पाप और उद्धार को समझना – 30
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पाप का समाधान - उद्धार - 27
उद्धार का कार्य प्रभु यीशु में संपन्न (1)
पिछले लेख में हमने देखा था कि मानवजाति के पाप के समाधान और निवारण के लिए एक सिद्ध मनुष्य में जो गुण उपलब्ध होने चाहिएं, वे सभी प्रभु यीशु मसीह में विद्यमान थे; और वे मनुष्य के पाप के प्रभावों से छुटकारा देने के लिए सर्वथा उपयुक्त व्यक्ति थे। आज हम देखेंगे कि प्रभु यीशु ने सारे संसार के सभी मनुष्यों के लिए यह उद्धार का कार्य कैसे संपन्न किया? प्रभु यीशु पूर्णतः मनुष्य होने के साथ, पूर्णतः परमेश्वर भी हैं। अपने पृथ्वी के समय पर वे ये दोनों बातें अपने जीवन, कार्यों, शिक्षाओं और आश्चर्यकर्मों के द्वारा - जिनमें मृतकों को फिर से जिला उठाना भी सम्मिलित है, दिखा चुके थे, प्रमाणित कर चुके थे; और उनके विरोधी भी स्वीकार करते थे कि वे अलौकिक हैं। यह एक सामान्य समझ की बात है कि परमेश्वर की पवित्रता किसी भी रीति से मलिन नहीं हो सकती है, उसमें अपवित्रता नहीं आ सकती है; और न ही उसकी सिद्धता किसी भी रीति से कम हो सकती है। यदि परमेश्वर की पवित्रता और सिद्धता में किसी भी प्रकार से कोई भी घटी आ सकती, तो फिर न तो वह पवित्रता और सिद्धता, और न ही उस पवित्रता और सिद्धता को रखने वाला परमेश्वर पूर्णतः पवित्र और सिद्ध एवं सर्वशक्तिमान माना जा सकता है। फिर तो वह जो परमेश्वर की सिद्धता और पवित्रता को घटा सकता है परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली होगा, और परमेश्वर फिर परमेश्वर नहीं रह जाएगा। तात्पर्य यह है कि पवित्र और सिद्ध परमेश्वर की पवित्रता और सिद्धता की तुलना में कितना भी जघन्य, कितना भी बड़ा, संख्या में कितने भी अधिक पाप क्यों न हों, वे उस पवित्रता और सिद्धता को कम नहीं कर सकते हैं। प्रभु यीशु ने यह बात अपने जीवन भर निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष रहकर दिखा दी, कि पापियों की संगति के कारण उनकी पवित्रता और सिद्धता पर कोई आंच नहीं आई, वह कभी किसी भी रीति से कम नहीं हुई; यहाँ तक कि शैतान द्वारा चालीस दिन तक परखे जाने पर भी नहीं!
अपनी पवित्रता और सिद्धता को भली-भांति दिखाने और प्रमाणित करने के बाद, अपने बलिदान देने के समय पर प्रभु यीशु मसीह ने सारे संसार के सभी लोगों - जो जीवन जी चुके थे, जो तब वर्तमान थे, और जो आने वाले थे, उन सभी के सारे पापों को अपने ऊपर ले लिया। यहाँ यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि समय का बंधन और सीमाएं, अर्थात, भूत-वर्तमान-भविष्य काल हम मनुष्यों और सृजे गए जगत के लिए हैं; परमेश्वर के लिए समय की कोई बंदिश नहीं है। इस संदर्भ में कुछ बाइबल के कुछ पद देखिए: “क्योंकि हजार वर्ष तेरी दृष्टि में ऐसे हैं, जैसा कल का दिन जो बीत गया, या रात का एक पहर” (भजन 90:4); “यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक सा है” (इब्रानियों 13:8); “हे प्रियो, यह एक बात तुम से छिपी न रहे, कि प्रभु के यहां एक दिन हजार वर्ष के बराबर है, और हजार वर्ष एक दिन के बराबर हैं” (2 पतरस 3:8)। परमेश्वर समय की सीमा से बंधा हुआ नहीं है, इसलिए उसके लिए सृष्टि के समस्त इतिहास के सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर ले लेना, समय द्वारा प्रभावित अथवा बाधित होने वाले बात नहीं है। प्रभु यीशु द्वारा सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेने को ऐसे समझिए - फर्श पर फैले हुए मैले पानी को जिस प्रकार से स्पंज या पोंछे का कपड़ा, अपनी क्षमता के अनुसार सोख लेता है, फर्श पर से अपने अंदर ले लेता है, और फिर वह मैला पानी फर्श पर नहीं रह जाता है वरन उस स्पंज या कपड़े में आ जाता है, और तब मैला फर्श नहीं, वरन मैला वह स्पंज या कपड़ा हो जाता है। उस स्पंज या कपड़े ने वह सारा मैला पानी कोमलता से अपने अंदर ले लिया और फर्श को स्वच्छ और सूखा बना दिया; किन्तु उस कपड़े या सपंज को अब उसमें विद्यमान उस मैले पानी के कारण निचोड़ा और फटका जाता है - फर्श को कोमलता से स्वच्छ करने वाले को अब उस गंदगी के लिए यातना सहनी पड़ती है, जो उसकी अपनी कभी नहीं थी, वरन उसने बाहर से अपने अन्दर ले ली थी। उसी प्रकार से प्रभु यीशु मसीह ने क्रूस पर समस्त मानवजाति के संपूर्ण पापों को अपने ऊपर ले लिया; उसके लिए लिखा है, “जो पाप से अज्ञात था, उसी को उसने हमारे लिये पाप ठहराया, कि हम उस में हो कर परमेश्वर की धामिर्कता बन जाएं” (2 कुरिन्थियों 5:21) - वह जिसमें पाप की परछाईं भी नहीं थी, वही हमारे लिए स्वयं पाप बन गया, उसने समस्त मानवजाति के सभी पापों को अपने अंदर सोख लिया और मनुष्यों को तो कोमलता से पाप से स्वच्छ कर दिया किन्तु स्वयं पाप से भर गया, उन पापों की मलिनता उसमें आ गई, और प्रभु ने उन पापों की यातना, पाप का दंड और ताड़ना स्वयं सह ली। सभी मनुष्यों के सभी पापों का बोझ, जैसा कि उसके लिए भविष्यवाणी की गई थी “हम तो सब के सब भेड़ों के समान भटक गए थे; हम में से हर एक ने अपना अपना मार्ग लिया; और यहोवा ने हम सभों के अधर्म का बोझ उसी पर लाद दिया” (यशायाह 53:6); “वह अपने प्राणों का दु:ख उठा कर उसे देखेगा और तृप्त होगा; अपने ज्ञान के द्वारा मेरा धर्मी दास बहुतेरों को धर्मी ठहराएगा; और उनके अधर्म के कामों का बोझ आप उठा लेगा” (यशायाह 53:11); उसी पर लाद दिया गया, और उसने उस बोझ को वहन कर लिया।
परमेश्वर ने अदन की वाटिका में ही चेतावनी दी थी कि, पाप, अर्थात वर्जित फल को खा लेने की अनाज्ञाकारिता का परिणाम मृत्यु होगा, “पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना: क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाए उसी दिन अवश्य मर जाएगा” (उत्पत्ति 2:17)। इसीलिए नए नियम में लिखा है, “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23)। हम देख चुके हैं कि यह मृत्यु दो स्वरूप में है - शारीरिक, अर्थात शरीर का मर जाना; और आत्मिक, अर्थात परमेश्वर से दूरी हो जाना। क्रूस पर प्रभु यीशु ने मृत्यु के इन दोनों ही स्वरूपों को सह लिया; सब कुछ पूरा हो जाने के बाद उन्होंने स्वेच्छा से अपने प्राण त्याग दिए, उनकी शारीरिक मृत्यु हो गई “जब यीशु ने वह सिरका लिया, तो कहा पूरा हुआ और सिर झुका कर प्राण त्याग दिए” (यूहन्ना 19:30)। जब वे हम सभी के पापों को अपने ऊपर लिए हुए हमारे लिए “पाप बन गए”, तो परमेश्वर पिता ने, जो पाप के साथ समझौता और संगति नहीं कर सकता है, उसने भी परमेश्वर पुत्र, अर्थात प्रभु यीशु से अपना मुँह मोड़ लिया, समस्त मानवजाति के लिए पाप बन जाने के कारण परमेश्वर पुत्र को परमेश्वर पिता से पृथक होने की अवर्णनीय और असहनीय वेदना में से होकर निकलना पड़ा “तीसरे पहर यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा, इलोई, इलोई, लमा शबक्तनी जिस का अर्थ यह है; हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?” (मरकुस 15:34) - प्रभु यीशु ने हमारे लिए वह आत्मिक मृत्यु भी स्वीकार कर ली, और वहन कर ली। क्योंकि वह हम सब के लिए मर गया, इसलिए उसकी अपेक्षा है कि उस पर और उसके इस बलिदान पर विश्वास के कारण हम उसे अपने जीवनों में प्राथमिक स्थान दें, उसके लिए जीएं “और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:15)।
अगले लेख में हम प्रभु द्वारा उद्धार के कार्य को सम्पन्न किए जाने के बारे में और आगे देखेंगे।
इस प्रकार प्रभु यीशु के हमारे स्थान पर कलवरी के क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने, और तीसरे दिन जी उठने के द्वारा हमारे लिए पापों की क्षमा, उद्धार, परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप हो जाने, और मनुष्य के अदन की वाटिका की स्थिति में बहाल हो जाने का मार्ग बन कर तैयार है, सभी के लिए सेंत-मेंत उपलब्ध है। अब आपके लिए यह प्रश्न है, विचार करने वाली बात है कि जब प्रभु यीशु ने आपको पापों के प्रभाव से छुटकारा देने के लिए जो कुछ भी आवश्यक था, वह सब कर के, मुफ़्त में उपलब्ध करवा दिया है, और उसे आपसे आपका भौतिक एवं सांसारिक कुछ भी नहीं चाहिए; उसे केवल आपका मन चाहिए, और वह भी इसलिए कि वह उसे शुद्ध और पवित्र बना सके, तो फिर यीशु मसीह को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता स्वीकार करने में आपको किस बात का संकोच है? आप यह कदम क्यों नहीं उठाना चाहते हैं? स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
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Understanding Sin and Salvation – 30
The Solution For Sin - Salvation - 27
Lord Jesus Accomplished the Work of Salvation (1)
In the previous article we have seen that all the characteristics that were required in the perfect man to atone for the sins of mankind and provide the eternal solution for the problem of sin, are all present in the Lord Jesus Christ, and He was the one and only appropriate person to redeem man from sin and its deleterious effects. Today, we will see how the Lord Jesus accomplished the work of salvation for mankind. The Lord Jesus, besides being fully man, is also fully God. During His time on earth, He had demonstrated and proven both these things through His life, works, teachings, and miracles - which included resurrecting those who had died; and His opponents too acknowledged His being divine. This is a well-known and understood fact that God’s holiness cannot be diminished or tarnished in any manner, He cannot become unholy by anything, and neither can His perfection decrease or become imperfection by any means. If the holiness and perfection of God could in any way be spoiled or diminished, then neither that holiness and perfection, nor the god claiming to possess that holiness and perfection can be accepted as a perfectly holy, omnipotent, and absolutely perfect god. If this diminution were possible, then whatever or whoever can do this, will automatically be more powerful than that god, and that god would no longer remain as god. The implication is that in comparison to God’s holiness and perfection, howsoever severe, howsoever ignominious a sin may be, or no matter how many and how bad the sins may be, they will never be able to diminish God’s holiness and perfection in any manner, individually or collectively. The Lord Jesus demonstrated this fact through His life on earth, by remaining sinless, spotless, without any guilt of sin, although He remained surrounded by sinful men, interacted with them, worked amongst them, touched and healed them, but nothing could tarnish His holiness and perfection, it never decreased in any manner through anything, not even after being tempted and tested by Satan for forty days!
Having quite adequately demonstrated and proven His holiness, at the time of His sacrificing His life for the sins of all of mankind - all those who had lived before Him, those who were alive during His earthly days, and those who would be born till the time of the end; He voluntarily took upon Himself all the sins of all of mankind. A thing to particularly note over here is that the limits of time as past-present-future is for us humans and the creation; not for God, God is not bound by time. Consider some Bible verses in this context: “For a thousand years in Your sight Are like yesterday when it is past, And like a watch in the night” (Psalm 90:4); “Jesus Christ is the same yesterday, today, and forever” (Hebrews 13:8); “But, beloved, do not forget this one thing, that with the Lord one day is as a thousand years, and a thousand years as one day” (2 Peter 3:8). God is not subject to the limits and control of time; therefore, it is not impossible or difficult for Him to take upon Himself the sins of entire mankind, irrespective of the time of their birth, past, present, or future.
Understand the Lord’s taking upon Himself all the sins of all of mankind through an example - a sponge or cleaning cloth absorbs within it the dirty water on the floor, according to its absorbing capacity, and that dirty water then does not remain on the floor but goes inside the sponge or the cloth. Now, it is no longer the floor that is dirty, but the sponge or the cloth becomes dirty; that sponge or cloth has gently taken up within itself all that dirty water, leaving the floor clean and dry. But now, to get rid of that dirty water, it is the sponge or cloth that is wrung out and shaken up and dried - the sponge or cloth that gently took away the uncleanness from the floor, leaving it clean and dry, has to now suffer a harsh treatment for all that dirtiness within it, which was never its own, but it took it within itself from outside. Similarly, the Lord Jesus, on the cross, took upon Himself all the sins of the entire mankind; it is written of Him, “For He made Him who knew no sin to be sin for us, that we might become the righteousness of God in Him” (2 Corinthians 5:21) - He who did not even have a shadow of sin, became sin for us, became sin personified, by absorbing within Himself all the sins of all the people of the whole of mankind. He gently took away our filthiness, leaving us clean, but Himself became full of sin and its filthiness, and suffered the penalty for all those sins, as had been prophesied about Him, “All we like sheep have gone astray; We have turned, every one, to his own way; And the Lord has laid on Him the iniquity of us all” (Isaiah 53:6); “He shall see the labor of His soul, and be satisfied. By His knowledge My righteous Servant shall justify many, For He shall bear their iniquities” (Isaiah 53:11).
God had warned in the Garden of Eden, that the consequence of eating the forbidden fruit, of disobedience, will be death, “but of the tree of the knowledge of good and evil you shall not eat, for in the day that you eat of it you shall surely die” (Genesis 2:17). Therefore, it is written in the New Testament, “For the wages of sin is death, but the gift of God is eternal life in Christ Jesus our Lord” (Romans 6:23). We have already seen that death has two forms - physical, i.e., the dying of the body; and spiritual, i.e., separation from God. On the cross, the Lord Jesus Christ suffered both these forms of death. After fulfilling everything that had been written about Him in the Scriptures, He voluntarily gave up His Spirit, and His physical body died, “So when Jesus had received the sour wine, He said, "It is finished!" And bowing His head, He gave up His spirit” (John 19:30). At the time, when He had taken upon Himself all the sins of the whole world, when He had become sin for us, then, God who cannot compromise or fellowship with sin, He too turned His face away from God the Son, the Lord Jesus Christ. To pay for the sins of the entire mankind, besides the physical torture and agony of crucifixion, that we have seen earlier, God the Son had to also undergo the indescribable and unbearable agony of separation from God the Father, and He loudly cried out “And at the ninth hour Jesus cried out with a loud voice, saying, "Eloi, Eloi, lama sabachthani?" which is translated, "My God, My God, why have You forsaken Me?"” (Mark 15:34) - for our redemption, the Lord Jesus accepted and suffered the spiritual death or separation from God, as well as the physical death of His earthly body. Since He died for all, therefore He expects that we believe on Him and His sacrifice for us, and because of what He has done for us, we should decide to give Him the primary place in our lives, to live for Him, “and He died for all, that those who live should live no longer for themselves, but for Him who died for them and rose again” (2 Corinthians 5:15).
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.