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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 83
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (25)
व्यावहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित बातों में से एक है प्रार्थना करना। आज के समय में मसीहियों में मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित बातों को लेकर शैतान ने बहुत सी भ्रांतियाँ फैला रखीं हैं। इस कारण आज के मसीहियों का जीवन और व्यवहार, बाइबल में दिए गए आरम्भिक मसीहियों और कलीसियाओं के जीवन और व्यवहार से भिन्न हैं। किन्तु फिर भी परमेश्वर के वचन से बाहर की इन बातों को बड़ी लग्न से स्वीकार किया जाता है, उनका पालन किया जाता है। इन गलत बातों के मसीहियों के जीवन में घुस आने, और जड़ पकड़ लेने का मुख्य कारण है मसीहियों द्वारा व्यक्तिगत बाइबल अध्ययन को छोड़कर, केवल पास्टर, कलीसिया के अगुवों, या प्रचारकों द्वारा कही गई बातों पर अन्ध-विश्वास कर लेना और बिना जाँचे परखे उन्हें मानते रहना। यदि स्वीकार करने से पहले हर बात बाइबल से जाँची-परखी जाए, और फिर उसका पालन किया जाए, तो शैतान को अपने झूठ फैलाने का अवसर भी नहीं रहेगा। इसीलिए हम व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों को परमेश्वर के वचन के उदाहरणों और लेखों के आधार पर देख रहे हैं, उनके वास्तविक स्वरूप और उपयोग के बारे में सीख रहे हैं। वर्तमान में, प्रार्थना के बारे में सीखते हुए, हम तथा-कथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में मत्ती 6:5-15 से सीख रहे हैं। इस “प्रार्थना” को बचपन से ही मसीहियों को रटा दिया जाता है, और फिर वे जीवन भर, हर अवसर और हर परिस्थिति में, बिना इसके बारे में जाने, बिना इस पर सोचे समझे, इसे बोलते रहते हैं। लेकिन जैसा हमने पिछले लेखों में देखा है, प्रभु ने इसे अपने शिष्यों को उस तरह से उपयोग करने के लिए नहीं दिया था, जैसा कि आज इसे उपयोग किया जा रहा है। यह परमेश्वर से कारगर प्रार्थना करने की एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके आधार पर मसीहियों को अपनी व्यक्तिगत प्रार्थनाएं बनानी और स्वरूपित करनी हैं। मत्ती के इस खण्ड से हमने, पद 5-8 से देखा है कि परमेश्वर के सामने प्रार्थना के साथ उपस्थित होने से पहले, प्रार्थना करने वाले को कुछ तैयारी कर लेनी चाहिए, परमेश्वर से क्या और क्यों माँगना है, उसके लिए अपने आप को कैसे तैयार करना चाहिए। आज से हम इस “प्रभु की प्रार्थना” के पदों, पद 9-13, पर विचार आरम्भ करेंगे।
प्रभु यीशु ने इस प्रार्थना की रूपरेखा, या ढाँचे के बारे में आरम्भ करते हुए कहा, “सो तुम इस रीति से प्रार्थना किया करो; “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए; तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो” (मत्ती 6:9-10)। प्रभु द्वारा दिए गए प्रार्थना के इस ढाँचे, इस रूपरेखा को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है - आरम्भिक सम्बोधन (पद 9-10), प्रार्थना के विषय (पद 11-13a), और समापन (पद 13b)। प्रार्थना की इस रूपरेखा का आरम्भिक सम्बोधन, और समापन दोनों परमेश्वर की आराधना अर्थात उसका गुणानुवाद, उसे सम्मान देना हैं। फिर मध्य भाग उन विषयों के बारे में है जिन्हें प्राप्त करने के लिए हमें परमेश्वर के सम्मुख आना है। अर्थात, प्रभु के लोगों को, प्रभु से कुछ प्राप्त करने की मनसा रखने वालों को, केवल प्रभु से माँगने वाला ही नहीं, वरन सबसे पहले प्रभु का आराधक, उसका गुणानुवाद करने वाला, उसे सम्मान देने वाला भी होना चाहिए। पिता परमेश्वर की आराधना, उसका गुणानुवाद करना, उसे सम्मान देना दिखाता है कि हम उसकी हस्ती को, उसके सार्वभौमिक, सर्वोच्च, सर्वाधिकारी होने को, सभी बातों के उसके नियंत्रण में होने को, और उसके हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करने की क्षमता रखने वाले एकमात्र होने को जानते और मानते हुए उसके सम्मुख अपनी आवश्यकताओं को लेकर आए हैं। जब हम परमेश्वर पिता की वास्तविक हस्ती, उसकी सार्वभौमिकता को अपने जीवनों में अंगीकार करेंगे, उसे सर्वप्रथम रखेंगे, उसके प्रति अपने जीवन और व्यवहार को उससे सम्बन्धित इन बातों के अनुरूप करेंगे, तो स्वतः ही फिर हम यह ध्यान भी रखेंगे कि हम उससे जो भी कहें, जो भी माँगें, वह हमारे पिता परमेश्वर की उस हस्ती और उसके गुणों के अनुसार हो। हमारा उससे कुछ भी माँगना या कहना, उसकी इस हस्ती में, उसके गुणों में कोई ऐसी बात न लाए, जो उसके स्वरूप और चरित्र की इन बातों को किसी भी रीति से कम करे, किसी भी तरह से उसे नीचा दिखाए, किसी भी रूप में उसके लिए अपमानजनक हो। तब ही हमें यह आशा रखनी चाहिए कि परमेश्वर पिता हमारी सुनेगा और उसका सकारात्मक उत्तर भी देगा।
हमने पिछले लेखों में देखा है कि परमेश्वर का प्रार्थनाओं को सुनकर उत्तर देने का आश्वासन, प्रचलित किन्तु गलत धारणा के विपरीत, केवल प्रभु के सच्चे, समर्पित, और आज्ञाकारी शिष्यों के लिए ही है; हर किसी के लिए नहीं। साथ ही हमने यूहन्ना 3:3, 5 से देखा है कि प्रभु का सच्चा शिष्य होने का अर्थ है वास्तव में नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी होना, परमेश्वर पिता के परिवार का एक सदस्य होना (यूहन्ना 1:12-13)। इसी बात के आधार पर प्रभु ने प्रार्थना की इस रूपरेखा में सबसे पहली बात जो कही है, वह है “हे हमारे पिता।” अर्थात, परमेश्वर से वार्तालाप का, उससे कुछ माँगने और पाने की इच्छा रखने का आधार परमेश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध है। सबसे पहले हमें परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध को समझना चाहिए। जिनका परमेश्वर के साथ पिता और सन्तान का सम्बन्ध नहीं है, उन्हें सबसे पहले अपने जीवन की इस कमी को ठीक करना चाहिए, और फिर परमेश्वर की सन्तान बनकर परमेश्वर से प्राप्त करने की लालसा रखनी चाहिए। जब व्यक्ति अपने आप को परमेश्वर के परिवार का सदस्य जानता और पहचानता है, तो वह फिर अपने जीवन और व्यवहार में, अपनी लालसाओं और अभिलाषाओं में इस बात का भी ध्यान रखेगा कि परमेश्वर पिता से उसका वार्तालाप, इस पारिवारिक सम्बन्ध, परिवार की इस गरिमा और सम्मान के अनुसार हो। उसकी किसी भी बात से न तो उसके पिता परमेश्वर पर और न ही उसके परिवार तथा अन्य पारिवारिक सदस्यों पर कोई आँच न आने पाए, कोई उँगली न उठाने पाए। अर्थात, इस पिता और सन्तान के सम्बन्ध के एहसास के साथ ही परमेश्वर के पास आने वाले व्यक्ति के जीवन, व्यवहार, लालसाओं, और अभिलाषाओं में स्वतः ही बहुत सुधार हो जाता है, व्यर्थ बातें हटने लगती हैं, और व्यक्ति परमेश्वर पिता की इच्छा और उसके वचन के अनुसार ढलने लग जाता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि उसकी प्रार्थनाएं या ‘माँगें’ भी परमेश्वर पिता की इच्छा और वचन के अनुसार होने लग जाएंगी, और परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएंगी।
बहुत से लोगों में यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि वे “प्रभु यीशु के लहू के द्वारा,” या “प्रभु के क्रूस के द्वारा,” या अन्य ऐसे किसी वाक्यांश का प्रयोग करते हुए परमेश्वर के सम्मुख आने की बातें बोलते हैं। परमेश्वर के वचन में, परमेश्वर के सम्मुख आने का आधार केवल व्यक्ति का परमेश्वर से पिता और सन्तान का रिश्ता होना ही दिखाया गया है। इसके अतिरिक्त जो भी सम्बोधन हैं, वे चाहे श्रद्धा पूर्ण हों, लेकिन वचन के उदाहरणों से सुसंगत नहीं हैं; वचन में जोड़ी गई बातें हैं, जो करना मना किया गया है। उनके प्रयोग के औचित्य और उपयोगिता का वचन से कोई समर्थन नहीं है। प्रभु द्वारा परमेश्वर पिता को सम्बोधित करने के लिए दिया गया वाक्यांश है “हे हमारे पिता;” इसलिए वचन में अपनी ओर से कुछ नया जोड़ने की बजाए, किसी मनुष्य की बुद्धि और समझ की बात का पालन करने की बजाए, प्रभु द्वारा दी गई बात का पालन करना ही सही और उचित है। अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 83
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (25)
One of the components of living a practical Christian life is prayer. Nowadays, Satan has spread many wrong concepts related to living a Christian life. Therefore, the life and behavior of the present-day Christians and of the churches is quite different from the way of living and behavior of the initial Christians and the churches at that time. But still, the things from outside of God’s Word are readily accepted and followed. The main reason for these wrong things having entered and taken root in the lives of the Christians is their moving away from personal Bible study, and depending only upon the Pastors, Church Elders, and Preachers; having a blind faith in whatever they say, and following them without first examining and cross checking them. If everything is examined and cross-checked from the Bible before accepting and following it, Satan will not have any opportunity to spread his lies. Therefore, we are learning about the actual form and observance of things related to practical Christian living from the examples and the text given in God’s Word. Presently, while learning about prayer, we are now considering the so-called “Lord’s Prayer” through Matthew 6:5-15. The children are made to memorize this “prayer” from their childhood, and then for the rest of their lives, on every occasion and for every circumstance, they keep repeating it, without knowing or understanding anything about it. But, as we have seen in the earlier articles, the Lord had not given it to His disciples to be used in such a manner as it is being used today. This is an outline, a framework, based on which the Christians have to build and mold their personal prayers. From this section of Matthew, we have seen from verses 5 to 8 of this section of Matthew, that before presenting ourselves before God in prayer, we should make some preparations about what we are going to ask God for, and why; and, how we should make ourselves ready to come before God. From today we will start considering this “Lord’s Prayer” given in verses 9-13.
The Lord Jesus at the beginning of this outline or framework said “In this manner, therefore, pray: Our Father in heaven, Hallowed be Your name. Your kingdom come. Your will be done On earth as it is in heaven” (Matthew 6:9-10). This framework, this outline of prayer given by the Lord, can broadly be divided into three parts - the opening address (verses 9-10), the topics for asking (verses 11-13a), and the ending (verse 13b). In this framework of prayer, both, the opening address, and the ending are God’s worship, i.e., exalting and honoring Him. The middle part is about the things we should be coming to God for. In other words, the people of God, those who desire to receive something from God, should not just be those who ask for things from God, but also be those who worship Him, praise and honor Him. To worship Father God, to exalt and honor Him shows that we recognize His stature, His being all-in-all, the most high, the highest authority, everything being under His control, and His being the only one who has the ability to fulfill all our needs, and with this in mind we have come before Him for our needs. When we acknowledge the true stature of God, of His being all-in-all, give Him the first place in our lives, and mold our lives and behavior in accordance with these, then automatically we will also take care that whatever we say to Him, whatever we ask of Him, it is consistent with the stature and attributes of God. So, anything that we ask for or say, should not in any way be anything that in any way diminishes anything related to His characteristics and stature, is in any way insulting to Him, or brings Him down in any manner. Only then will we have this hope that Father God will listen to us and answer favorably.
We have seen in the earlier articles that God’s assurance to listen and answer prayers, contrary to the popular but wrong concept, is only for the true, surrendered, obedient disciples of the Lord; it has not been given for everyone. We have also seen from John 3:3, 5 that to be a true disciple of the Lord means to be a truly Born-Again Christian Believer, to be a member of God’s family (John 1:12-13). On this basis, the first thing that the Lord has said in this outline of prayer is “Our Father.” In other words, the basis of conversing with God, of having the desire to ask and receive something from Him, is our relationship with God. The first thing that we should understand about is our relationship with God. Those who do not have a Father and child relationship with God, should first rectify this deficiency in their lives, and then, having become a child of God, have the desire to receive anything from God. When a person recognizes himself as a member of God’s family, then in his life and behavior, in his desires and expectations, he is also careful to ensure that his conversation with God should be according to the dignity and honor of this familial relationship. Nothing of what he says or does should in any way bring a bad name, and no one should have any reason or opportunity to point fingers on his Father God and other members of his family. That is to say that with the realization of this Father and child relationship with God, the life, behavior, desires, expectations, etc., automatically start changing for the better, the vain things start falling away, and the person starts conforming to the will and Word of Father God. In such a situation, it is only natural that his prayers and ‘wants’ will also start becoming consistent with God’s will and Word, and will become acceptable to God.
There is a tendency seen in many people that they use phrases like “through the blood of Jesus” or “through the Cross of the Lord” or something else like these, to come before God with their requests. In God’s Word, the one and only basis of approaching God is the Father and child relationship with God. Using anything other than this to address God, even though it may sound reverential, it is not consistent with the examples given in God’s Word. They are additions to God’s Word, something that has been forbidden. There is no rationale and no utility for them on the basis of God’s Word. The phrase given by the Lord Jesus for addressing God is “Our Father.” Therefore, instead of adding anything new to God’s Word, instead of following anything according to the wisdom and understanding of any man, following what has been said and given by the Lord is the correct and appropriate thing to do. In the next article, we will carry on from here.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.