ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 207

 

Click Here for the English Translation


मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 52


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (27) 

भाग लेने के अभिप्राय (2)


पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रभु की मेज़ में भाग लेना कोई रीति नहीं है, जिसमें किसी डिनॉमिनेशन, या समुदाय, या गुट के नियमों और परंपराओं के अनुसार, जैसे अच्छा लगे वैसे भाग लिया जा सकता है। पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 10:16-22 में से देखा है कि परमेश्वर का वचन यह बताता है, और परमेश्वर यह आशा रखता है कि उसके प्रभु भोज में भाग लेने वाले संसार के लोगों से भिन्न जीवन और व्यवहार रखेंगे; उनके लिए यह करना अनिवार्य है। इस खण्ड से हमने यह भी देखा था कि जो प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं उन पर दो अभिप्रायों - प्रभु के साथ निकट संगति या सहभागिता का जीवन जीना, और भाग लेने वालों के मध्य एकता होना; तथा एक ज़िम्मेदारी, संसार से अलगाव का जीवन जीने का उल्लेख किया गया है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाले प्रभु यीशु मसीह के साथ निकट की संगति और सहभागिता रखने की पुष्टि करते हैं और अपनी इस प्रतिबद्धता को दोहराते हैं।


प्रभु भोज में भाग लेने का दूसरा अभिप्राय, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 10:17 में लिखा है, भाग लेने वालों को एकता में रहना है। यहाँ पर पद 16 में भी एक वचन में ‘कटोरा’ और ‘रोटी’ के प्रयोग के द्वारा इसी बात को कहा गया है, जिसे फिर पद 17 में और स्पष्ट कह दिया गया है। जब हम सुसमाचारों में दिए गए प्रभु यीशु मसीह द्वारा प्रभु भोज की स्थापना के वृतांतों को देखते हैं, तो वहाँ पर भी प्रभु यीशु ने एक ही रोटी ली और शिष्यों को उसी में से खाने के लिए कहा, और एक ही कटोरा लिया और सभी शिष्यों को उसी एक कटोरे में से ही पीने के लिए कहा। प्रभु द्वारा ऐसा करने, एक रोटी और एक ही कटोरे को उपयोग करने के तात्पर्य को यहाँ पद 17 में बताया गया है, “इसलिये, कि एक ही रोटी है सो हम भी जो बहुत हैं, एक देह हैं: क्योंकि हम सब उसी एक रोटी में भागी होते हैं।” एक रोटी प्रभु यीशु की एक देह का प्रतीक है, उस एक रोटी में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाले अपनी एकता को प्रकट करते हैं, उनके प्रभु यीशु के द्वारा एक कर दिए जाने को दिखाते हैं, कि अब वे प्रभु यीशु की एक देह हैं। इसी बात को पद 18 में एक और उद्धरण से समझाया गया है, पुराने नियम की उपासना के उदाहरण के द्वारा। जो वेदी पर चढ़ाए गए बलिदानों में से खाते थे, ऐसा करने से वे न केवल वेदी के साथ, वरन, परस्पर भी एक हो जाते थे - यहाँ पर प्रयुक्त एकवचन “इस्राएली” पर ध्यान करें, यहाँ बहुवचन “इस्राएलियों”, या “यहूदियों”, या अन्य कोई बहुवचन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।


नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी मसीह की देह और दुल्हन हैं (इफिसियों 5:23-27) न कि ‘कई देह और कई दुल्हनें’। यहूदियों के लिए तो यह कल्पना से भी बाहर था कि वे अन्य-जातियों के साथ कोई संपर्क रखें (प्रेरितों 10:28), उनके साथ एक होकर रहने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। लेकिन इफिसियों 2:11-22 में पौलुस, पवित्र आत्मा के द्वारा इसी बात को समझाता है, ज़ोर देता है, और बाध्य करता है कि प्रभु यीशु मसीह में होकर यहूदी और अन्य-जाति एक हो गए हैं इसलिए उस एकता को जीकर भी दिखाएं। प्रभु यीशु की कलीसिया का आरंभ इसी एकता के साथ हुआ था (प्रेरितों 2:44-47)। पौलुस इस 1 कुरिन्थियों की पत्री का आरंभ कोरिन्थ की कलीसिया के सदस्यों से अपनी विभाजित करने वाले प्रवृत्ति को छोड़कर एक होकर रहने के आग्रह के साथ करता है (1 कुरिन्थियों 1:10-13); और फिर प्रभु भोज से संबंधित उनकी गलतियों को सुधारने तथा गलतफहमियों को ठीक करने के खण्ड, 1 कुरिन्थियों 11:17-34 की चर्चा का आरंभ भी इस एकता को बनाए रखने की बात पर फिर से बल देने के द्वारा करता है (11:17-19)। नए नियम में, मसीही विश्वासियों की इस एकता पर हमेशा ही बहुत बल दिया गया है, और इसे सर्वाधिक महत्व की बात दिखाया गया है, क्योंकि इसी में कलीसिया की सामर्थ्य, शक्ति, और योग्यता है (मत्ती 18:19-20)। इसीलिए शैतान हमेशा ही, किसी न किसी रीति से, एकता को भंग करने के प्रयास करता है। किन्तु प्रभु यीशु मसीह ने प्रभु भोज के द्वारा, मसीही विश्वासियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वे मिल जुलकर एकता में रहें। बजाए इसके कि एक दूसरे से अलग होकर और पृथक गुट बनाकर रहें, परस्पर खड़ी हुई दीवारों को बना कर रखें, व्यर्थ की अहं की बातों के द्वारा शैतान को विभाजित करने के अवसर दें, प्रभु यीशु मसीह के विश्वासी होने के नाते यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस एकता के लिए प्रयास करें और उसे बना कर रखें; क्योंकि अन्ततः एक दिन हम इसके लिए प्रभु को जवाबदेह भी होंगे, नहीं बनाए रखने का उत्तर भी देना होगा। आज कलीसिया में मेल करवाने वालों (मत्ती 5:9) की बहुत आवश्यकता है, जिससे कि वह शैतान की युक्तियों के सामने स्थिर खड़ी रह सके, और शैतानी शक्तियों पर जयवंत जीवन को दिखा सके।

 

जैसे कि प्रभु भोज में भाग लेने वाले इस अभिप्राय की पुष्टि करते हैं और उसे दोहराते हैं कि वे प्रभु यीशु के साथ निकट संगति और सहभागिता में रहते हैं; उसी प्रकार से, प्रभु भोज में भाग लेते समय वे इस बात की भी पुष्टि करते हैं और उसे दोहराते हैं कि वे प्रभु की देह - उसकी कलीसिया के अन्य सदस्यों के साथ एकता में भी रहते हैं। इन अंत के दिनों में, हमारे विश्वास में स्थिर खड़े रहने तथा अपनी गवाही के प्रति सच्चे और खरे होने के लिए यह एकता बहुत आवश्यक है, अनिवार्य है।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************


English Translation


Things Related to Christian Living – 52


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (27)

Implications of Participation (2)

 

In the previous articles we have seen that participating in the Lord’s Table is not a ritual that can be indulged in according to rules or traditions of any denomination, sect, or group. In the last article, from 1 Corinthians 10:16-22 we have seen that God’s Word prescribes, and God expects that the participants in His Holy Communion will live a life and behave differently than the people of the world; doing this is incumbent upon them. From this passage we had seen that for those who partake of the Lord’s Table, two implications – living a life of communion or fellowship with the Lord, and unity amongst the participants; and one responsibility of living a life of separation from the world, are stated here. We had then seen further that through participation in the Holy Communion, the participants affirm and renew their commitment of being, and living in close fellowship with the Lord Jesus.


The second implication of participating in the Lord’s Holy Communion is that the participants have to live in unity, as it says in 1 Corinthians 10:17. In verse 16 too, through the use of singular ‘cup’ and singular ‘bread’, the same thing was shown, and is stated more clearly in verse 17. When we study the institution of the Lord’s Table by the Lord Jesus as given in the Gospel accounts, there too, the Lord took one bread and gave it to His disciples, for all of them to eat from that one bread; and similarly, He took one cup, and asked the disciples to drink from that one cup. The Lord’s implication of doing this, of using one bread and one cup, is stated in verse 17 here, “For we, though many, are one bread and one body; for we all partake of that one bread.” The one bread represents the one body of the Lord Jesus, by partaking in that one bread, the partakers denote their unity, their being joined together through the Lord Jesus, now as one body of the Lord Himself. This is then further exemplified in verse 18 through the use of an Old Testament act of worship. Those who ate of the sacrifices made on the altar, were thereby united not only with the altar, but even amongst themselves - note the use of singular Israel at the beginning of this verse, instead of using a term like “the Israelites”, or “the Jews”, or some other plural expression.


The Born-Again Christian Believers are said to be the body and bride of Christ (Ephesians 5:23-27) and not ‘bodies and brides.’ It was unimaginable for the Jews to even communicate with the Gentiles (Acts 10:28), let alone ever be united with them. But in Ephesians 2:11-22, Paul, through the Holy Spirit explains, emphasizes, and exhorts for this very unity between the Jewish and Gentile Believers, effected through the Lord Jesus. The Church started off with this understanding of unity (Acts 2:44-47). Paul, in this letter of 1 Corinthians, begins by exhorting the Corinthian Church members to stop their divisive tendencies and remain united (1 Corinthians 1:10-13); and then in the section on correcting their errors and misunderstandings about the Holy Communion (1 Corinthians 11:17-34), he starts off the discourse by re-emphasizing maintaining this unity (11:17-19). In the New Testament, this unity of the Christian Believers has always been strongly emphasized upon, and considered to be of paramount importance, because in this unity is the strength, power, and capability of the Church (Matthew 18:19-20). Therefore, Satan always tries to disrupt this unity, one way or another. But the Lord Jesus, through the Holy Communion has made it imperative for the Believers to live in unity. Instead of looking for ways and excuses of separating and segregating ourselves from each other, of keeping intact our mutual barriers, of letting Satan divide us through petty ego issues, as Believers in the Lord Jesus, it is our responsibility, that we strive for and maintain this unity; for eventually we will be accountable to the Lord for not maintaining it. The Church today is sorely in need of the peacemakers (Matthew 5:9), so it can stand up to the wiles of the devil and demonstrate a life victorious over the satanic forces.


Just as the participants affirm and renew their commitment to being in close fellowship with the Lord and living accordingly; similarly, while participating in the Holy Communion they also affirm and renew their commitment of living in unity with the other members of the body of Christ - His Church. It is the urgent need of the hour that we be true to this commitment, to be able to stand firm in our Faith and true to our witness in these end times.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well