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मंगलवार, 10 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 186

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 31


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (6) 


इस सन्देश को हिन्दी में सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें 


पिछले लेखों में हमने देखा है कि व्यावहारिक मसीही जीवन को जीने के लिए आरम्भिक मसीही विश्वासी, प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों का, जिन्हें “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है, लौलीन होकर निर्वाह करते थे। अभी हम इन चार में से तीसरे स्तम्भ, “रोटी तोड़ना” यानि कि प्रभु-भोज या प्रभु की मेज़ में भाग लेने के बारे में, 1 कुरिन्थियों 11:17-34 से देख और सीख रहे हैं। पिछले लेख में हमने इस खण्ड के 23 पद से सीखा था कि पौलुस ने इस बात को स्पष्ट कह दिया कि प्रभु भोज से सम्बन्धित जो निर्देश वह दे रहा है, वह उसकी अपनी कल्पना या धारणा नहीं हैं, वरन उसे प्रभु से मिले निर्देश हैं। अर्थात, उसके द्वारा लिखे गए निर्देशों की अनदेखी करना, प्रभु द्वारा दिए गए निर्देशों की अनदेखी करना है। पवित्र आत्मा को पौलुस द्वारा ये निर्देश इस लिए देने पड़े, क्योंकि कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों ने प्रभु भोज के स्वरूप, निर्वाह, और अर्थ को बिगाड़ दिया था; उसमें अपनी ही इच्छा और सोच के अनुसार परिवर्तन कर दिए थे। जिसके दुष्परिणाम भी उस कलीसिया में दिखने आरम्भ हो गए थे। पवित्र आत्मा ने पौलुस द्वारा कुरिन्थुस के विश्वासियों के लिए आवश्यक सुधारों को लिखवा दिया; और इस बात को परमेश्वर के अटल और अपरिवर्तनीय वचन में भावी मसीही विश्वासियों एवं कलीसियाओं के लिए भी रख दिया। अर्थात, प्रभु भोज को, उसकी स्थापना के समय, प्रभु द्वारा दी गई विधि, स्वरूप, और अभिप्राय के अन्तर्गत ही लेना है; अन्यथा दुष्परिणामों का भागीदार होना पड़ेगा। आज हम इससे आगे बढ़ेंगे, और प्रभु की मेज़ एक अभिप्राय के बारे में देखेंगे। 

4. प्रभु-भोज के लिए प्रभु के निर्देश - उद्देश्य - पद 23-26 - (भाग 2)  


पवित्र आत्मा द्वारा 1 कुरिन्थियों 11:24-25 में लिखवाया गया है कि प्रभु की मेज़ धन्यवाद की मेज़ है। जैसा मत्ती 26:26-28 और मरकुस 14:22-24 में भी लिखा है, प्रभु यीशु ने इस मेज़ की स्थापना के समय आशीष माँगकर रोटी तोड़ी और धन्यवाद देकर कटोरा शिष्यों को दिया था। आम धारणा के विपरीत, रोटी और कटोरे के लिए यह आशीष और धन्यवाद वह नहीं था जिसके साथ हम भोजन का आरम्भ करते हैं। मत्ती 26:21, 26 और मरकुस 14:18, 22 में लिखा हुआ है, फसह के पर्व का भोजन आरम्भ हो चुका था; यूहन्ना 13:4 में लिखा है कि प्रभु ने भोजन से उठकर शिष्यों के पाँव धोए। अर्थात, जैसा हमने यहूदा इस्करियोती के मेज़ में भाग न लेने के लेख में देखा था, प्रभु की मेज़ की स्थापना प्रभु ने भोजन करने के दौरान की। इसलिए भोजन के लिए जो धन्यवाद की प्रार्थना और आशीष माँगी जाती है, वह उस भोजन के आरम्भ के समय हो चुकी होगी। इसलिए प्रकट है कि अब शिष्यों को रोटी तोड़ कर देने और प्याला देने के समय जो धन्यवाद और आशीष प्रभु ने माँगी, वह भोजन के आरम्भ की आशीष और प्रार्थना नहीं थी; उस से भिन्न थी। प्रभु ने उस तोड़ी गई रोटी को अपनी देह और प्याले के दाखरस को अपना लहू भी कहा। इससे यह प्रकट है कि प्रभु अपनी देह के तोड़े जाने और लहू के बहाए जाने के लिए पिता परमेश्वर का धन्यवाद कर रहा था, आशीष मांग रहा था। इस आधार पर हम समझ सकते हैं कि शिष्यों को अपनी देह और लहू के चिह्नों को देने से पहले, प्रभु यीशु ने परमेश्वर का धन्यवाद किया, और आशीष माँगी:

  • उसके जीवन और सेवकाई के लिए। 

  • उसे बलिदान होने के लिए मनुष्य की देह में भेजने के लिए (इब्रानियों 10:5)। 

  • उसे मानव जाति के उद्धार के लिए उपयोग करने के लिए। 

  • उस सारे उपहास और पीड़ा के लिए जिसे वह थोड़े समय बाद परमेश्वर की योजना पूरी करने के लिए सहने जा रहा था। 


प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को सिखाया था कि उन्हें उसके अनुयायी होने के कारण बैर, निन्दा, विरोध, और पीड़ा का सामना करेगा। और कहा था कि जब ऐसा हो तो वे दुखी नहीं, वरन बहुत आनन्दित हों (लूका 6:22-23)। आज प्रभु उनके समक्ष इसी शिक्षा को अपने पर लागू कर के दिखा रहा था। और बाद में, शिष्यों ने भी यही किया (प्रेरितों 5:40-41); तथा पतरस ने अपनी पत्री में एक बार फिर से इसी बात को सिखाया (1 पतरस 4:13-16)। इस बात से, प्रभु की मेज़ में भाग लेने के लिए, हम अपने लिए क्या शिक्षाएं लेते हैं? थोड़ा सा विचार करने से यह प्रकट हो जाता है कि प्रभु भोज में भाग लेना किसी रस्म की पूर्ति और एक औपचारिकता निभाना मात्र नहीं है। वरन, प्रभु की मेज़ उन के लिए है:

  • जिन्होंने अपने आप को परमेश्वर पिता के हाथों में सौंप दिया है कि वह उन्हें अपने उद्देश्यों और महिमा के लिए जैसे उपयुक्त लगे, वैसे उपयोग करे।

  • जो परमेश्वर की योजना के अन्तर्गत, मानव जाति की भलाई के लिए, परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने के लिए समर्पित और प्रतिबद्ध हैं; चाहे इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़े, कुछ भी क्यों न सहना पड़े। 

  • जो हर बात और परिस्थिति के लिए परमेश्वर पर अपना भरोसा बनाए रखते हैं। चाहे बात उनकी समझ में आए अथवा न आए, वे कभी भी, किसी भी बात के लिए परमेश्वर पर सन्देह नहीं करते हैं, निराश नहीं होते हैं। 

  • जो हमेशा, हर बात और परिस्थिति के लिए परमेश्वर के धन्यवादी बने रहते हैं (1 थिस्सलुनीकियों 5:18), क्योंकि उन्हें भरोसा है कि अन्ततः हर बात और परिस्थिति के द्वारा परमेश्वर उनका भला ही करेगा (रोमियों 8:28)।


और हम प्रभु के उन शिष्यों के जीवनों से भी, तथा बाद में सारे संसार भर में जब भी, जहाँ भी सच्चे, प्रतिबद्ध मसीही खड़े हुए, उनके जीवनों से भी उपरोक्त बातों को पूरा होते हुए देखते हैं। जो लोग प्रभु की मेज़ को हल्के में, एक रस्म, एक औपचारिकता के समान लेते आए हैं, उन्हें वचन की शिक्षा पर, और अपनी धारणाओं पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए, और अपने जीवनों में जिन बातों को सुधारना है, उन्हें ठीक करते हुए ही प्रभु की मेज़ में भाग लेना चाहिए। अगले लेख में हम यहीं से आगे बढ़ेंगे, और इस विषय को आगे देखेंगे। 

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 31


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (6)


To Listen to this message in English Click Here


In previous articles we have seen that in order to live a practical Christian life, the early Christian Believers steadfastly followed the four things given in Acts 2:42, also known as the “Pillars of the Christian life.” Presently, in our study we are looking at and learning from 1 Corinthians 11:17-34 about the third of these four pillars, i.e., the “breaking of bread,” or, partaking of the Lord's Supper or in the Lord's Table. In the previous article, we learned from verse 23 of this section that Paul had made it clear that the instructions he is giving regarding the Lord's Supper are not of his own imagination or notions, but are instructions he has received from the Lord. Implying that to ignore the instructions written by him, is to ignore the instructions given by the Lord. The Holy Spirit had to give these instructions through Paul, because the Christian Believers in Corinth had distorted the form, observance, and meaning of the Lord's Supper; and had made changes in them according to their own desires and thinking. The ill effects of their doing this had also started becoming apparent in that church. The Holy Spirit had Paul write down the corrections required for the Corinthian Believers; and these were also made a part of God's firmly established and unalterable Word, for the future Christians and churches. We learnt from this that the Lord's Supper is to be taken in the form, by the method, and the purpose that was given by the Lord at the time of its establishment; else the consequences will have to be suffered. Today we will go further, and look at one of the implications of the Lord's Table.


4. Lords instructions for the Holy communion – The purposes - verses 23-26 - (part 2)

 

 It is written by the Holy Spirit in 1 Corinthians 11:24-25 that the Lord's table is a table of thanksgiving. The same is also written in Matthew 26:26-28 and Mark 14:22-24; where we see that at the time of the establishment of this table, Lord Jesus blessed and broke the bread, and gave thanks for the cup, then gave it to the disciples. Contrary to popular belief, this blessing and thanksgiving over the bread and cup was not the one with which we begin a meal. In Matthew 26:21, 26 and Mark 14:18, 22 we read that the Passover meal had already begun; and it is written in John 13:4 that the Lord rose from the meal to wash the feet of the disciples. So, as we saw in the article on Judas Iscariot not partaking of the table, the Lord's Table was established by the Lord during the eating of the Passover meal. Therefore, the prayers of thanksgiving and blessings that are asked for the food must have already been done at the time of the beginning of that meal. Therefore, it is evident that the thanksgiving and blessing that the Lord asked at the time of breaking the bread and giving the cup to the disciples was not the blessing and prayer offered at the beginning of the meal; they were different from that. The Lord also called the bread that was broken His body, and the wine that was in the cup His blood. This shows that the Lord was thanking God the Father, and was asking for blessings, for the breaking of His body and the shedding of His blood. Through this we can understand that before giving the representations of His body and blood to the disciples, the Lord Jesus thanked God and asked for His blessing:

·   For his life and ministry.

·   For sending Him in human flesh to be sacrificed (Hebrews 10:5).

·   For using Him for the salvation of mankind.

·  For all the ridicule and suffering he was going to endure in a short time, to fulfill God's plan.


The Lord Jesus had taught His disciples that they would face hatred, humiliation, opposition, and sufferings because of being His followers. And had said that when this happens, they should not be sad, but should rejoice, be joyful (Luke 6:22-23). Today the Lord was practically demonstrating this teaching to them, was applying it to Himself. We see that later, the disciples too did the same (Acts 5:40-41); and Peter taught the same thing once again in his letter (1 Peter 4:13-16). What lessons do we take from this for ourselves regarding partaking of the Lord's table? A little pondering over makes it apparent that participating in the Lord's Supper is not just the fulfillment of a ritual, nor is it a formality. Rather, the Lord's table is for:

·  Those who have handed themselves over to God the Father to use them as He sees fit to fulfill His purposes and for His glory.

·  Those who are fully submitted and committed to being used by God, for His plans for the good of mankind; no matter what price they may have to pay, and no matter what they may have to suffer for this.

·  Those who place and maintain their trust in God in every situation and for everything. Whether or not they understand it, but they never doubt God about anything, nor are disappointed.

·  Those who are always thankful to God for everything (1 Thessalonians 5:18), because they trust that in the end God will make everything work for their good (Romans 8:28).


And we see the above things fulfilled in the lives of not only these disciples of the Lord, but later in the lives of the true, committed Christian Believers, at any time and anywhere in the world. Those who have been treating the Lord's Table lightly, as a ritual, as a formality, should seriously ponder over the teachings of the Word of God, and also over their own notions; and correct what needs to be corrected in their lives before participating in the Lord's table. In the next article we will proceed from here, and look at this topic further.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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