में विश्राम करने के बाद वह होश में आया, और कब्र में से बाहर आ गया। विचार कीजिए, जिस बेरहमी से प्रभु को क्रूस पर चढ़ाने से पहले उसे मारा-पीटा गया था, उसके शरीर में अपना क्रूस उठाकर पूरे रास्ते चलने की सामर्थ्य भी शेष नहीं रही थी, फिर हाथों-पैरों में कील ठोंके गए, छाती में भाला मारा गया (यूहन्ना 19:34), और सैनिकों ने पुष्टि की, कि वह मर गया है, इसलिए उसकी टांगें नहीं तोड़ीं (यूहन्ना 19:32-33) – इन सभी प्रमाणों के होते हुए, यह कैसे मान लिया जाए कि यीशु मरा नहीं था, केवल बेहोश हुआ था? प्रकट है कि यह कहानी पूर्णतः निराधार है। और फिर तीन दिन कब्र में लहूलुहान और बिना भोजन या पानी के पड़े रहने के बाद किस मनुष्य के शरीर में यह शक्ति बचेगी कि वह 50 सेर मसालों के लेप और लपेटे हुए कपड़े (यूहन्ना 19:39-40) को खोल कर, अपने कीलों से छेदे हुए हाथों और पैरों तथा बेधी हुई छाती के साथ कब्र के मुँह पर लुढ़काए गए भारी पत्थर को हटा कर बाहर आ जाए, पहरेदारों को भी भगा दे, और चलकर वहाँ से चला जाए।
· एक अन्य कहानी है कि शिष्यों ने अपनी मनःस्थिति के कारण, प्रभु की आत्मा को देखा था न कि उसके जी उठे शरीर को। प्रभु ने स्वयं ही इस धारणा का खण्डन प्रदान किया – लूका 24:38-43; और थोमा को भी आमंत्रित किया कि वह अपनी रखी गई शर्त के अनुसार उसके घावों को छू कर देख ले (यूहन्ना 20:26-27)। और प्रभु चालीस दिन तक अलग-अलग लोगों को अलग-अलग स्थानों पर दिखाई देता रहा, उनके साथ बात करता रहा; एक साथ पाँच सौ से अधिक शिष्यों को भी दिखाई दिया (1 कुरिन्थियों 15:5-8) – क्या सभी एक ही भ्रम के शिकार थे; और इस भ्रम के कारण अपनी जान पर भी खेलकर प्रचार करने से नहीं रुके? क्या एक भ्रम के लिए वे शिष्य अपने उस अनुभव के बाद उस के लिए दुःख उठाने और मारे जाने को भी तैयार हो गए। जिस ने प्रभु का अनुभव कर लिया है, वह उससे पलट नहीं सकता है।
जब हम प्रभु यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान का इनकार करने के प्रयासों पर विचार करते हैं, और पवित्र शास्त्र के तथ्यों के आधार पर उन मन-गढ़न्त कहानियों का विश्लेषण करते हैं, तो यह प्रकट हो जाता है कि बाइबल के तथ्यों के सामने कोई भी कहानी खड़ी नहीं रह सकती है। अगले लेख में हम बाइबल से बाहर की कुछ बातों को देखेंगे जो प्रभु यीशु के पुनरुत्थान की पुष्टि करती हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 69
Resurrection of the Dead – 4
Lord Jesus’s Resurrection – Proven (2)
The resurrection of the dead, the fifth of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, is assured for those Christian Believers who truly are Born-Again, because of the resurrection of the Lord Jesus from the dead. The Lord Jesus’s resurrection is the pivotal event for the Christian Faith; if the Lord Jesus did not rise from the dead, then there is no assurance for His followers of rising from the dead and being with Him in heaven for eternity. Since the resurrection of the Lord is of paramount importance for the Christian Faith and gospel, therefore, the Christian Believers must learn and understand it and its implications well. We are presently considering the implications of the Lord’s resurrection under three headings: that it was prophesied; it is proven; and it is the power of God. Of these three, we had seen the first one, and presently are considering the second, i.e., it is a well-established and proven event. Because of its crucial importance for the Christian Faith, Satan, from the very day and time of the Lord’s resurrection, started spreading false stories about it, to try to negate it and create doubts in people’s hearts about its veracity. In the last article we had seen some of the false stories planted by Satan to achieve his purposes; today we will continue with the same theme and see some other false stories that he has spread around to try and falsify the fact of the Lord’s resurrection.
· Another story that is told is that the Lord Jesus was not crucified, but in His place, someone else of a similar appearance was crucified. Think it over, He whom the Jews had gone and caught with a large armed contingent, then dragged Him from one court to another throughout the night, had Him severely beaten up, if he wasn’t Jesus, then why did they not release Him and let Him go at daybreak? The Roman Governor Pilate also examined Lord Jesus, talked with Him, realized that He was innocent, and tried his utmost to have him released, but in vain, and so eventually had Him scourged and handed Him over to the Jews to be crucified. On the other hand, if they had actually caught Lord Jesus, then when and how could Jesus escape out of their hands? Moreover, the person who was crucified in His place, why would he, being innocent, silently, without any protest, suffer all this and let himself be crucified? How can they reconcile Jesus’s seven Words from the Cross with His not even being there; and the seven Words are not ordinary statements but astounding ones - forgiving His enemies tormenting Him, handing over His mother to His disciple John present there, assuring the thief crucified with Him of forgiveness and salvation, fulfilling the prophecies about Him written in the Scriptures, addressing God as Father, etc. are things that no mere mortal can say or fulfill! Moreover, Jesus’s mother Mary and His disciple John were there, witnessing everything, how could they be deceived about it? That the Lord Jesus handed over His mother to John from the cross (John 19:25-27) by itself proves that the one crucified was the Lord Jesus Himself.
· Some others say that the Lord Jesus did not die on the cross, but only became unconscious; later in the cool of the tomb, He regained consciousness, and then walked out of the tomb. Just think it over, before being crucified he was severely beaten up and then scourged, He did not even have the strength to carry His cross all the way; He was then nailed to the cross with the nails through His hands and feet, and His chest was pierced with a spear (John 19:34), then the soldiers also confirmed that He had died, therefore, they did not break His legs (John 19:32-33) - having so many proofs and affirmation, how can it be accepted that Jesus never died, he only became unconscious? It is quite evident that this is a baseless, concocted story. Moreover, how can a man lying for three days in the tomb, bleeding from the wounds, without any food or water, and without any help, have the ability and strength to unwrap and extricate himself from the cloth he was wrapped in along with 100 pounds of mixture of myrrh and aloes, using his hands pierced with nails, then walk out on feet pierced with nails, and push open the stone that had been placed over the mouth of the grave with the pierced hands, side, and feet, chase away the guards at the grave, and just walk away?
· Another concocted story is that the disciples, because of their terrified mental condition, only imagined that they saw the Lord Jesus, or maybe His spirit or ghost but not His resurrected body. The Lord Jesus Himself provided the against this false notion in Luke 24:38-43, and also invited Thomas to examine Him and His wounds as he had wanted to do, and settle his doubts (John 20:26-27). The Lord, after His resurrection, appeared to different people at different times and at different places, talked with them, and once appeared to more than five hundred disciples at one time (1 Corinthians 15:5-8) - were all of these under the same delusion? If they were under a delusion, would they have been able to jeopardize their lives to preach the gospel the way they did; and were willing to even die for it? The person who has experienced the Lord Jesus personally, can never turn away from his experience, never deny it.
When we consider the attempts to deny the death and resurrection of the Lord Jesus, and analyze the concocted stories in light of the Scriptural evidence, it becomes clear that none of the stories can stand up to the Biblical facts. In the next article we will consider some extra-Biblical facts in support of the resurrection of the Lord Jesus.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.