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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 85
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (27)
प्रार्थना करना, प्रेरितों 2:42 में दी गई उन चार व्यावहारिक बातों में से चौथी है, जो मसीही जीवन के अभिन्न अँग हैं। आरम्भिक मसीही विश्वासी इन चारों का लौलीन होकर पालन किया करते थे। आज भी, शायद ही कोई ऐसा मसीही होगा, जो किसी-न-किसी रूप में प्रार्थना न करता हो। चाहे नियमित ना सही, किन्तु किसी संकट, परेशानी, कठिनाई में तो, उन्हें जैसे भी प्रार्थना करना आता है, वैसे सभी करते हैं। एक “प्रार्थना” है, “प्रभु की प्रार्थना” जो बचपन से ही मसीहियों को रटा दी जाती है, और सामान्यतः सभी मसीही हर अवसर पर, हर बात में, इस प्रार्थना को उसके रटे हुए स्वरूप में बोलते अवश्य हैं। जैसा हम पिछले लेखों में देखते आ रहे हैं, मत्ती 6:9-13 में दी गई यह “प्रार्थना” वास्तव में प्रभु द्वारा दी गई कोई प्रार्थना नहीं है। यह एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके अनुसार मसीहियों को अपनी प्रार्थनाओं को, परमेश्वर से अपने वार्तालाप को एक ऐसा स्वरूप देना है, जिससे उनकी प्रार्थनाएँ को परमेश्वर को स्वीकार्य हो। जैसा हम देख चुके हैं, इस रूपरेखा तक पहुँचने से पहले, मत्ती 6:5-8 में दी गई शिक्षाओं के अनुसार, व्यक्ति को परमेश्वर के सम्मुख आने से, और उससे कुछ कहने से पहले अपने आप को तैयार करना है। लोगों को पद 9-13 में दिए गए शब्द ही “प्रभु की प्रार्थना” के रूप में याद रहते हैं, और वे उन्हें ही बिना विचारे, बिना उन्हें समझे बोलते रहते हैं। इस तथा-कथित “प्रार्थना” का आरम्भ पद 9-10 में, परमेश्वर को ऊँचे पर उठाने, उसका गुणानुवाद करने, उसे आदर और सम्मान देने के साथ होता है; फिर उसके बाद पद 11 से 13a में परमेश्वर से माँगने के विषय हैं; और अन्त फिर से पद 13b में परमेश्वर को आदर और महिमा देने के साथ होता है। तात्पर्य यह कि परमेश्वर से कुछ माँगने, और उससे कुछ प्राप्त करने की आशा रखने वाले को केवल माँगने वाला ही नहीं, वरन परमेश्वर की आराधना करने वाला, अपने जीवन और व्यवहार द्वारा परमेश्वर को आदर सम्मान देने वाला, संसार के सामने उसे ऊँचे पर उठाने वाला भी होना चाहिए। जब व्यक्ति परमेश्वर को आदर और आराधना देगा, तो परमेश्वर भी उसकी आवश्यकताओं को उसे देगा। इस बात को हमने पिछले दो लेखों में परमेश्वर के आरम्भिक सम्बोधन “हे हमारे पिता” और फिर इस सम्बोधन के बाद के वाक्य “तू जो स्वर्ग में है” से जुड़ी हुई, परमेश्वर को आदर और महिमा देने की बातों से सीखा और समझा है। आज हम परमेश्वर से माँगने से पहले, उसकी आराधना करने के विषय को आगे ज़ारी रखेंगे।
इस पद, मत्ती 6:9 का अन्तिम वाक्यांश है “...तेरा नाम पवित्र माना जाए।” अर्थात, परमेश्वर को आदर और महिमा देने, अपने जीवन और व्यवहार से संसार के सामने उसे ऊँचे पर उठाने, में केवल परमेश्वर के साथ पिता और सन्तान का सम्बन्ध, और परमेश्वर के स्थान की तुलना में हमारे स्थान के एहसास की ही भूमिका नहीं है। वरन, जैसा इस पद का यह तीसरा वाक्यांश दिखाता है, परमेश्वर के नाम की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। प्रभु यीशु ने यहाँ पर अपने शिष्यों को सिखाया कि उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि उनके जीवनों और व्यवहार से परमेश्वर के नाम की पवित्रता संसार पर प्रकट होनी चाहिए। यह प्रभु द्वारा उन शिष्यों से कही गई कोई नई बात नहीं थी। प्रभु के वे सभी शिष्य यहूदी थे, और इसलिए मूसा द्वारा उन्हें पहुँचाई गई परमेश्वर की व्यवस्था एवं “दस आज्ञाओं” से परिचित थे। उन “दस आज्ञाओं” में से तीसरी आज्ञा है “तू अपने परमेश्वर का नाम व्यर्थ न लेना; क्योंकि जो यहोवा का नाम व्यर्थ ले वह उसको निर्दोष न ठहराएगा” (निर्गमन 20:7)। इसलिए सभी यहूदी, उस समय भी और आज भी परमेश्वर के वास्तविक नाम ‘यहोवा’ को न लेकर, उसके संक्षिप्त किए और गढ़े गए स्वरूप ‘यहवह’ का उपयोग करते हैं। निहितार्थ यह है कि यदि किसी कारण, जाने-अनजाने में, उनके मुँह से परमेश्वर के नाम के साथ कुछ अनुचित निकल भी जाए, तो भी ‘तकनीकी’ या वैध-अवैध होने के आधार पर क्योंकि उन्होंने परमेश्वर का वास्तविक नाम ‘यहोवा’ नहीं लिया था, गढ़ा गया शब्द ‘यहवह’ बोला था, इसलिए नियम के अनुसार वे तीसरी आज्ञा के उल्लंघन के दोषी नहीं ठहरेंगे। यह एक उदाहरण है कि किस प्रकार शैतान अपनी बातों के जाल में बहका और फंसा कर लोगों को पाप में डाले रखता है। उन यहूदियों के जीवन, लालसाएँ, व्यवहार, कार्य, आदि चाहे जैसे भी हों, किन्तु ‘कानूनी तौर पर’ वे परमेश्वर के नाम को दूषित करने वाले नहीं कहे जा सकते थे। और ऐसी ही अनेकों अनुचित धारणाओं और व्यवहार में शैतान ने आज के मसीहियों को भी फँसा रखा है। ऐसे ही अव्यावहारिक तर्कों के आधार पर वे अपने आप को धर्मी और सही मानते हैं, चाहे उनके जीवनों में कितना भी पाप क्यों न हो। सामान्य समझ से ही यह प्रकट है कि वास्तव में यह परमेश्वर के नाम को पवित्र मानना नहीं है।
इसकी तुलना में, प्रभु ने अपने पकड़वाए जाने से पहले की अपनी प्रार्थना में अपने शिष्यों के सामने परमेश्वर के नाम के सन्दर्भ में जो रखा, उस पर विचार कीजिए, “मैं ने तेरा नाम उन मनुष्यों पर प्रगट किया जिन्हें तू ने जगत में से मुझे दिया: वे तेरे थे और तू ने उन्हें मुझे दिया और उन्होंने तेरे वचन को मान लिया है। अब वे जान गए हैं, कि जो कुछ तू ने मुझे दिया है, सब तेरी ओर से है। क्योंकि जो बातें तू ने मुझे पहुंचा दीं, मैं ने उन्हें उन को पहुंचा दिया और उन्होंने उन को ग्रहण किया: और सच सच जान लिया है, कि मैं तेरी ओर से निकला हूं, और प्रतीति कर ली है कि तू ही ने मुझे भेजा” (यूहन्ना 17:6-8)। प्रभु ने उन लोगों से, जिन्हें परमेश्वर ने उसे सौंपा था, और जो प्रभु के बाद संसार भर में सुसमाचार और परमेश्वर के वचन को फैलाने जा रहे थे, परमेश्वर के नाम को छुपाया नहीं, उसके स्थान पर कोई और गढ़ा हुआ नाम प्रयोग करना नहीं सिखाया, उस नाम को लेने और बताने, और उपयोग करने से नहीं रोका। जैसा यहाँ पर लिखा है, प्रभु यीशु के अपने शब्दों में, परमेश्वर के नाम को जान और समझ लेने से उन शिष्यों में जो प्रभाव आए, उनपर भी ध्यान कीजिए: “(i) उन्होंने तेरे वचन को मान लिया है। (ii) अब वे जान गए हैं, कि जो कुछ तू ने मुझे दिया है, सब तेरी ओर से है। (iii) क्योंकि जो बातें तू ने मुझे पहुंचा दीं, मैं ने उन्हें उन को पहुंचा दिया और उन्होंने उन को ग्रहण किया: (iv) और सच सच जान लिया है, कि मैं तेरी ओर से निकला हूं, (v) और प्रतीति कर ली है कि तू ही ने मुझे भेजा।”
प्रभु ने जैसे परमेश्वर के नाम को अपने शिष्यों प्रगट किया, वैसे ही, जब मूसा ने परमेश्वर के नाम को जानना और समझना चाहा, तब परमेश्वर ने मूसा पर भी अपने नाम को प्रगट किया था; और उस प्रकटीकरण को अपने वचन में लिखवा कर अपने सभी लोगों के लिए सार्वजनिक कर दिया। परमेश्वर ने मूसा पर जो नाम प्रगट किया है, वह है “तब यहोवा ने बादल में उतर के उसके संग वहां खड़ा हो कर यहोवा नाम का प्रचार किया। और यहोवा उसके सामने हो कर यों प्रचार करता हुआ चला, कि यहोवा, यहोवा, ईश्वर दयालु और अनुग्रहकारी, कोप करने में धीरजवन्त, और अति करुणामय और सत्य, हजारों पीढ़ियों तक निरन्तर करुणा करने वाला, अधर्म और अपराध और पाप का क्षमा करने वाला है, परन्तु दोषी को वह किसी प्रकार निर्दोष न ठहराएगा, वह पितरों के अधर्म का दण्ड उनके बेटों वरन पोतों और परपोतों को भी देने वाला है। तब मूसा ने फुर्ती कर पृथ्वी की ओर झुककर दण्डवत की” (निर्गमन 34:5-8)। परमेश्वर का नाम, परमेश्वर के गुणों, चरित्र, व्यवहार, आदि का प्रकटीकरण है। परमेश्वर के नाम को पवित्र मानना, परमेश्वर के नाम, अर्थात उसके गुणों, चरित्र, व्यवहार को अपने जीवनों में ऐसे लागू करना और प्रदर्शित करना है कि उस पर किसी भी तरह से कोई आँच न आए। न कि उन यहूदियों के समान किसी गढ़े हुए नाम का प्रयोग करते हुए, सांसारिकता और पाप का व्यवहार करते रहना, यह मानते हुए कि क्योंकि परमेश्वर के वास्तविक ‘नाम’ के साथ कुछ नहीं किया है, इसलिए दोषी ठहराए जाने से बचे हुए हैं।
आज यदि प्रभु के सिखाए अनुसार, हम मसीही विश्वासी भी अपने जीवनों में परमेश्वर के नाम को उसकी वास्तविकता में जानें, सीखें, और आदर दें, उस नाम को पवित्र ठहराएं, तो वे ही प्रभाव जो उन शिष्यों के जीवन में आए थे, स्वतः ही वे हमारे जीवनों में भी आएंगे। परमेश्वर का नाम जानकर जैसा मूसा ने किया, “तब मूसा ने फुर्ती कर पृथ्वी की ओर झुककर दण्डवत की” वही नम्रता, समर्पण, और आज्ञाकारिता यदि आज मसीही विश्वासियों में भी हो, तो मूसा ही के समान वे कितने आशीषित तथा परमेश्वर के लिए उपयोगी हो जाएंगे। और तब, क्यों उनकी प्रार्थनाएं परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं होंगी? और तब परमेश्वर सहज ही उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर भी देगा। इसलिए, प्रार्थना माँगने से पहले व्यक्ति को परमेश्वर को, उसके नाम को अपने जीवन और व्यवहार के द्वारा संसार के सामने ऊँचे पर उठाने वाला, उसके वचन को जानने और पालन करने वाला होना अनिवार्य है। अगले लेख में हम यहीं से आगे बढ़ेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 85
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (27)
Prayer is the fourth of the four things given in Acts 2:42, that are essential for practical Christian living. The initial Christian Believers used to observe these four things steadfastly. Even today, there would be hardly any Christian who, in some form or the other, does not pray. Maybe not regularly, but when in any danger, problem, or difficulty, then all pray in whatever way they know to pray. There is a “prayer” commonly known as the “Lord’s Prayer” that the Christians are made to memorize from their childhood, and generally speaking, all Christians, on all occasions, for everything, say it by rote. As we have been seeing in the earlier articles, given in Matthew 6:9-13, this “prayer” given by the Lord, is actually not a prayer. It is an outline, a form, upon which every Christian should build and form their individual prayers, their conversation with God so that it is acceptable to God. As we have seen, before we reached this point, according to the Lord’s teachings given in Matthew 6:5-8, before approaching God, before saying anything to Him, everyone must prepare themselves. But people only remember the words written in Matthew 6:9-13 as the “Lord’s Prayer” and they keep speaking them out by rote, without understanding them or pondering over them. At the beginning of this so-called “prayer,” in verses 9-10, is the exaltation of God, His praise and worship, giving Him honor and glory; then in verses 11 to 13a are the things that should be asked of from God; and then it ends by again giving honor and glory to God in verse 13b. The implication is that the person who expects to be able to ask from God and receive something from Him, should also be one who knows how to worship God, who gives God glory and honor through his life and behavior, and exalts Him before the world. When a person will give glory and honor to God, then God will also give to him according to his needs. We have seen and learnt about this in the previous two articles, through the things related to the opening addressing of God as “Our Father” and then the next related sentence “who art in heaven.” Today we will continue to look about worshiping God before asking for anything from Him.
The last sentence of this verse, Matthew 6:9 is “...Hallowed be Your name.” In other words, for giving God the glory and honor, our exalting Him before the world through our life and behavior, our Father and child relationship with Him, our realization of our comparative positions of being on earth and of His being in heaven, are not the only factors that have a role. Rather, as this third sentence of this verse shows, even the name of God has an important role to play. Here the Lord Jesus has taught His disciples that they should be careful to exhibit the holiness of the name of God through their life and behavior before the world. This was not something new taught by the Lord to those disciples. All of the Lord’s disciples were Jews, therefore were familiar with the Law and the “Ten Commandments” that had come to them through Moses. The third of those “Ten Commandments” is “You shall not take the name of the Lord your God in vain, for the Lord will not hold him guiltless who takes His name in vain” (Exodus 20:7). Therefore, all Jews, then, and even today, instead of taking the actual name of God “Jehovah” take an abbreviated and contrived name “YHWH.” The implication is that if for some reason, knowingly or unknowingly, if they happen to say something inappropriate with the name of God, then on ‘technical’ or, on a valid-invalid reasoning, since they have not used the actual or correct name of God, “Jehovah,” therefore they will not be held guilty of having violated the third Commandment. This is an example of how Satan misleads and misguides people through his arguments, entraps people in them, and keeps the people in their sins. Whatever be the lives, desires, behavior, works of those Jews, but “legally speaking” they could not be held guilty of defiling God’s name. And Satan has entangled so many Christians in the same manner in many notions and behaviors. On the basis of similar untenable arguments, they believe themselves to be righteous and correct, irrespective of the number of sins in their lives. It is apparent even through common sense that this is not upholding the holiness of God’s name.
In contrast, consider the prayer that the Lord said before His being caught, and ponder over the context that He placed before the disciples regarding the name of God, “I have manifested Your name to the men whom You have given Me out of the world. They were Yours, You gave them to Me, and they have kept Your word. Now they have known that all things which You have given Me are from You. For I have given to them the words which You have given Me; and they have received them, and have known surely that I came forth from You; and they have believed that You sent Me” (John 17:6-8). The Lord did not hide the name of God from those who God had entrusted to Him, and who would be going all over the world to spread the gospel and the Word of God. He did not teach them to use any abbreviated or contrived name, did not keep them from speaking, using, or teaching that name. As has been written here, In Jesus’s own words, the effects that came upon the disciples by knowing and learning about the name of God, just ponder over them: “(i) they have kept Your word. (ii) Now they have known that all things which You have given Me are from You. (iii) For I have given to them the words which You have given Me; and they have received them, (iv) and have known surely that I came forth from You; and (v) they have believed that You sent Me.”
As the Lord manifested the name of God to His disciples, similarly, when Moses had desired to know and understand the name of God, then God made His name evident to him; and then by having it written in His Word, made it public for everyone. The name that God made evident to Moses is, “Now the Lord descended in the cloud and stood with him there, and proclaimed the name of the Lord. And the Lord passed before him and proclaimed, "The Lord, the Lord God, merciful and gracious, longsuffering, and abounding in goodness and truth, keeping mercy for thousands, forgiving iniquity and transgression and sin, by no means clearing the guilty, visiting the iniquity of the fathers upon the children and the children's children to the third and the fourth generation." So, Moses made haste and bowed his head toward the earth, and worshiped” (Exodus 34:5-8). The name of God, is the manifestation of the attributes, characteristics, behavior etc. of God. To hallow God’s name is to apply and make evident the attributes, characteristics, behavior etc. of God, in a manner that does not defile it in any way. It is not, like those Jews, using some contrived name, and continuing in sinful and worldly behavior, believing that since they have not used or done anything against the actual ‘name’ of God, therefore they have escaped being held guilty of defiling God’s name.
Today, if we, the Christian Believers learn and understand God’s name in its reality, give it its honor, and hold it holy in our lives, in the same manner as the Lord had taught to His disciples, then why will those effects that automatically came into the lives of those disciples, not come into our lives as well? As Moses did, when God’s name was made evident to Him “So, Moses made haste and bowed his head toward the earth, and worshiped” if we too show the same humility, submission, and obedience, then why will we not become blessed and useful for the Lord as Moses was? And then why won’t our prayers be accepted and answered by God? Therefore, before asking something from God in prayer, the one praying should first be a person who through his life and behavior exalts God and His name before the world, and one who knows and obeys God’s Word. We will move ahead from here in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.